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अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक व वित्तीय, ‘ब्रेटन वुड्स प्रणाली’ में भारत की क्या थी भूमिका?

लखनऊ

 26-09-2023 09:45 AM
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक

अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान (International Financial Institution (IFI) एक ऐसा वित्तीय संस्थान है, जिसे एक से अधिक देशों द्वारा स्थापित किया जाताहै। और इसलिए यह संस्थान अंतरराष्ट्रीय कानून के अधीन होता है। आम तौर पर, इनके सदस्य देश या राष्ट्रीय सरकारें होती हैं, हालांकि, कुछ अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थान तथा संगठन भी कभी-कभी इनके शेयरधारक होते हैं। कुछ सबसे प्रमुख अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के कई देश इनकेसदस्य होते हैं, हालांकि, कुछ द्विपक्षीय– दो देशों द्वारा निर्मित- वित्तीय संस्थान भी विश्व में मौजूद हैं।
वर्तमान में, सबसे प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, यूरोप (Europe) के पुनर्निर्माण में सहायता करने और वैश्विक वित्तीय प्रणाली के प्रबंधन में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हेतुकी गई थी। इनमें ‘विश्व बैंक’ (World Bank), ‘अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष’ (International Monetary Fund (IMF) एवं ‘अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम’ (International Finance Corporation (IFC) शामिल हैं। जबकि, दुनिया में आज सबसे बड़ा वित्तीय संस्थान ‘यूरोपीय निवेश बैंक’ (European Investment Bank (EIB) है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, पिछले स्वर्ण मानकों एवं महामंदी के अनुभव से सबक लेते हुए, विश्व के महत्वपूर्ण 44 देशों ने एक नई अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली स्थापित करने के लिए एक नई अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली का निर्माण किया, जिसे ‘ब्रेटन वुड्स प्रणाली’ (Bretton Woods system) के रूप में जाना जाता है। जुलाई 1944 में ब्रेटन वुड्स (Bretton Woods), न्यू हैम्पशायर (New Hampshire) में ‘संयुक्त राष्ट्र मौद्रिक और वित्तीय सम्मेलन’ आयोजित किया गया। यह उन देशों के लिए एक अभूतपूर्व सहयोगात्मक प्रयास था, जो तब एक दशक से भी अधिक समय से अपनी अर्थव्यवस्थाओं में दिक्कतों का सामना कर रहे थे । उन्होंने तब एक ऐसी प्रणाली बनाने के बारे में विचार किया, जो न केवल पिछली अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक प्रणालियों की कठोरता से दूर हो, बल्कि उन प्रणालियों पर उन देशों के बीच सहयोग की कमी को भी दूर करने वाली हो। प्रथम विश्व युद्ध के बाद प्रतिनिधिक स्वर्ण मानक(Gold standards) को त्याग दिया गया। युद्ध के दौरान, कई सरकारों ने प्रतिबंधात्मक व्यापार नीतियों (restrictive trade policies)का उपयोग करने और अवमूल्यन(devaluation) करने की कोशिश की जिससे महामंदी हुई।"ब्रेटन वुड्स के सदस्योंने अतः एक अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली की कल्पना की, जो विनिमय दर की स्थिरता सुनिश्चित करेगी, प्रतिस्पर्धी अवमूल्यन को रोकेगी तथा आर्थिक विकास को बढ़ावा देगी। हालांकि, सभी देश एक नई प्रणाली के लक्ष्यों पर सहमत थे, लेकिन उन्हें लागू करने की सभी देशों की योजनाएं अलग-अलग थीं। सम्मेलन से दो साल पहले ही इसकी तैयारी शुरू हो गई थी। तब वित्तीय विशेषज्ञों ने एक आम दृष्टिकोण पर पहुंचने हेतु, कई बैठकें आयोजित की थी। ब्रेटन वुड्स के 730 प्रतिनिधियों ने अंततः दो नए संस्थान स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की। विनिमय दरों की निगरानी करने एवं देशों को आरक्षित मुद्राएं उधार देने हेतु ‘अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष’ तथा पुनर्निर्माण और विकास के लिए ‘अंतर्राष्ट्रीय बैंक’, जिसे अब ‘विश्व