City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Total | ||
2911 | 225 | 3136 |
***Scroll down to the bottom of the page for above post viewership metric definitions
शतरंज के खेल को जीतना है तो, आपके लिए यह समझना जरूरी है कि, कौन सा मोहरा कौन सी चाल चलता है या जीतने के लिए इन मोहरों का आपस में तालमेल कैसे बिठाया जाए? साथ ही शतरंज का खेल जीतने के लिए आपको इसके सभी जरूरी नियमों को भी समझना होगा! संरचनात्मक भाषाविज्ञान (Structural Linguistics), भी भाषा के साथ शतरंज खेलने जैसा ही है। किसी भाषा के विभिन्न शब्द, शतरंज की बिसात पर मोहरों की तरह होते हैं। प्रत्येक शब्द की अपनी भूमिका होती है, और इन्हीं शब्दों के तालमेल से किसी भी वाक्य का एक सार्थक अर्थ निकलकर आता है।
संरचनात्मक भाषाविज्ञान, किसी भी भाषा का अध्ययन करने का एक ऐसा तरीका है, जिसके तहत भाषा प्रणाली के विभिन्न हिस्सों के बीच संबंधों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। संरचनात्मक भाषा विज्ञान का विकास, स्विस भाषाविद्, लाक्षणिक और दार्शनिक (Swiss Linguist) फर्डिनेंड डी सौसर (Ferdinand De Saussure) द्वारा, 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में किया गया था। सौसर ने तर्क दिया कि “भाषा केवल व्यक्तिगत अर्थ वाले शब्दों का संग्रह नहीं है, बल्कि परस्पर आपस में जुड़े संकेतों की एक प्रणाली है।” भाषा के किसी चिह्न का सही अर्थ उस भाषा प्रणाली में मौजूद अन्य चिह्नों के साथ उसके संबंध से निर्धारित होता है। अपने इस विचार की बदौलत सौसर को व्यापक रूप से 20वीं सदी के भाषाविज्ञान और सांकेतिकता के प्राथमिक संस्थापकों में से एक माना जाता है।
सौसर के काम ने भाषा विज्ञान, दर्शन, मनोविश्लेषण, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र सहित मानव विज्ञान की एक विस्तृत श्रृंखला को प्रभावित किया है। सौसर का जन्म 1857 में जिनेवा में हेनरी लुईस फ्रैडरिक डी सौसर (Henri Louis Frédéric De Saussure), नामक एक खनिज विज्ञानी, कीट विज्ञानी और वर्गीकरण विज्ञानी के घर में हुआ था। उन्होंने कम उम्र से ही अपनी बौद्धिक प्रतिभा दिखानी शुरू कर दी थी। जिनेवा विश्वविद्यालय में लैटिन, प्राचीन ग्रीक और संस्कृत का अध्ययन करने के बाद, उन्होंने 1876 में जर्मनी के लीपज़िग विश्वविद्यालय (University Of Leipzig) से स्नातक की पढ़ाई की।
21 साल की उम्र में, सौसर ने इंडो-यूरोपीय भाषाओं में आदिम स्वर प्रणाली पर एक पुस्तक भी प्रकाशित की। सौसर ने भाषाविज्ञान में कई अन्य महत्वपूर्ण अवधारणाओं (जैसे संकेत (Sign), संकेतक (Signifier) और संकेतित (Signified) को भी पेश किया। यहां पर संकेतक से तात्पर्य, संकेत के भौतिक रूप से है, जैसे कि प्रयोग में आया हुआ है कोई शब्द या इशारा, और संकेतित, वह अवधारणा है, जिसे संकेत संदर्भित करता है । सौसर के विचारों का 20वीं सदी में भाषाविज्ञान के विकास पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनके काम का आज भी व्यापक रूप से अध्ययन, और बहस होती है।
