लखनऊ में चिकनकारी के अलावा कामदानी इस प्रकार की कढ़ाई भी की जाती है। यह चिकनकारी की तरह ही होती है लेकिन इसमें सोने और चाँदी के धागे इस्तेमाल किये जाते हैं। पहले तो असली सोने-चाँदी के धागों का इस्तेमाल किया जाता था मगर आज कल इस रंग के कृत्रिम धागे इस्तेमाल किये जाते हैं। यह कढ़ाई ख़ास कर शाही लोगों के लिए की जाती थी। फूल और पत्तों के प्रतिमा आकर रेशम और मलमल के कपड़ों पर उतारा जाता था। आज विविध प्रकार के कपड़ों पर ये काम किया जाता है। कारिगर इस कढ़ाई के लिए चपटे धागे जिसे दिवाली कहते हैं इस्तेमाल करते हैं। चिकनकारी की तरह कामदानी भी हाथसे की जाती है और उसके लिए ढांचे की जरुरत नहीं होती। इस कढ़ाई की कीमत धागे की क़ीमत, कपड़े की क़ीमत तथा उसपर किये काम के हिसाब से तय की जाती है। पहले के जमाने में इस काम के लिए तोले के हिसाब से सोने अथवा चाँदी के धागे बेचे जाते थे तथा उनकी परख करने के लिए एक-आध धागा जलाकर देखा जाता था की अगर वह असल है तो पिघल जायेगा और अगर नहीं तो उसकी राख हो जाएगी। कामदानी हलकी कढ़ाई को कहा जाता है और इसका बिलकुल विरोधी होता है ज़रदोज़ी का काम जो ज्यादा भरा हुआ होता है तथा जो काम ढांचे पर किया जाता है उसे कारचोबी कहते हैं। आज लखनऊ में कामदानी का काम बहुत कम किया जाता है, जो कारिगर हैं वे उम्र में बुजुर्ग हैं। कामदानी के लिए बाहरी देश से बहुत मांग है। इस काम को अगर सरकार तथा गैर-सरकारी संस्थाओं की तरफ से बढ़ावा मिले तो एक अच्छा और बेहद फायदेमंद लघुउद्योग शुरू हो सकता है जिससे लोगों को काम भी मिलेगा और निर्यात भी कर सकते हैं। फैशन जगत में इस कारीगरी को ऐसी कारीगरी की बहुत मांग है। प्रस्तुत चित्र इस कढ़ाई काम का एक नमूना है। 1. इंडियन आर्ट एट दिल्ली 1903: बीइंग द ऑफीशियल कैटेलॉग ऑफ़ द दिल्ली एग्जीबिशन 1902-1903-सर जॉर्ज वाट https://goo.gl/1ZcMPu 2. जेवेल्लेड टेक्सटाइल्स: गोल्ड एंड सिल्वर एम्बेल्लिशड क्लॉथ ऑफ़ इंडिया- वंदना भंडारी https://goo.gl/YcBXCZ 3. ट्रेडिशनल इंडस्ट्री इन द कोलोनियल इंडिया- तीर्थंकर रॉय https://goo.gl/oGLoEn 4. उत्तर प्रदेश डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर वॉल्यूम XXXVII 1959
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