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विलियम क्रुक ( William Crooke) जो कि भारत के एक विदेशी मानव-जाति विज्ञानविद् थे, ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ द नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध’ (The Tribes and Castes of the North-Western Provinces and Oudh) के चौथे खंड में, ‘भारत में वैश्यावृत्ति’ विषय पर विस्तार से लिखा है। उनके अनुसार ‘तवायफ (Tawaif), जिसका एक वचनी शब्द तैफा (Taifa) है, नृत्य करने वाली वे लड़कियां होती हैं जो ज्यादातर मुस्लिम धर्म में विश्वास रखती हैं। जबकि हिंदू नृत्यांगनाओं के संघ को अक्सर संस्कृत भाषा के आधार पर पातर, पटोरिवा, पातुर या पटुरिया आदि नामों से संबोधित किया जाता है। संस्कृत शब्द, कांचन आमतौर पर तवायफ के समान माना जाता है। वैसे तो साधारण वैश्यावृत्ति व्यवसाय करने वाली सभी स्त्रियों को, फिर चाहे वे किसी भी धर्म से संबंधित हों, प्राय: वैश्या नाम से जाना जाता है। वास्तव में तवायफ वे वैश्याएं ही होती थी, जो राजघरानों (विशेष रूप से, मुगलकाल में) से संबंधित थी। हालांकि, मिर्जा जाफर हुसैन, जिन्होंने अपना अधिकांश जीवन बीसवीं सदी के अवध समाज में बिताया, ने देखा कि लखनऊ में वैश्यावृत्ति व्यवसाय करने वाली स्त्रियों के लिए तवायफ के स्थान पर किसी अन्य शब्द का उपयोग किया जाता था जोकि एक अत्यंत असभ्य शब्द है और इसीलिए हम अपने इस लेख में उसका उपयोग नहीं कर रहे हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान लखनऊ में तवायफों के बारे में लिखते हुए मैक्वेरी विश्वविद्यालय ( Macquarie University) के एड्रियन मैकनील (Adrian McNeil) ने बताया कि तवायफों को शाही संरक्षण प्रदान किया जाता था। जिन तवायफों की पहुंच शाही निवासों तक नहीं थी, वे अमीरों के घरों में या बाजार में कोठों (वैश्यालय) में कार्यरत थी। लखनऊ के बाहरी इलाकों में स्थित कोठों में, आर्थिक रूप से कमजोर तबके ही जाते थे। इनमें आमतौर पर अशिष्ट और अशिक्षित वैश्याएं होती थीं। जबकि शिष्ट और कुशल वैश्याएँ कुलीन वर्ग के लोगों का मनोरंजन करती थी और शिष्टाचार, बोलचाल और व्यवहार के विषय में सुविज्ञ थी। अवध में, कोठे पर आई प्रत्येक नवागंतुक वैश्या को आमतौर पर एक नया नाम भी दिया जाता था। हालांकि, प्राचीन काल में आमतौर पर तवायफों के नाम दत्ता, मित्र और सेना आदि प्रत्ययों में समाप्त होते थे, जबकिअवध में, तवायफों के नामों में उनके पेशेवर स्थिति के संकेत के रूप में ‘जान’ या ‘बाई’ प्रत्यय जोड़ा जाता था।
हर कोठे की एक मालकिन होती थी, जो वैश्याओं को छोटे-छोटे कमरे देती थी और कोठे की सभी वैश्याएं उस एक नायिका के नियंत्रण में होती थीं। प्रत्येक वैश्या, द्वारा अर्जित धन नायिका के पास जमा किया जाता था, जिसमें से थोड़ा हिस्सा कोठे की मालकिन को दिया जाता था। अधिकांश वैश्याओं को शायद ही कभी पर्याप्त पैसा मिलता था, लेकिन उनके भोजन, आवास और चिकित्सा खर्चों का बराबर ध्यान रखा जाता था। लखनऊ में कई वैश्याओं ने अपना पेशा छोड़कर सम्मानित परिवारों में शादी कर ली थी। हालांकि इस तरह के रिश्ते शुरू में समाज में अस्वीकृत कर दिए जाते थे, परंतु समय के साथ इन्हें स्वीकार कर लिया जाता था।