सौसर के भाषा सिद्धांत के अनुसार, “किसी शब्द का अर्थ उसके अंतर्निहित गुणों से निर्धारित नहीं होता है, बल्कि शब्दों की प्रणाली में अन्य शब्दों के साथ उसके संबंध से निर्धारित होता है।” दूसरे शब्दों में, किसी शब्द का अर्थ भाषा के अन्य शब्दों से उसके अंतर से परिभाषित होता है। उदाहरण के लिए, "कुत्ता" शब्द का अपने आप में कोई अर्थ नहीं है, बल्कि यह अंग्रेजी भाषा के अन्य शब्दों, जैसे "बिल्ली", "घोड़ा" और "पेड़" से भिन्न है, और इन सभी जीव जंतुओं को संदर्भित करने वाले शब्दों या संकेतों के समूह का हिस्सा है।
विश्व स्तर पर सबसे अधिक उद्धृत भाषाविदों में से एक होने के बावजूद, सौसर ने अपने जीवनकाल में बहुत कम लेख प्रकाशित किये। उन्होंने ग्यारह वर्षों तक इकोले प्रैटिक डेस हाउट्स एट्यूड्स (École Pratique Des Hautes Etudes) में पढ़ाया और उन्हें नाइट (Knight) ऑफ द लीजन ऑफ ऑनर (Chevalier De La Légion D'honneur (Knight Of The Legion Of Honour) की उपाधी प्राप्त हुई। 1892 में, वह जिनेवा में प्रोफेसर का पद लेने के लिए स्विट्जरलैंड लौट आये। उन्होंने अपने शेष जीवन में जिनेवा विश्वविद्यालय में संस्कृत और इंडो-यूरोपीय भाषा पर कई व्याख्यान दिए।
सौसर को संरचनात्मक भाषाविज्ञान का जनक माना जाता है। वह अपने जीवन में लंबे समय तक संस्कृत सहित कुछ इंडो-यूरोपीय भाषाओं के प्रोफेसर भी रहे थे। हालांकि सौसर के सामान्य भाषाविज्ञान पाठ्यक्रम का प्रकाशित संस्करण उनके द्वारा नहीं लिखा गया था, इसलिए हमें संस्कृत और इंडो-यूरोपीय भाषाविज्ञान पर उनके प्रकाशित कार्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। विद्वान मानते हैं कि सौसर , भारतीय भाषाविद् पाणिनि से बहुत अधिक प्रभावित थे, जिन्हें विश्व का पहला व्याकरण कर्ता माना जाता है।
संस्कृत के साथ सौसर के अस्पष्ट संबंध के बावजूद, वह यह नहीं मानते थे कि “सभी शब्दों का कुछ मौलिक अर्थ होता है।” लेकिन हाल के वर्षों में, भारतीय विद्वानों ने बताया है कि सौसर ने संस्कृत भाषाविज्ञान के कुछ मूलभूत पहलुओं की गलत व्याख्या की है, जिसके कारण संरचनात्मक भाषाविज्ञान के पश्चिमी सिद्धांत में कुछ खामियाँ हो सकती हैं। सौसर, संस्कृत व्याकरण को सही तरीके से समझ भी नहीं पाए थे, और यह दावा कर दिया कि वैदिक काल में संस्कृत में संबंध कारक निरपेक्ष का उपयोग नहीं किया गया था। हालांकि उनका यह कथन पूरी तरह से गलत है, क्योंकि संबंध कारक निरपेक्ष का उपयोग भारत के कई वैदिक ग्रंथों में किया गया है। लेकिन इस एक गलती ने भाषा विज्ञान में समस्याएँ पैदा कर दी हैं, और इस विचार को जन्म दिया है कि धार्मिक ग्रंथों को रूपक कथाओं तक सीमित किया जा सकता है। हमें इसमें सुधार करने की आवश्यकता है क्योंकि यह भारतीय वैदिक ग्रंथों की गरिमा को प्रभावित कर सकता है!
संदर्भ
https://tinyurl.com/5d2vddc9
https://tinyurl.com/4kctd9ez
https://tinyurl.com/4s5eds72
https://tinyurl.com/bdd3v39z
चित्र संदर्भ
1. संस्कृत व्याकरण जनक पाणिनि और पश्चिमी संरचनात्मक भाषाविज्ञान के जनक,सौसर को संदर्भित करता एक चित्रण (PICRYL, wikimedia)
2. एसीसी. डी सॉसर के भाषण सर्किट को दर्शाता एक चित्रण (Openclipart)
3. संकेत=संकेतक/संकेतित लेखन को दर्शाता एक चित्रण (prarang)
4. पाणिनि के व्याकरण ग्रंथ की 17वीं शताब्दी की बर्च छाल पांडुलिपि को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. स्व-निर्मित कॉर्पस में चार वाक्य संरचनाओं के प्रतिशत को दर्शाता एक चित्रण (researchgate)
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.