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अर्जुन, एकलव्य और कर्ण जैसे महान धनुर्धरों से देश का बच्चा-बच्चा परिचित है। यहां तक कि कई लोग यह भी जानते हैं कि, अर्जुन के धनुष का नाम "गाण्डीव" था। प्राचीन भारत में तीरंदाजी बहुत ही सम्मानजनक और अत्यंत पवित्र कला हुआ करती थी। सनातन धर्म में धनुर्विद्या के लिए धनुर्वेद नामक एक पूरा पाठ समर्पित है, जिसमें सैनिकों को युद्ध तकनीक और हथियार के बारे में सिखाया गया है। प्रसिद्ध महाकाव्य रामायण और महाभारत के उदाहरणों से हम यह समझ सकते हैं कि भारत के इतिहास में तीरंदाजी ने कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
मध्ययुगीन काल के दौरान भी युद्ध में तीरंदाजी की चमक फीकी नहीं पड़ी। इस दौरान भी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारियों ने युद्ध में रथों या घोड़ों पर सवार होकर शत्रु पर तीर बरसाए। भारतीय तीरंदाजी की तकनीक बेहद अनूठी मानी जाती थी। क्योंकि यहां यूरोपीय तीरंदाजों की तरह तीन अंगुलियों का उपयोग करने के बजाय, अपने अंगूठे का प्रयोग किया जाता था। अंगूठों की सुरक्षा के लिए योद्धा, किसी वस्त्र या धातु जैसी सामग्री से बने विशेष अंगूठे के छल्ले पहनते थे।
शाही परिवारों द्वारा स्टील और पीतल के धनुष उपयोग किए जाते थे, जिन्हें अक्सर सोने और चांदी से सजाया जाता था। भारत में आधुनिक तीरंदाजी की शुरुआत 1975 में हुई थी। 1973 में मेघालय और पश्चिम बंगाल के बांस के धनुष और तीरों का उपयोग करते हुए दिल्ली में ‘वरिष्ठ राष्ट्रीय तीरंदाजी प्रतियोगिता’ आयोजित की गई थी।
भारत ने दुनिया को कई होनहार तीरंदाज भी दिए हैं। उदाहरण के तौर पर ,लिंबा राम ने 1992 में विश्व रिकॉर्ड (World Record) कायम किया, और डोला बनर्जी ने 2007 में देश के लिए स्वर्ण पदक जीता। दीपिका कुमारी ने कई बार विश्व कप फाइनल (World Cup Final) के लिए क्वालीफाई (qualify) किया, और 2011 से 2015 के बीच चार रजत पदक भी जीते। इन सभी के अलावा कोमालिका बारी और रजत चौहान ने भी अंतरराष्ट्रीय तीरंदाजी प्रतियोगिताओं में उल्लेखनीय सफलता हासिल की। आइए आज के वीडियो द्वारा, प्रतिभाशाली तीरंदाज, दीपिका कुमारी के जीवन-संघर्ष, सतत प्रशिक्षण, और साथ ही, कुछ अद्भुत तीरंदाजी युक्तियों के बारे में जाने ।