जबकि,कई तवायफों के पूरे जीवन काल के दौरान केवल एक या दो ही स्थायी यौन संपर्क हुआ करते थे,इन वैश्याओं को प्रेम जैसी भावना से मतलब न होकर बस यौन संबंधों में रुचि रहती थी। लखनऊ की एक इतिहासकार वीना तलवार ने अपने शोध के लिए 1976 और 1986 के बीच तवायफ गुलबदन के कोठे का दौरा किया था। उन्होंने 1858 से 1877 के महसूल रिकॉर्ड से जाना कि लखनऊ की तवायफें उच्च कमाई करती थीं। उनकी यह आय उनके कलात्मक मनोरंजन के साथ-साथ उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली सामाजिक और यौन सेवा दोनों से आती थी। हालांकि, उच्च आय के बावजूद वैश्याओं को उच्च सामाजिक स्थिति प्राप्त नहीं थी। बहरहाल, तवायफों को वास्तव में, ‘संस्कृति का प्रतीक’ माना जाता था और सामाजिक सीमाओं के बावजूद भी, तवायफों द्वारा सामाजिक क्षेत्र में अपने प्रभाव और स्थिति का प्रदर्शन भी किया गया है।
सामाजिक रूप से वैश्याओं को अभिजात वर्ग के बेटों को कामुकता, कविता और दरबारी बातचीत की शिक्षा प्रदान करने के लिए सामाजिक और यौन शिक्षा में परामर्शदाता और उपदेशक के रूप में स्वीकार किया गया था। ‘मॉडर्न एशियन स्टडीज’ (Modern Asian Studies) में प्रकाशित सारा वहीद के एक निबंध के अनुसार, “वैश्याओं के कोठे अभिजात युवा पुरुषों के व्यक्तित्व विकास हेतु शिक्षालय के रूप में कार्यरत थे। तब वे युवा पुरुष तवायफों के साथ यौन संबंध भी रखते थे। हालांकि, अच्छे हिंदू और मुस्लिम परिवारों के युवाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वे अनुशासित तरीके से व्यवहार करें और विचलित न हों।”
असल में उन्नीसवीं सदी का अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत, महिलाओं के लिए एक निराशाजनक अवधि थी। उत्तर भारत का अधिकांश भाग विशेषकर अवध समाज, तवायफ संस्कृति के प्रभाव में था। राजकीय संरक्षण के कारण इन वैश्याओं ने अपने लिए समाज में एक रानी जैसा स्थान बना लिया था। उस समय वैश्याएं न केवल यौन सुख के लिए बल्कि दरबारी शिष्टाचार, रीति-रिवाजों, आचरण और बोलचाल की मानक वाहक थी और यह तथ्य सर्वस्वीकृत था। लखनऊ में चौक जैसे वैश्याओं से संबंधित मोहल्ले अभिजात वर्ग के सामाजिक बसेरे बन गए थे। जबकि, अमीरों की पत्नियाँ चूल्हे और चार दीवारी तक ही सीमित थीं।
लेखिका एना मॉरकॉम (Anna Morcom) के शब्दों में, “पुरुषों के लिए वैश्याओं और अन्य नृत्य करने वाली लड़कियों के साथ यौन संबंध रखना और कामुक मनोरंजन का आनंद लेना सामंती समाज में स्वीकार्य था। ऐसे समाज में तब केवल विवाह को ही यौन सुख के संरक्षण के रूप में नहीं देखा जाता था। हालाँकि, ऐसे मामलों में जहाँ कोई पुरुष वास्तव में किसी तवायफ से प्यार करता था या उससे शादी करना चाहता था, तब सार्वजनिक और घरेलू महिलाओं की भूमिकाएँ धुंधली हो जाती थी। यह पितृसत्तात्मक सामंती समाज का परिणाम था जो उन्नीसवीं सदी में और बीसवीं सदी की शुरुआत तक में मौजूद था।”
