लखनऊ संस्कृती और तहज़ीब के लिये जाना जाता है और जब इस शहर के प्रदर्शन कला की बात की जाती है तो उमराव जान का नाम सहसा ही सर्वप्रथम स्थान पर आता है। लखनऊ में कोठो का अपना एक अलग ही संसार था तथा यहाँ पर कई कलाओं का विकास हुआ।
शहर के तमाम अमीर लोग व नवाब कोठों के चकाचौंध में अपने को सराबोर कर देते थें। ये अमीर पुरुष कला और नृत्य के संरक्षक भी थे, और इसलिए इन कोठों में कथक विकसित हुआ और उत्तर से सबसे प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य रूप बन गया। कथक का लखनऊ घराना अपने नृत्य प्रदर्शन में नज़ाकत, अन्दाज़ एवं अदाकारी के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। यहाँ अंगों की निकासी (बनावट), चमत्कारिक टुकडे, पाने, आमद तथा लयपूर्ण प्रदर्शनों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। थाट बरतना तथा ठुमरियों को गाकर नृत्य करना यहाँ बहुप्रचलित है। समय के अनुसार हुए परिवर्तनों से कथक नृत्य में आज तरह-तरह के प्रयोग हो रहे हैं, जिससे इस नृत्य में नवीनता एवं चमत्कार की वृद्धि हो रही है। लखनऊ घराने की नींव को सुदृढ़ करने में अवध सूबे के नवाब वाजिद अली शाह का अकथनीय योगदान रहा है। ये 15 फरवरी 1847 में अवध के दरबार में गद्दीनशीन हुए थे। वाजिद अली शाह एक कुशल गायक, वादक, नर्तक, निर्देशक, तथा शायर होने के साथ-साथ बड़े कलाप्रिय थे और सभी कलाओं के संरक्षक थे।
पहले कथक एकल नृत्य के रूप में ही जाना जाता था। इसमें नाट्य तत्वों का समावेश करके उसे नृत्यनाटिका की ओर लाने का प्रयोगात्मक प्रयास नवाब साहब ने किया। इसी शैली में इन्होंने इंदरसभा को मंचित किया। इन्होंने कथक में ग़ज़ल, ठुमरी एवं दादरा को विशेष स्थान दिलवाया। वाजिद अली ने सौत-उल-मुबारक और गुंच-ए-रंग आदि क़िताबें लिखीं, जिसमें कथक नृत्य में की जाने वाली 21 गतों का लेखा-जोखा है। स्पष्ट है की लखनऊ इस अति प्राचीन कला की जननी है। लखनऊ और कथक पूर्णत: एकदूसरे से जुड़े हैं। वस्तुत: तहजीब और नजाकत से भरी लखनऊ नगरी का एक विशिष्ट अन्दाज़ है।
यहाँ का चौक ही वह स्थान है जहाँ पर सभी प्रमुक कोठे पाये जाते थें। चौक की दो द्वारों के बीच, दुकानों की ऊपरी मंजिलें तावायफों के कोठे थे। कोठे खुद में संस्थान थे उन्हें कला प्रदर्शन करने में प्रशिक्षित करने का संसार या संस्था माना जाता था। यहाँ पर ही कितने उच्च प्रकार के नृत्यों का ही जन्म हुआ जैसे कि कथक और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ साहित्य मुख्यतः गज़ल। इन्हें उच्च वर्ग के अभिजात वर्ग के रूप में स्वीकार किया गया तुलना में ये जापान के गीशा परंपरा से मिलते थें। वे इतने सांस्कृतिक रूप से परिष्कृत थे कि कुलीन परिवारों और अन्य बड़े परिवारों से युवा पुरुषों को भेजा गया उस समय के शिष्टाचार और व्यवस्थित व्यवहार को सीखने के लिए।उस के बाद 1856 में नवाबी शासन का पतन इन कोठों के लिये काला दिवस साबित हुआ। हालांकि कई कोठे राजनीतिक उथल-पुथल से बच गए, और धीरे-धीरे नृत्य (मुजरा) द्वितीयक बन गया और वेश्यावृत्ति के लिए इनका इस्तेमाल किया जाने लगा। वर्तमान में पूरे देश में वेश्यवृत्ती एक महत्वपूर्ण व भयावह समस्या के रूप में उभर कर सामने आयी है।
1. दूसरा लखनऊ: नदीम हसन
2. अवध संस्कृति विश्वकोश, सूर्यप्रसाद दिक्षित
3. http://www.tornosindia.com/afternoons-in-the-kothas-of-lucknow/
4. http://www.sid-thewanderer.com/2016/09/heritage-walk-of-lucknow.html
5. https://books.google.co.in/books?
id=9e5LeQa3b5sC&printsec=frontcover&dq=lucknow+kotha+kathak&hl=en&sa=X&ved=0ahUKEwivtZK0rL7ZAhWJKpQKHQkbDdcQ6AEIOjAD#v=onepage&q&f=false
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