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1857 के सिपाही विद्रोह में लखनऊ की तवायफों के योगदान को क्यों भुला दिया गया!

लखनऊ

 22-05-2023 09:19 AM
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक

‘तवायफ’ शब्द को भारत में बड़ी ही घृणा एवं अपमानजनक नजरिये से देखा जाता है। लेकिन आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि सन 1857 के प्रसिद्ध सिपाही विद्रोह के दौरान लखनऊ में रहने वाली ‘अज़ीज़ुनबाई’ जैसी कई तवायफों ने स्वतंत्रता संग्राम में अहम् भूमिका निभाई थी। लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने इस शब्द को केवल वेश्यावृत्ति तक ही सीमित कर दिया।
वेश्यावृत्ति, को दुनिया का सबसे पुराना पेशा माना जाता है। यदि हम भारतीय उपमहाद्वीप और कई एशियाई देशों के इतिहास को देखते हैं, तो "वेश्यावृत्ति" शब्द बहुत बाद में हमारे सामने आया। 18वीं और 19वीं शताब्दी में तवायफों और शारीरिक तृप्ति के कारोबार में शामिल अन्य लोगों की दुनिया का वर्णन करने के लिए "वेश्यावृत्ति" शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया गया।
वेश्यावृत्ति की उत्पत्ति प्राचीन ग्रीस के हेटेरिज़्म (Heterism Of Greece) और बौद्ध भारत के दरबारियों के युग में हुई थी। हालांकि तब, यह आज से बिल्कुल अलग प्रथा हुआ करती थी। उस दौरान वेश्याओं से जुड़ा नैतिक निर्णय उनके अपने हाथ में नहीं था। आसान भाषा में समझें तो वे आधुनिक वेश्याओं की तरह नहीं थीं, क्योंकि उन्हें खुले तौर पर खुद को बेचने की स्वतंत्रता नहीं थी। वे अनिवार्य रूप से एक सामंती व्यवस्था की बंदिशों में रहती थी। 19वीं सदी के बंगाल में, मरहट्टा हमलावरों और 1770 के अकाल के कारण मची उथल-पुथल के परिणाम स्वरूप वेश्याओं की पहली पीढ़ी उभरी। ये मूलविहीन और विस्थापित महिलाएँ, व्यापार केंद्रों में बस गईं, जहाँ उन्हें उनके शरीर और यौन सेवाओं के बदले धन प्राप्त होने लगा। उस दौरान तवायफों में सांस्कृतिक झलक भी देखी जा सकती थी। इतना ही नहीं उन्होंने हिंदुस्तानी संगीत और कथक नृत्य शैलियों के विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उत्पीड़न से पीड़ित कई महिलाओं ने कलकत्ता में नौकरानी के रूप में काम करना शुरू कर दिया, किंतु इससे भी उनका जीवन निर्वहन न हो सका और उन्हें वेश्यावृत्ति में संलग्न होना पड़ा। इससे पता चलता है कि 18वीं और 19वीं सदी के दौरान यौन कार्य में संलग्नता बहुआयामी थी, अर्थात यह केवल एक विशिष्ट जाति तक ही सीमित नहीं थी। यद्दपि तवायफों का जीवन बेहद अनिश्चित रहा था, किंतु इसका मतलब यह नही था कि, ‘वे आर्थिक रूप से कमजोर रही हों।’ अपने चरम काल में तवायफें, भारत की कला और संस्कृति के केंद्र में हुआ करती थीं। वे संगीत और नृत्य में कुशल होती और धन, शक्ति और प्रतिष्ठा संपन्न हुआ करती थी। इस पेशे में प्रवेश करने से पहले उन्हें, इन कौशलों में महारत हासिल करनी पड़ती थी। उन्होंने सांस्कृतिक शोधन को यौन आकर्षण के साथ जोड़ा और कला के विभिन्न रूपों के विकास की भागीदार बनी।
तवायफें केवल पुरुष संरक्षकों पर निर्भर नहीं थीं। उन्होंने सक्रिय रूप से राजनीति में भी भाग लिया। आपको जानकर हैरानी होगी कि, कई कुलीन परिवार अपने बेटों को शिष्टाचार और बातचीत की कला सीखने के लिए उनके पास भेजते थे।
इसी क्रम में अवध क्षेत्र में स्थित हमारा लखनऊ शहर 18वीं शताब्दी में कला और संस्कृति का केंद्र बन गया। जब अवध की राजधानी लखनऊ स्थानांतरित हुई, तब यहां तवायफ-बाजी, या तवायफ संस्कृति भी फली-फूली। इस दौरान तवायफें केवल वेश्याएं या मनोरंजनकर्ता नहीं होती थीं; बल्कि वे अत्यधिक निपुण महिलाएँ हुआ करती थीं! उन्होंने लखनऊ की इंडो-मुस्लिम परंपराओं (Indo-Muslim Traditions) को बनाए रखने और हिंदुस्तानी संगीत में अहम् योगदान दिया। तवायफों को शासकों और रईसों का भी संरक्षण प्राप्त था। साल 1857 में, भारत के प्रसिद्ध सिपाही विद्रोह के रूप में जाने जाने वाले संघर्ष के दौरान, अज़ीज़ुनबाई नाम की एक तवायफ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यद्यपि उनकी कहानी इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में नहीं मिलेगी, लेकिन कुछ अभिलेखीय रिपोर्टों और स्थानीय किंवदंतियों में उनकी भागीदारी का उल्लेख जरूर मिलता है। अज़ीज़ुनबाई ने कानपुर में एक मुखबिर, संदेशवाहक और संभवतः एक साजिशकर्ता के रूप में कार्य करके, विद्रोह का समर्थन किया। अज़ीज़ुनबाई मूल रूप से हमारे लखनऊ की रहने वाली थीं, लेकिन कम उम्र में ही कानपुर आ गईं। उन्होंने ब्रिटिश भारतीय सेना के सैनिकों (विशेष रूप से शम्सुद्दीन खान) के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित किए। ब्रिटिश जांच के साक्ष्यों के अनुसार अज़ीज़ुनबाई, सैनिकों के साथ अंतरंग होती थी, वह अक्सर पुरुष पोशाक पहने घोड़ों की सवारी करती थी और साथ में पिस्तौल भी रखती थी।