बैंक समूह’ के रूप में जाना जाता है,को स्थापित करने की योजना बनाई गई। ‘अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष’ दिसंबर 1945 में औपचारिक रूप से अस्तित्व में आया, जब इसके पहले उनतीस सदस्य देशों ने इसके समझौते के लेखों पर हस्ताक्षर किए थे। और फिर, 1958 में, ब्रेटन वुड्स प्रणाली पूरी तरह से कार्यात्मक हो गई, जब विभिन्न मुद्राएं अन्य देशों की मुद्राओं में परिवर्तनीय हो गईं। इस प्रणाली में, एक अन्य मुद्दा हमारे देश भारत की भूमिका का है। ब्रेटन वुड्स प्रणाली के एक-तरफा हस्तांतरण पूरी तरह से वित्तीय लेनदेन होते थे। यह भारत और चीन (China) तथा यूनान (Greece) जैसे अन्य देशों के लिए एक बड़ी समस्या थी। क्योंकि, तब हमें एवं इन देशों को प्रवासियों से पर्याप्त मात्रा में प्रेषण– एकतरफ़ा हस्तांतरण प्राप्त होता था। उनकी परिवर्तनशीलता पर प्रतिबंध, का मतलब यह था कि, वे तब अपना पैसा घर वापस नहीं भेज सकते थे। हमारे देश भारत तथा चीन ने ऐसे हस्तांतरणों को ‘चालू खाता लेनदेन’ के रूप में वर्गीकृत करने के प्रयास का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया, ताकि उन हस्तांतरणों की परिवर्तनशीलता को संरक्षित किया जा सके। इस प्रकार भुगतान संतुलन बहीखाता की मौजूदा परंपरा में, एकतरफा हस्तांतरण को चालू खाता लेनदेन के रूप में मानने की प्रथा अस्तित्व में आई। भारत ने इस नेतृत्व के लिए, पांच सदस्यों का एक प्रतिनिधि मंडल ब्रेटन वुड्स भेजा। इसमें दो अंग्रेज (English Citizens) एवं तीन भारतीय शामिल थे। इसका नेतृत्व भारत के तत्कालीन वित्त मंत्री, सर जेरेमी रेजमैन (Sir Jeremy Raisman) और तत्कालीन भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर सर चिंतामन द्वारकानाथ देशमुख ने किया था। इनके अलावा भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार, सर थियोडोर ग्रेगरी(Sir Theodore Gregory) तथा दो गैर-आधिकारिक प्रतिनिधि - सर शनमुखम चेट्टी (Sir Shanmukham Chetty), और ए. डी. श्रॉफ (A.D. Shroff) इसके अन्य सदस्य थे। उनकी सहायता के लिए रिजर्व बैंक के तत्कालीन अनुसंधान निदेशक बी.के. मदन तथा लंदन (London) में भारतीय व्यापार आयुक्त सर डेविड मीक (Sir David Meek) भी मौजूद थे।
फिलीपीन राष्ट्रमंडल (Philippine Commonwealth) के अलावा, भारत इस सम्मेलन में प्रतिनिधित्व करने वाला एकमात्र उपनिवेश था और अपनी सक्रिय भागीदारी के लिए विख्यात था। यहां हम आपको बता दें कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक (World Bank) के बीच मुख्य अंतर, उनके संबंधित उद्देश्यों और कार्यों का है। मुद्रा कोष विश्व की मौद्रिक प्रणाली की स्थिरता की देखरेख करता है, जबकि विश्व बैंक का लक्ष्य मध्यम आय एवं निम्न आय वाले देशों को सहायता प्रदान करके गरीबी को कम करना है। ये दोनों संगठन जैसे कि हमनें देखा है, 1945 में ब्रेटन वुड्स समझौते के हिस्से के रूप में स्थापित किए गए थे।

संदर्भ
https://tinyurl.com/mtsczvjk
https://tinyurl.com/u4s4atfe
https://tinyurl.com/36y9rdxv
https://tinyurl.com/pkmavy2z

चित्र संदर्भ
1. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक क्रिस्टालिना जॉर्जीवा को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. गीता गोपीनाथ एक भारतीय-अमेरिकी अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने 21 जनवरी 2022 से अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के पहले उप प्रबंध निदेशक के रूप में कार्य किया है। को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के लोगो को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. विश्व बैंक समूह’ को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. विश्व बैंक के प्रबंध निदेशक और मुख्य परिचालन अधिकारी, श्री मुल्यानी इंद्रावती को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)



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