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गुजरात के भावनगर जिले में ‘वल्लभीपुर’ (Vallabhipur) (वर्तमान में ‘वाला’ (Vala) नामक एक छोटा सा किंतु ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण शहर स्थित है। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में यह क्षेत्र भारत के एक विशाल साम्राज्य ‘मैत्रक’ (Maitraka) की राजधानी हुआ करता था। इस साम्राज्य ने 475 ईसवी से 776 ईसवी तक गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र पर शासन किया था। मैत्रक राजवंश के पांचवें राजा धारापति को छोड़कर, सभी राजा “शैव धर्म” का पालन करते थे। हालांकि, इस साम्राज्य के पूर्वजों के बारे में कोई भी स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि इसके शासक संभवतः चंद्रवंशी क्षत्रिय रहे होंगे।
गुप्त काल के बाद भारत विभिन्न छोटे और मध्यम राज्यों में विभाजित हो गया था । 7वीं शताब्दी के आरंभ में गुप्त साम्राज्य के पतन और हर्ष साम्राज्य के उदय के बीच, उत्तर भारत में चार प्रमुख साम्राज्य हुआ करते थे:
मगध में गुप्त साम्राज्य
कन्नौज में मौखरीस (Maukharis ) साम्राज्य
थानेश्वर में पुष्यभूति साम्राज्य
वल्लभी (सौराष्ट्र) में मैत्रक साम्राज्य
ये सभी चार साम्राज्य, गुप्तों के प्राचीन गौरव को हासिल करने के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे। इस आपसी प्रतिस्पर्धा में मैत्रक साम्राज्य ने सबसे लंबे समय तक (8वीं शताब्दी के मध्य तक) शासन किया। मैत्रक साम्राज्य की स्थापना गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद सेनापति ‘भटारक’ (Bhaṭārka) द्वारा की गई थी। भटारक, गुप्त साम्राज्य के दौरान सौराष्ट्र के सैन्य राज्यपाल हुआ करते थे। मैत्रक राजवंश की राजधानी होने के अलावा ‘वल्लभी’ व्यापार और वाणिज्य के केंद्र के साथ-साथ शिक्षा और सांस्कृतिक विरासत के केंद्र के रूप में भी विकसित हुई।
वल्लभी या वल्लभीपुर को आधुनिक समय में वाला (Vala) के नाम से भी जाना जाता है। यह गुजरात के सौराष्ट्र प्रायद्वीप में स्थित एक प्राचीन ऐतिहासिक शहर है। मैत्रकों ने अपने साम्राज्य में वल्लभी विश्वविद्यालय की स्थापना भी की, जिसकी तुलना नालंदा विश्वविद्यालय से की जाती थी। सातवीं शताब्दी के मध्य में गुणमति और स्थिरमति को वल्लभी के दो प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान माना जाता है।
वल्लभी का रोमांचक ऐतिहासिक सफर हड़प्पा काल से ही शुरू हो गया था। लगभग 322
ईसा पूर्व से 185 ईसा पूर्व के बीच यह क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का भी हिस्सा रहा। इसके बाद दूसरी शताब्दी के अंत से लेकर तीसरी शताब्दी की शुरुआत, अर्थात लगभग 319 ईसवी से 467 ईसवी तक, इस क्षेत्र में गुप्त साम्राज्य ने शासन किया। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद यहां पर मैत्रक राजवंश ने शासन किया।
