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‘मर्सिया’ कविता, जो शिया मुसलमानों के लिए विशेष महत्व रखती है, साहित्यिक अभिव्यक्ति का एक अनूठा रूप है। इस्लामी दुनिया के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति एवं पैगंबर के पोते– इमाम हुसैन के व्यक्तित्व तथा ‘कर्बला की ऐतिहासिक लड़ाई’ के दौरान उनके और उनके परिजनों की कठिनाइयों का वर्णन करने हेतु, समर्पित, मर्सिया को आमतौर पर मुहर्रम के महीने में पढ़ा जाता है। मर्सिया मूलतः एक धार्मिक कविता होती हैं।
दरअसल, मर्सिया शब्द, अरबी शब्द ‘मर्थिया’ से आया है, जिसका अर्थ– एक दिवंगत आत्मा के लिए, एक त्रासदी या विलाप, है।
सरल शब्दों में,मर्सिया शब्द का अर्थ– शोकगीत है; अर्थात यह कविता मृतकों के लिए, विलाप है। मर्सिया को आमतौर पर गाया जाता है, और यह भारतीय रागों पर आधारित होता है, जिससे यह संगीत और कविता का मिश्रण बनता है। उर्दू साहित्य में, मर्सिया इमाम हुसैन और उनके परिवार के सदस्यों की प्रशंसा में लिखी गई है, जो वर्तमान इराक(Iraq)में, वर्ष 680 ईसवी में,कर्बला की लड़ाई में मारे गए थे।अब इस घटनाक्रम एवं संबंधित मर्सिया पर कुछ किताबें भी लिखी गई हैं।हमारे देश भारत में, मर्सिया की परंपरा सबसे पहले दिल्ली और दक्कन में विकसित हुई थी। लेकिन, हमारे शहर लखनऊ के नवाबों के संरक्षण में, यह अपने चरम पर पहुंच गई। नवाबों ने, 18वीं और 19वीं शताब्दी में, इस कला को प्रोत्साहित किया,जब देश में, मुगल सत्ता लगातार कम हो रही थी।
19वीं सदी के दौरान, इसके सबसे प्रतिष्ठित कवियों– मीर अनीस तथा मिर्ज़ा दबीर ने, अपनी रचनाओं के माध्यम से, मर्सिया पर गहरा प्रभाव छोड़ा। इससे छह-पंक्ति वाले छंदों को पसंदीदा रूप दिया गया। 7वीं शताब्दी के दौरान,अरब(Arabia)में कुछ विशेष घटनाओं के चित्रण के लिए भी, मर्सिया उल्लेखनीय है। यह दक्षिण एशियाई दर्शकों के लिए, प्रासंगिक हो सकता है।उदाहरण के लिए, इसके अरब पात्रों को, दक्षिण एशियाई परिवेश में दर्शाया गया है, जिनकी आदतें और रीति-रिवाज उत्तर भारतीय परिवारों की तरह हैं।
उर्दू भाषा में, मर्सिया की पहली रचनाएं सोलहवीं शताब्दी में भारत के दक्कन राज्यों में हुई।तब वे या तो इनके दो-पंक्ति इकाई रूप ‘कसीदा’, या फिर चार-पंक्ति इकाई रूप– ‘मुरब्बा’ में लिखे गए थे। हालांकि, समय के साथ, ‘मुसद्दस’, मर्सिया के लिए, सबसे उपयुक्त रूप बन गया। मर्सिया के इस रूप में, प्रत्येक छंद की पहली चार पंक्तियों, जिन्हें बैंड(Band) कहा जाता है, में एक छंद योजना होती है।जबकि, शेष दो पंक्तियों, जिन्हें टिप(Tip) कहा जाता है, में एक अन्य छंद होता है। साथ ही, प्रत्येक छंद के अंतिम दो ‘मिसरे’ एक विशेष रूप से सशक्त या दयनीय बिंदु बनाते थे।
मुसद्दस रूप को भारतीय उपमहाद्वीप के शिया मुस्लिम समुदाय के कारण, लखनऊ में विशेष स्थान और लोकप्रियता मिली। क्योंकि, यहां कर्बला की लड़ाई के शहीदों की स्तुति करना और शोक मनाना धर्मपरायणता और धार्मिक कर्तव्य के रूप में माना जाता था।
