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हमारे लखनऊ शहर में “कुश्ती” का एक प्राचीन और समृद्ध इतिहास रहा है। प्राचीन काल से ही यहाँ के पहलवानों को कुश्ती के मैदानों यानी "अखाड़ों" में कुश्ती की तकनीकों और बारीकियों को सिखाया जा रहा है। आज भी कुश्ती में यह रुचि बरकरार है, और हमारे लखनऊ के कई पहलवान कुश्ती चैंपियनशिप (Wrestling Championship) में भारत का प्रतिनिधित्व भी करते हैं।
भारत में 1700 ईसा पूर्व से ही, मार्शल आर्ट ”Martial Arts” (मार्शल आर्ट या युद्ध कलाएं, विधिबद्ध अभ्यास की प्रणाली और बचाव के लिए प्रशिक्षण की परंपराएं हैं।) का अभ्यास किया जाता रहा है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में खाली हाथ लड़ाई और हथियार प्रशिक्षण, दोनों का ही विस्तृत्त उल्लेख मिलता है। हिंदू और बौद्ध देवता भी युद्ध कलाओं से जुड़े हुए माने जाते हैं, और उसी प्रकार चित्रित भी किये जाते हैं ।
“कुश्ती”, पहली भारतीय मार्शल आर्ट थी, जिसे व्यवस्थित ढंग से संगठित किया गया था, वहीं इसकी औपचारिक प्रशिक्षण पद्धतियाँ हजारों साल पुरानी मानी जाती हैं। समय के साथ, विभिन्न भारतीय युद्ध कला परंपराओं का आपस में विलय हो गया, जिसके तहत योग, आयुर्वेदिक चिकित्सा और पारंपरिक भारतीय नृत्य के तत्वों को भी मार्शल आर्ट में शामिल किया गया।
चौथी शताब्दी तक, मार्शल आर्ट की समझ और प्रशिक्षण का काफी विकास हो चुका था, और तब तक मानव शरीर में 107 महत्वपूर्ण बिंदुओं की पहचान कर ली गई थी, जिनमें से 64 की घातक क्षमताओं की पहचान कर ली गई थी ।
इसके इलावा, आज की ज्ञात कई प्रमुख मार्शल आर्ट शैलियों ने 10वीं शताब्दी तक, आकार लेना शुरू कर दिया था। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन के दौरान, मार्शल आर्ट पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। हालाँकि मार्शल रेस या कुछ ऐसे समुदायों को छूट दी गई थी, जो ब्रिटिश साम्राज्य में गार्ड (Guard) और सैनिकों के रूप में कार्य करते थे। हालाँकि, ब्रिटिश शासन समाप्त होने के बाद, पारंपरिक भारतीय समाज की मार्शल आर्ट में रुचि फिर से बढ़ गई।
आज, भारतीय मार्शल आर्ट की कई प्रमुख शैलियाँ प्रचलित हैं, जिनमें गतका, कलारीपयट्टू बबुआन कुश्ती, मर्दानी खेल, पहलवानी, सिलंबम, थांग ता, और मल्ल-युद्ध आदि शामिल हैं।
इन सभी में सबसे लोकप्रिय युद्ध कलाओं में से एक माना जाने वाला, “मल्ल-युद्ध”, युद्ध-कुश्ती का ही एक प्राचीन रूप माना जाता है, जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई थी। इसका दक्षिण पूर्व एशिया में पाई जाने वाली कुश्ती शैलियों से भी गहरा संबंध रहा है। मल्ल-युद्ध में विभिन्न युद्ध तकनीकें प्रयोग में ली जाती हैं, जिनमें कुश्ती, जोड़ तोड़ना, मुक्का मारना, गला घोंटना और दबाव बिंदुओं पर प्रहार करना आदि शामिल है।
मल्ल-युद्ध में चार श्रेणियां होती हैं, जिनमें से प्रत्येक का नाम हिंदू देवताओं और पौराणिक सेनानियों के नाम पर रखा गया है।
१. हनुमंती: यह शैली तकनीकी श्रेष्ठता पर ध्यान केंद्रित करती है।
२. जांबुवंती: जाम्बुवंती पकड़ पर ध्यान केंद्रित करती है।
३. जरासंधी: जरासंधी का लक्ष्य अंगों और जोड़ों को तोड़ना होता है।
४. भीमसेनी: भीमसेनी सरासर ताकत पर जोर देती है।
"मल्लयुद्ध" शब्द का संस्कृत में अर्थ "कुश्ती युद्ध" होता है और इसका सबसे पहला उल्लेख रामायण और महाभारत महाकाव्यों में मिलता है। यह भारतीय समाज में मनोरंजन और प्रतियोगिता का एक लोकप्रिय रूप हुआ करता था, जिसमें राजा भी भाग लेते थे और पहलवान भी इसका बहुत सम्मान करते थे।
