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"जो रहीम उत्तम प्रकति, का करि सकत कुसंग,
चंदन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।"
आप सभी ने रहीमदास जी का यह दोहा तो सुना ही होगा, जिसका भावार्थ यह है कि, "बुरे लोगों की संगति अच्छे लोगों में खामियाँ पैदा नहीं कर सकती, ठीक वैसे ही चंदन के पेड़ पर सांप के लिपटने से पेड़ को ज़हरीला नहीं कर सकती"!
क्या आप जानते हैं कि हमारे लखनऊ विश्वविद्यालय के परिसर में एक शानदार चंदन का पेड़ मौजूद है। किंतु आए- दिन इस चंदन के पेड़ की लकड़ी चोरी होती रहती है। परिसर के बाहर सुरक्षा गार्ड तैनात होने के बावजूद भी चोर लगातार पेड़ से लकड़ी चुराने की कोशिश करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि चंदन की लकड़ी की कीमत बहुत अधिक होती है। इसी कारण विश्वविद्यालय में चंदन के पेड़ों की सुरक्षा के लिए गार्ड तैनात रहते हैं और रात को विश्वविद्यालय का गेट भी बंद हो जाता है। निगरानी के लिए सीसीटीवी (CCTV) भी लगाए गए हैं। ऐसी ही एक चोरी के बाद जब सीसीटीवी की फुटेज (footage) जांची गई, तो उसमें देखा गया कि रात के समय कुछ लोग पेड़ काट रहे थे। हालांकि, फुटेज की मदद से चोरों की तलाश की जा रही है, लेकिन चंदन के पेड़ से लकड़ी की चोरी की घटना कम नहीं हो रही है। विश्वविद्यालय में चंदन के पेड़ से लकड़ी की चोरी पहले भी हो चुकी है और अधिकतर मामलों में चोरों का खुलासा भी नहीं हुआ है। लखनऊ विश्वविद्यालय परिसर में काफी पुराने और महंगे पेड़ आज भी मौजूद हैं। विश्वविद्यालय प्रशासन के अनुसार, 2008 और 2012 में भी विश्वविद्यालय के आवासीय कैंपस (campus) से चंदन के पूरे के पूरे पेड़ चोर काटकर ले जा चुके हैं। वहीं 2017-18 में भी कैंपस से चंदन का एक पूरा पेड़ चोरी हो गया था।
चंदन, जिसे वैज्ञानिक भाषा में सैंटेलम एल्बम (Santalum Album) कहा जाता है, दक्षिण भारत के शुष्क क्षेत्रों (जैसे पश्चिमी घाट, मैसूर और कोयंबटूर) में उगने वाला एक छोटा सदाबहार पेड़ है। हालांकि मुंबई, पुणे, गुजरात और उत्तरी भारत के कई इलाकों में इसकी खेती की जाती है। इसकी लकड़ी के तेल में एक विशिष्ट सुगंध होती है, जिसके कारण इसकी लकड़ी बहुत बेशकीमती मानी जाती है। इसकी जड़ों से बड़ी मात्रा में बेहतरीन गुणवत्ता वाले तेल का उत्पादन किया जाता है, जो कि हल्के पीले रंग का पारदर्शी और विशिष्ट सुगंध वाला होता है। चंदन के पुराने तने और युवा पेड़ों के बाहरी हिस्से लगभग पूरी तरह से गंधहीन होते हैं, इसलिए चंदन काटने वाले लकड़ी के बाहरी और आम तौर पर हल्के हिस्से को सावधानी से हटाते हैं। हिंदू चिकित्सीय ग्रंथों में चंदन को कड़वा, ठंडा और कसैली प्रकृति का माना गया है।