इस राजवंश के पहले दो मैत्रक शासक, ‘भटारक’ और ‘धरसेन प्रथम’ थे। हालांकि इन दोनों ने ही स्वयं के लिए, केवल ‘सेनापति’ की उपाधि का प्रयोग किया था। इनके बाद आए तीसरे शासक द्रोणसिंह (499 - ईसवी से 519 ईसवी), धरसेन के छोटे भाई थे। द्रोणसिंह को गुप्त शासक ‘बुधगुप्त’ द्वारा महाराज के पद पर बैठाया गया था। इसका अर्थ यह था कि द्रोण सिंह इस क्षेत्र के स्वतंत्र शासक न होकर गुप्त शासक बुधगुप्त के अधीनस्थ थे। इसके बाद मैत्रक वंश के चौथे शासक के रूप में ‘ध्रुवसेन प्रथम’ आए। अपने भाइयों का अनुसरण करते हुए ध्रुव सेन प्रथम भी गुप्त शासकों के अधीन ही काम करते थे।
ध्रुव सेन प्रथम के बाद पांचवें स्थान पर मैत्रक वंश के शासक बने ‘धरपट्ट’ एकमात्र ऐसे शासक थे, जिन्हें सूर्य का उपासक माना जाता है। धरपट्टके बाद सिंहासन पर काबिज हुए राजा ‘गुहासेन’ ने अपने पूर्ववर्तियों की तरह अपने नाम के साथ, ‘परमभटारक पदानुध्याता’ शब्द का प्रयोग बंद कर दिया, जो गुप्त अधिपतियों के प्रति निष्ठा समाप्ति को दर्शाता है और ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की ।
राजा गुहासेन के बाद उनके ही पुत्र ‘धरसेन द्वितीय’ उत्तराधिकारी बने, जिन्होंने अपने लिए ‘सामंत’ और बाद में ‘महाराजा’ और फिर से ‘महासामंत’ की उपाधि का प्रयोग किया। इसके बाद धरसेना द्वितीय के पुत्र और साम्राज्य के अगले शासक बने शिलादित्य प्रथम, जिसे धर्मादित्य, ‘धर्म का सूर्य’ के नाम से भी जाना जाता है, ने 590 ईसवी – 615 ईसवी तक शासन किया। शिलादित्य प्रथम के बाद उनके उत्तराधिकारी, उनके छोटे भाई खड़ग्रह प्रथम बने। खड़ग्रह प्रथम के बाद अगले शासक, धरसेन तृतीय और फिर ध्रुवसेन द्वितीय बालादित्य शासक हुए ।ध्रुवसेन द्वितीय बालादित्य का वर्णन, ह्वेन त्सांग (Hiuen Tsang) ने भी अपने यात्रा वृतांत में किया है। ह्वेन त्सांग ने उन्हें ‘महान प्रशासनिक क्षमता और दुर्लभ दया तथा करुणा के सम्राट’ की संज्ञा दी है। इस तरह यह वंशावली चलती रही।
चलिए मैत्रक वंश शासकों की सूची पर संक्षेप में एक नजर डालते हैं:
भटारक सेन (Bhaṭārka Sen (470- 492 ईसवी)
धरसेन I (Dharasena(493- 499 ईसवी)
द्रोणसिंह (Drona Singh (500- 520 ईसवी)
ध्रुव सेन प्रथम (Dhruva Sen (520-550 ईसवी)
धरपट्ट (Dharapaṭṭa (550- 556 ईसवी)
गुहासेन (Guhasena ( 556- 570 ईसवी)
धरसेन द्वितीय (Dharasena II ( 570-595 ईसवी)
शिलादित्य प्रथम (Śīlāditya I ( 595- 615 ईसवी)
खड़ग्रह सेन प्रथम (Kharagraha I ( 615- 626 ईसवी)
धरसेन तृतीय (Dharasena III (626- 640 ईसवी)
ध्रुवसेन द्वितीय (Dhruvasena II ( 640- 644 ईसवी)
चक्रवर्ती राजा धरसेन चतुर्थ (Chakravarti king Dharasena IV (644- 651 ईसवी)
ध्रुवसेन तृतीय (Dhruvasena III (650- 654-655 ईसवी)
खरग्रह सेन द्वितीय (Kharagraha II (655- 658 ईसवी)
शिलादित्य द्वितीय (Śīlāditya II (658- 685 ईसवी)
शिलादित्य तृतीय (Śīlāditya III (690- 710 ईसवी)
शिलादित्य चतुर्थ (Śīlāditya IV (710- 740 ईसवी)