हालांकि अज़ीज़ुनबाई की कहानी भी अन्य तवायफों की भांति भुला दी गई है। महिलाओं की आवाज़ को पूरे इतिहास में, हाशिए पर रखा गया है, जिनमें भारत की महिला मनोरंजनकर्ताओं, सहित देवदासी, बाईजी, नैकिन और तवायफें भी शामिल हैं। उन्हें अनेक अनुचित पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ा है। ब्रिटिश शासन के दौरान, उन्हें गलत तरीके से वेश्यावृत्ति से जोड़ा जाता था। परिणामस्वरूप, भारतीय शास्त्रीय कलाओं में उनके योगदान को इतिहास से ही मिटा दिया गया। उपनिवेशवाद के आगमन के साथ ही उनके भी बुरे दिन शुरू हो गए। तवायफों को धीरे-धीरे अपमानजनक शब्द ‘वेश्या’ तक ही सीमित कर दिया गया, और उनकी बहु-आयामीता को समाप्त कर दिया गया।
यह परिवर्तन नैतिक संहिताओं, कामुकता के नियमन और नस्लवाद से प्रेरित था। इसका परिणाम यह हुआ कि "वेश्या जाति" को एक मिथक के रूप में देखा जाने लगा। इस परिवर्तन ने सभी रखैलों, देवदासियों, नचनियों और तवायफों को अपनी चपेट में ले लिया। उन्हें ऐतिहासिक रूप से अपमानित, घ्रणित एवं समाज से सांस्कृतिक सम्पन्नता से सराबोर उनके मूल रूप को गायब ही कर दिया गया। तवायफों का नाश केवल एक सांस्कृतिक नुकसान नहीं था, बल्कि इसने उन लोगों का सम्मान भी छीन लिया, जिनके पास कभी यौन और आर्थिक स्वतंत्रता थी।
अंग्रेजों के आगमन और ब्रिटिश शासन के क्रमिक विस्तार के साथ, तवायफों की आजीविका कम होने लगी। अंग्रेजों ने तवायफों की तुलना वेश्याओं से की और उनके प्रतिष्ठानों को वेश्यालय कहने लगे। उन पर सख्त नियम और कानून थोपे गए, जिससे उनकी हैसियत और शक्ति का भारी क्षरण हुआ। ईसाई मिशनरियों और भारतीय सुधारकों ने भी उनके खिलाफ अभियान चलाए, जिस कारण जनता की राय वेश्याओं और नर्तकियों के खिलाफ हो गई। हालाँकि इसके बावजूद कुछ तवायफों ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राष्ट्रवाद का भारी समर्थन किया। गौहर जान नामक एक प्रसिद्ध तवायफ और कलाकार, ने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन के लिए धन जुटाया, बल्कि महात्मा गांधी का भी समर्थन किया। वाराणसी में तवायफों के एक समूह ने स्वतंत्रता संग्राम का समर्थन करने के लिए तवायफ सभा का गठन किया। उन्होंने लोहे की बेड़ियाँ पहनकर और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके विरोध किया।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तवायफों का योगदान वाकई में सराहनीय था, किन्तु उनके सभी प्रयासों को व्यापक रूप से समर्थन नहीं मिला। गांधी जी ने स्वयं भी प्रचलित सामाजिक दृष्टिकोणों के कारण उनका समर्थन स्वीकार करने पर आपत्ति व्यक्त की।
आज तवायफों और बाईजियों के इतिहास पर दोबारा गौर करना, सामान्य पूर्वाग्रहों को छोड़ना और लखनऊ के सांस्कृतिक परिदृश्य में उनके योगदान को पहचानना जरूरी हो गया है। वे केवल वेश्याएं नहीं थीं, बल्कि परिष्कृत महिलाएं थीं, जिन्होंने कला में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया और भारत-मुस्लिम परंपराओं को संरक्षित करने तथा बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके वास्तविक महत्व को समझकर, हम अपने साझा इतिहास और संस्कृति में उनके योगदान की सराहना कर सकते हैं।

संदर्भ
https://bit.ly/41T2FhY
https://bit.ly/3C1BXJH
https://bit.ly/3BIpCtv

 चित्र संदर्भ

1. मुंबई की नृत्यांगनाओं को संदर्भित करता एक चित्रण (Collections - GetArchive)
2. आलम आरा फिल्म के एक दृश्य को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. लखनऊ के अवध दरबार की नृत्यांगना को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
4. अज़ीज़ुनबाई को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
5. द ब्यूटीज ऑफ लखनऊ", 1874 में खींची गई फोटो जो लखनऊ के प्रसिद्ध संगीतकारों को दर्शाती है (wikimedia)
6. नृत्य करती तवायफ को दर्शाता एक चित्रण (facebook)



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