समय के साथ, मल्ल-युद्ध दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में फैल गया और वहां भी लोकप्रिय हो गया। हालांकि, मध्यकाल के दौरान फारसी कुश्ती के प्रभाव के उदय के साथ ही, उत्तर भारत में पारंपरिक भारतीय कुश्ती का पतन शुरू हो गया। यह प्राचीन भारतीय परंपरा आज, उत्तरी राज्यों में लगभग विलुप्त हो चुकी है, लेकिन इसकी कुछ परंपराएँ आधुनिक कुश्ती (भारतीय कुश्ती) में भी जारी हैं। दक्षिण भारत में, मल्ल-युद्ध अभी भी एक औपचारिक परंपरा के रूप में संरक्षित है और कुछ क्षेत्रों में इसे देखा भी जा सकता है।
हमारे शहर लखनऊ में भी कुश्ती के प्रति यह रूचि अभी भी बरकरार है। लखनऊ में कुश्ती का एक लम्बा और गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। कुश्ती के पारंपरिक स्कूल जिन्हें "अखाड़ा" कहा जाता है, मुगलों के समय से ही कुश्ती की तकनीक सिखाते रहे हैं। आज भी कुश्ती में यह रुचि बरकरार है और लखनऊ के कई पहलवान राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं।
सरोजिनी नगर में भारतीय खेल प्राधिकरण द्वारा नियमित रूप से पहलवानों के लिए प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया जाता है। ये शिविर महिलाओं सहित पुरुष पहलवानों को फ्रीस्टाइल और ग्रेको-रोमन (Freestyle And Greco-Roman) दोनों शैलियों में प्रतियोगिताओं के लिए तैयार करने में मदद करते हैं।
स्थानीय स्तर पर भी शहर में कई कुश्ती प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं, जिन्हें "दंगल" कहा जाता है। पारंपरिक कुश्ती में प्रशिक्षित स्थानीय पहलवान प्रतिस्पर्धा करते हैं और अपनी अनूठी शैली का प्रदर्शन करते हैं। क्रिसमस (Christmas) के दौरान आरडीएसओ स्टेडियम (RDSO Stadium) में प्रतिवर्ष एक विशेष कुश्ती चैंपियनशिप (Wrestling Championship), आयोजित होती है जो सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देती है।
गणेश गंज में गिरधारी पहलवान अखाड़ा लखनऊ के प्रमुख अखाड़ों में से एक माना जाता है। यहां, 10 साल तक के बालक पारंपरिक भारतीय कुश्ती सीखने के लिए आते हैं। इनमें से कई लड़के अखाड़े में ही बड़े होते हैं, कुश्ती को अपनी जीवन शैली बनाते हैं और अंततः राष्ट्रीय टीम के लिए चुने जाते हैं।
एक पहलवान की दिनचर्या बेहद अनुशासित होती है। वे सूर्योदय से पहले उठते हैं, सहनशक्ति बनाने के लिए दौड़ते हैं, स्नान कर, प्रार्थना करते हैं, लंगोट पहन अखाड़े में प्रवेश करने से पहले अपने शरीर पर तेल लगाते हैं। प्रशिक्षण के बाद नहाने और आराम करने से पहले वे अपने शरीर पर मिट्टी मलकर खुद को तरोताजा करते हैं। पहलवानों के आहार में दूध, बादाम, घी, अंडे और चपाती जैसे खाद्य शामिल होते हैं और अनुशासन के लिए शराब और नशीली दवाओं से दूर रहते हैं। तो लखनऊ वासियों, यूं ही नहीं कोई भी पहलवान बन जाता है!
संदर्भ
https://tinyurl.com/bdz6ejm4
https://tinyurl.com/3w9cxkju
https://tinyurl.com/52jh7sta
https://tinyurl.com/2p9svb96
चित्र संदर्भ
1. अखाड़ें में नन्हे पहलवानों को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. जमालगढ़ी, गांधार गैलरी, भारतीय संग्रहालय में दूसरी शताब्दी ई.पू की कुश्ती के दृश्य को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. बैठक (स्क्वैट) करते एक भारतीय पहलवान को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
4. दो भारतीय पहलवानों के चित्र को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
5. ट्रेनिंग करते पहलवान को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
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