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शाम-ए-अवध ने ज़ुल्फ़ में गूँधे नहीं हैं फूल
तेरे बग़ैर सुब्ह-ए-बनारस उदास है
उर्दू जुबान अपने आप में बेहद मीठी जुबान है और फिर इस जुबान में शायरी का तो क्या ही कहना - सोने पे सुहागा! 'उर्दू' शब्द मूलतः तुर्की भाषा का है तथा इसका अर्थ है- 'शाही शिविर’ या ‘ख़ेमा’(तम्बू)। यह शब्द तुर्कों के साथ भारत में आया और इसका यहाँ प्रारम्भिक अर्थ खेमा या सैन्य पड़ाव था। मुसलमान भारत में कई अलग-अलग भाषाएँ लेकर आए। जब 12वीं शताब्दी के अंत में दिल्ली पर मुस्लिम साम्राज्य था, तो दिल्ली के आसपास की भाषाएँ, मुख्य रूप से बृजभाषा और सौरसेनी, फ़ारसी के साथ मिश्रित हो गईं, जो मुस्लिम शासकों की भाषा थी। अन्य कई भाषाएँ, जिन्होंने भारत में अपना रास्ता खोज लियाजैसे कि तुर्की, अरबी, कज़ाख़ी, किरगीज़, पश्तो, दारी, बलूची, पामीरी, नूरिस्तानी, ताजिक आदि भी हिंदी भाषा के साथ घुल मिल गई ।
कहा जाता है कि उर्दू शायरी की शुरुआत 13वीं शताब्दी में हुई थी जब उत्तर भारत के कुछ कवियों ने उर्दू जुबान का कविताओं में प्रयोग करना शुरू किया, परन्तु इसने अपना वास्तिविक स्वरूप 17 वीं शताब्दी के अंतिम चरण में लिया, जब उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप के दरबारों की आधिकारिक भाषा बन गई। 17 वीं सदी में जब शाहजहाँ ने फ़ारसी के साथ-साथ उर्दू को राजदरबार की भाषा बना दिया, तो सैन्य-पड़ावों और बाज़ार की यह भाषा तेज़ी से विकसित होनी शुरू हो गई। इसके बाद उर्दू में कविता लिखने की कोशिशें भी होने लगीं। 18वीं शताब्दी में उर्दू, साहित्य की दृष्टि से भी एक जबरदस्त भाषा बन गई, कविताओं में उर्दू ने जल्द ही फारसी की जगह ले ली।
18वीं शताब्दी में उर्दू शायरी को अपार लोकप्रियता मिली। उर्दू कविता की जड़ें फ़ारसी, तुर्की और अरबी भाषाओं से जुड़ी हुईथी , और यही कारण था कि सांस्कृतिक और भाषाई सम्मेलनों का यह रंगीन मिश्रण भारतीय उपमहाद्वीप में इतने सारे लोगों द्वारा पसंद किया जाने लगा था। 18वीं शताब्दी में अखबारों और सूचनाओं के सार्वजनिक माध्यमों की कमी थी, इसलिए उस समय उर्दू शायरी लोगों के लिए सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों के बारे में एक-दूसरे से संवाद करने का एक तरीका बन गई। संचार के इस माध्यम को सामान्य भाषा में "मुशायरा" कहा जाता था, जो सामाजिक कार्यक्रम का एक रूप था, जहाँ कवि अपनी रचनाओं को दर्शकों के सामने पढ़ने के लिए एकत्रित होते थे।
इन मुशायरों में पढ़ी जाने वाली उर्दू शायरी में ताल के बहुत सख्त नियमों का पालन किया जाता था। प्रत्येक मुशायरे में, एक मुख्य, या पीठासीन शायर होता था, जो आम तौर पर सभा में सबसे अधिक प्रशंसित और सम्मानित कवि हुआ करता था। देखते ही देखते उर्दू शायरी एक उच्च सम्मानित कला बन गई और राजा महाराजा भी अक्सर प्रसिद्ध कवियों के साथ बैठा उठा करते थे। यही कारण है कि 18वीं सदी में उर्दू