शिलादित्य पंचम (Śīlāditya V (740- 762 ईसवी)
शिलादित्य VI ध्रुभट (Śīlāditya VI Dhrubhaṭa (762- 776 ईसवी)
ऐसा माना जाता है कि समुद्र से अरबों द्वारा बार-बार आक्रमण किये जाने के कारण, यह साम्राज्य अत्यंत कमज़ोर पड़ गया था, और 783 ईसवी तक पूरा मैत्रक राजवंश ही समाप्त हो गया। इस राजवंश के अंतिम ज्ञात शासक शिलादित्य VI माने जाते हैं। वल्लभी के पतन के कारणों को ताजिका (अरब) आक्रमणों से जोड़ने वाले पौराणिक वृत्तांतों के अलावा, किसी भी ऐतिहासिक स्रोत में इस राजवंश की समाप्ति के मूल कारणों का उल्लेख नहीं मिलता है। महाराज शिलादित्य, मैत्रक वंश के सबसे प्रतापी व पराक्रमी शासक माने जाते हैं। शिलादित्य ने ही इस राज्य का गुजरात से लेकर दक्षिण तक विस्तार किया। माना जाता है कि सौराष्ट्र के क्षेत्र में कुल उन्नीस वल्लभी शासकों ने शासन किया था, हालांकि अभी तक केवल भटारक सेन (470-492 ईसवी) के शासनकाल में प्रचलित सिक्के ही मिले हैं। मैत्रक साम्राज्य के सिक्के चांदी, मूल चांदी, पोटिन और तांबे की धातुओं से बनाए गए थे। मैत्रकों ने अपने पूर्ववर्तियों (गुप्त और पश्चिमी क्षत्रप) द्वारा स्थापित सिक्कों की निर्माण शैली को जारी रखा। आज भी वल्लभी और अन्य जगहों पर बड़ी संख्या में तांबे और चांदी के सिक्के पाए जाते हैं। ये सिक्के मुख्यतः दो रूपों में पाए जाते हैं जिनमें से पहले तैयार किए सिक्के 6" व्यास और 29 अनाज के दानों के वजन के थे । वे शायद पश्चिमी क्षत्रप सिक्कों के बाद तैयार किए गए पहले के सिक्के थे। बाद के सिक्के, आकार और लिपियों के आधार पर गुप्त सिक्कों के ही समान दिखाई देते हैं। हालांकि गुप्त सिक्कों की तरह, वे शुद्ध चांदी से नहीं बने थे, बल्कि इनमे चांदी की परत चढ़ाई गई थी।
इन सिक्कों के अग्र भाग पर दाहिनी ओर मुख किए हुए शासक की प्रतिमा को दर्शाया गया है, जबकि सिक्के के पृष्ठ भाग पर त्रिशूल प्रदर्शित है, जिसके चारों ओर ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है। यह त्रिशूल विभिन्न रूपों में देखा जाता है। हालांकि, ब्राह्मी किंवदंती लगभग सभी सिक्कों पर समान होती है। जिसमें लिखा है ‘राजनो महाक्षत्रप परम आदित्य भक्त महासामंत श्री सर्व भट्टारकसा'।
संदर्भ
https://tinyurl.com/35t92cey
https://tinyurl.com/2ju5fefy
https://tinyurl.com/y4awd587
https://tinyurl.com/4yh5hsc3
चित्र संदर्भ
1. ‘मैत्रक’ साम्राज्य के सिक्कों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. गोपराज के एरण स्तंभ शिलालेख को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. मैत्रक राजा शिलादित्य प्रथम के ताम्रपत्र चार्टर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. मैत्रकों के शासनकाल में निर्मित जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. वल्लभी (सौराष्ट्र) के सिक्कोकों दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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