तवायफों की संगीत और नृत्य सभाएं एक बड़े कमरे या सभामण्डप में, या एक शामियाने में आयोजित की जाती थीं। दौलतमंद तवायफों के कमरों में बहुत से बड़े–बड़े दर्पण, दीवारों पर कालीन और यहां तक कि सुंदर झूमर भी होते थे। आमंत्रित लोगों या अतिथियों को एक ओर बैठाया जाता था। संगीत कार्यक्रम में आमतौर पर शास्त्रीय तथा अर्ध-शास्त्रीय गीत भी शामिल होते थे। साथ ही, कुछ गीतों को अनुरोध या फ़रमाइश पर भी प्रस्तुत किया जाता था। गायन या नृत्य के समय अगर प्रेक्षक को किसी तवायफ की कला विशिष्ट लगती थी, तो दर्शक सदस्य पैसे की पेशकश भी करते थे, जिसे आमतौर पर नज़राना या निछावर कहा जाता था। नवाब वाजिद अली शाह के समय गायन सत्रों में ठुमरी, दादरा और ग़ज़लों की भरमार थी। अवध की तवायफों में मशहूर ठुमरी गायिकाओं में हैदर जान, जद्दन बाई और अच्छन बाई की ख्याति सर्वविदित है। 1930 के दशक के अंत में, लखनऊ की छुट्टन जान और बब्बन जान भी प्रसिद्ध ठुमरी गायिकाएं थी।
मार्था फेल्डमैन (Martha Feldman) और बोनी गॉर्डन (Bonni Gordon) की किताब ‘द कोर्टिसन आर्ट्स: क्रॉस-कल्चरल पर्सपेक्टिव्स’ (The Courtesan’s Arts: Cross-Cultural Perspectives) में, तवायफों द्वारा किए जाने वाले प्रदर्शन के निम्नलिखित दो पहलुओं का उल्लेख किया गया है:
१) तवायफों द्वारा गायन, ग़ज़ल, ठुमरी और दादरा में शुद्ध उर्दू और ब्रजभाषा का प्रयोग किया जाता था
और उनके नृत्य में भाव और नृत्य, दोनों पहलू शामिल थे।
२) सभा मंडपो और कोठे में नृत्य के दौरान तवायफों के साथ शालीनता और शिष्टता के साथ व्यवहार किया जाता था।
इसके अलावा, फेल्डमैन और गॉर्डन अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि “एक महिला के रूप में तवायफ की यह बेदाग पहचान ही है, जिसने वैश्याओं को अपने पुरुष संरक्षकों के लिए, उनके द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कारों के बदले में, एक कामुक सांस्कृतिक अनुभव पैदा करने में सक्षम बनाया।”
2008 में, सबा दीवान ने अपने वृत्तचित्र ‘द अदर सॉन्ग’ (The Other Song) के लिए शोध करते हुए जाना कि बीसवीं सदी के मध्य तक, तवायफें भारत की प्रमुख पेशेवर महिला गायिका थीं। हालाँकि, उनके योगदान को काफी हद तक भुला दिया गया है। शायद, वैश्यावृत्ति को कलंकित मानने की हमारी सोच की वजह से उनके इतिहास, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदानऔर सांस्कृतिक तथा सामाजिक महत्व को हमनें कभी जानना ही नहीं चाहा….
संदर्भ
https://rb.gy/ool4n
चित्र संदर्भ
1. 'आलम आरा' ("विश्व का गहना") 1931 के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. द ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ द नॉर्थ-वेस्टर्न प्रोविंस एंड अवध को दर्शाता एक चित्रण (archive)
3. लखनऊ के अवध कोर्ट की नृत्यांगनाएं और संगीतकार को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. लखनऊ के अवध कोर्ट की नृत्यांगना हैदुर जान को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. मार्था फेल्डमैन (Martha Feldman) और बोनी गॉर्डन (Bonni Gordon) की किताब ‘द कोर्टिसन आर्ट्स: क्रॉस-कल्चरल पर्सपेक्टिव्स को दर्शाता चित्रण (Amazon)