पित्त, उल्टी, बुखार आदि में चंदन का उपयोग बहुत लाभदायक माना जाता है। इसकी लकड़ी को पानी के साथ पीसकर उसका लेप बनाया जाता है, तथा सूजन, बुखार,और त्वचीय रोगों के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसके लेप का उपयोग नहाने के बाद शरीर को रंगने के लिए भी किया जाता है। दक्षिण भारत में इस लेप का उपयोग शारदाना नामक जाति-चिह्न बनाने में किया जाता है। चंदन के पाउडर को नारियल-पानी में मिलाकर नहाने में प्रयोग किया जाता है, जो कि शरीर को ठंडा रखने के साथ-साथ सिरदर्द, घमौरी आदि मामलों में बहुत फायदेमंद है। साथ ही इसकी लकड़ी का उपयोग घरेलू और धार्मिक उद्देश्यों के लिए बहुतायत में किया जाता है। चंदन से प्राप्त लकड़ी के तेल में विशेष सुगंध होती है, जिस कारण इसका उपयोग इत्र उद्योग में भी व्यापक रूप से होता है। साबुन के साथ अच्छी तरह से मिश्रित होने के कारण इसका उपयोग साबुन उद्योग में भी किया जाता है। चंदन की लकड़ी का उपयोग नक्काशी उद्योग में भी व्यापक रूप से होता है। चंदन की लकड़ी से बक्से, अलमारियां, मेज इत्यादि फर्नीचर भी बनाए जाते हैं।
चंदन की लकड़ी को अत्यंत प्राचीन काल से पवित्र माना जाता है और इसी कारण भगवान की मूर्तियों को भी चंदन से तराशा जाता है। 7वीं शताब्दी से एक उल्लेख मिला है कि चीनी बौद्ध भिक्षु, ह्वेन त्सांग (Hiuen Tsiang), जब भारत से वापस गए, तब वे अपने साथ भगवान बुद्ध की चंदन की लकड़ी से बनी आकृतियों को ले गए थे। बौद्ध धर्म के लोग चंदन की लकड़ी से बने पायस देवताओं कोअर्पित करते हैं। चंदन की लकड़ी से बनी धूपबत्ती का उपयोग भगवान बुद्ध की पूजा करने के लिए किया जाता है। चंदन की लकड़ी में 90 प्रतिशत अल्कोहल सामग्री (Alcohol content) होती है। इस अल्कोहल में ‘अल्फा-सैंटेलोल’ (Alpha-Santalol) और ‘बीटा-सैंटेलोल’ (Beta-Santalol) जैसे रसायन होते हैं, जो इसके तेल को विशिष्ट गुणों से युक्त बनाते हैं।
हालांकि भारत में चंदन की लकड़ी का उपयोग कम से कम पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से किया जा रहा था, लेकिन उस समय यह लगभग पूरी तरह से बौद्ध और हिंदू लोगों तक ही सीमित था। ऐसा माना जाता है कि ईसाई युग की शुरुआत तक पश्चिमी क्षेत्रों में इसका उपयोग नहीं किया जाता था। इस लकड़ी का प्रथम उल्लेख छठी शताब्दी ईसवी के यूनानी व्यापारी कॉस्मास इंडिकोपलीएस्टीज़ (Cosmas Indicopleustes) द्वारा’ ज़न्दाना’ (Tzandāna) नाम से किया गया है। कॉस्मास और अरब के लोगों का यह मानना था कि चंदन की लकड़ी का उपयोग सबसे पहले चीन (China) द्वारा किया गया था। मुस्लिम धर्म के लोग इत्र के बहुत शौकीन थे, इसलिए उन्होंने चंदन का अत्यधिक उपयोग किया जो कि इसके प्रसार का कारण बना। ऐसा माना जाता है कि चंदन का निर्यात व्यापार 1921 से लगातार बढ़ा है, और अब यह लगभग आठ सौ टन प्रति वर्ष हो गया है। आज स्थिति यह है कि चंदन की लकड़ी की मांग बहुत बढ़ गई है, और अब भारत में इसका एक फलता-फूलता काला बाजार मौजूद है, और अधिक कटाई के कारण चंदन का पेड़ अब एक लुप्तप्राय प्रजाति है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3N785lv
https://bit.ly/3MC9puP
https://bit.ly/3MDXI6S
चित्र संदर्भ
1. लखनऊ विश्वविद्यालय के पुराने स्वरूप को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. चंदन के वृक्ष को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. चंदन के चूर्ण को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. चंदन के ढेर को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
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