ऐसा प्रतीत होता है कि, यह विकास, 18वीं शताब्दी के अंतिम भाग और 19वीं शताब्दी के पहले भाग के दौरान, मुख्य रूप से फैज़ाबाद और लखनऊ में हुआ था। क्योंकि, तब समृद्ध शिया शासकों, जिनके पूर्वज ईरान(Iran)(मुख्य रूप से शिया देश) से आए थे, ने इसे प्रोत्साहन प्रदान किया। इस प्रकार, हमारे शहर लखनऊ, हैदराबाद(जहां पुराने मानक और बैनर अभी भी अस्तित्व में हैं) तथा कुछ अन्य भारतीय और पाकिस्तानी शहरों में, होने वाले मर्सिया के प्रसिद्ध समारोह इस्लामी दुनिया के किसी भी अन्य हिस्से में अद्वितीय रहे हैं।
इमाम हुसैन की मृत्यु पर दुख व्यक्त करने वाली एक छोटी गीतात्मक कविता से, मुसद्दस रूप में, लिखी गई एक लंबी कथात्मक कविता में “रारगिया” का विकास उल्लेखनीय है। इसमें कर्बला युद्ध की पूरी कहानी, उससे जुड़ी घटनाएं, या उसका एक प्रसिद्ध प्रसंग शामिल है। तथा इसका बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है।
इस शैली का समर्थन तब मीर बाबर अली अनीस ने किया था। उर्दू के प्रसिद्ध मर्सिया लेखकों में, मीर बाबर अली अनीस, मिर्जा सलामत अली दबीर, अली हैदर तबताबाई, नज्म अफंदी, जोश मलीहाबादी और अन्य शामिल हैं।
मीर बाबर अली अनीस, ने सलाम, शोकगीत, नोहा और चौपाइयों की रचना की हैं। वैसे तो, शुरुआत में शोकगीतों की लंबाई 40–50 छंदों से अधिक नहीं थी, परंतु उन्होंने इसे 150–200 छंदों से भी अधिक लंबा कर दिया।अनीस ने अरबी, फ़ारसी, उर्दू, हिंदी और अवधी की शब्दावली को काफी हद तक समझा था। अतः भारतीय उपमहाद्वीप के उर्दू भाषियों के बीच, वह मुहर्रम का एक अनिवार्य तत्व बन गया है।
मीर अनीस की कुछ महत्वपूर्ण मर्सिया निम्नलिखित हैं –
१.दश्त-ए-विघा में नूर-ए-ख़ुदा का ज़ुहूर है
२.आज शब्बीर पे क्या आलम-ए-तन्हाई है
३.नमक-ए-ख़्वान-ए-तकल्लुम है फ़साहत मेरी
४.जब रन में सर-बुलंद अली का आलम हुआ
५.जब काटा कि मसाफ़त-ए-शब आफ़ताब ने
आइए, अब प्रत्यक्ष तौर पर मीर अनीस के दरबार को देखते हैं। नीचे प्रस्तुत किए गए, चित्र को देखकर, यह स्पष्ट है कि, मीर अनीस कैसरबाग में, सफेद बारादरी की तरह दिखने वाले एक स्थान पर मर्सिया पढ़ रहे हैं। सफेद बारादरी मूल रूप से क़सर-उल बुका या शोक घर था। यह चित्र नवाब वाजिद अली शाह के काल से है, जब सफेद बारादरी का निर्माण किया गया था।हालांकि, 1857-58 के बाद अंग्रेजों ने इस क्षेत्र को नष्ट कर दिया। इसमें चित्रित, एक और दिलचस्प तथ्य शोक मनाने वाले लोगों द्वारा पहने जाने वाले रंग हैं।
छन्नू लाल दिलगीर एक अन्य महत्त्वपूर्ण मर्सिया कवि थे। उनका जन्म नवाब असफ-उद-दौला के शासनकाल के दौरान हुआ था। मर्सिया पर ध्यान केंद्रित करने से पहले, वह तखल्लुस ‘तरब’ के साथ एक ग़ज़ल कवि थे। उन्होंने इस्लाम धर्म अपना लेने पर, अपना नाम बदलकर गुलाम हुसैन रख लिया। उनके कुछ सबसे लोकप्रिय मर्सिया को, ‘घबराये गी ज़ैनब, घबराये गी ज़ैनब’ कहा जाता है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/57nkxxfe
https://tinyurl.com/4rabjxwk
https://tinyurl.com/4mbtb6uj
https://tinyurl.com/3yftd5d3
https://tinyurl.com/4z68at2d
चित्र संदर्भ
1. मर्सिया पढ़ते हुए मीर अनीस को संदर्भित करता एक चित्रण (ranasafvi)
2. कर्बला की ऐतिहासिक लड़ाई को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
3. मीर अनीस की कविता को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. मर्सिया पढ़ते हुए मीर अनीस के चित्र विवरण को दर्शाता एक चित्रण (ranasafvi)
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