शायरी की कुछ बेहद आकर्षक कृतियां सामने आईं। हालाँकि, उस समय की कई सबसे मूल्यवान कविताएँ खो गईं क्योंकि एक कवि की रचनाएँ तभी प्रकाशित की जाती थी जब उसे प्रसिद्धि प्राप्त होती थी। कई बार तो एक सम्मानित उर्दू कवि के सबसे पसंदीदा कार्यों को उनकी मृत्यु के कई साल बाद ही प्रकाशित किया गया था। जैसे नज़ीर की कविताएँ, जो शायद अब तक के सबसे महान उर्दू कवि थे, उनकी मृत्यु के 80 साल बाद ही प्रकाशित हुई थीं।
उर्दू कविता के कई रूप हैं:
• क़सीदा या तारीफ़
• मसनवी या लंबी चिंतनशील कविता और पद्य में कहानी
• मर्सिया या शोकगीत, मर्सिया शहीदों की शान में कही जाने वाली रचना कहलाती है
• किता / क़ता, इसमें कई शेर और पंक्तियाँ होती है
• ग़ज़ल, यह छह से 26 पंक्तियों की एक गेय कविता है, जो अक्सर लंबी होती है इसका आकार, कहने वाले और ग़ज़ल में कही गयी बात पर निर्भर करता है।ग़ज़ल शब्द अरबी शब्द, "तग़ाज़ुल" से लिया गया है जिसका अर्थ महिलाओं के साथ बातचीत या महिलाओं के लिए प्यार की अभिव्यक्ति करना होता है।
दिल्ली और लखनऊ अपनी विशिष्ट उर्दू शैली के लिए पूरे हिंदुस्तान में मशहूर हुआ करते थे। अठारहवीं शताब्दी का अंत और उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत लखनऊ में साहित्यिक रुचि रखने वाले लोगों के लिए एक आशीर्वाद साबित हुई क्योंकि इस समय कई ऐसे पुरुषों ने जन्म लिया था जो दिल और दिमाग से अभिव्यक्ति का समुद्र थे। लखनऊ ने उर्दू शायरी पर अपना रंग जमाया तथा उसे दिल्ली शायरी से अलग कर दिया। 1857 के महासंग्राम के बाद लखनऊ के अलावा अजीमाबाद, मुर्शिदाबाद, हैदराबाद तथा रामपुर के राजदरबारों में शायरों ने शरण ली। अन्य स्थानों की अपेक्षा लखनऊ उर्दू शायरी का गढ़ बन गया। दिल्ली की तुलना में लखनऊ की कविता बहुत विशिष्ट थी, इसने विचारों की सुंदरता के बजाय बाहरी चीजों, जैसे कि बाहरी सजावट पर जोर दिया, जबकि दिल्ली स्कूल विषय और विचार पर बहुत केंद्रित था। नवाब द्वारा चलाए जा रहे लखनऊ के दरबार में शिया धर्म के उन कवियों के लिए यह एक मजबूत आधार था, जिन्हें कथा की कला में महारत हासिल थी, उन्होंने कर्बला की दुखद घटनाओं का काव्यात्मक वर्णन किया। यह कला मुख्य रूप से फारस में विकसित हुई थी और विशुद्ध रूप से धार्मिक आधार पर लखनऊ लाई गई थी। वास्तव में, यदि नवाबों ने शायरों को शरण न दी होती, उन्हें बुला-बुलाकर सम्मानित एवं पुरस्कृत न किया होता, तो लखनऊ में उर्दू शायरी का वह दौर न चल पाता जिसके लिए वह अलग से जाना-पहचाना जाता है। लखनऊ का परिवेश प्रारंभ में गजल के लिए काफी मुफीद था। मीर तक़ी मीर, मीर मुस्तहसन खालिक, मुजफ्फर हुसैन जमीर, रशीद, दया शंकर, कौल नसीम, आरिफ करामत अली शाहिदी, हैदर अली आतिश, इमाम बक्श नासिख तथा नफीस आदि ऐसे प्रमुख नाम हैं, जिन्होंने 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान लखनऊ में काव्य कौशल की नींव रखी। बीसवीं सदी की शुरुआत में जब लखनऊ देश भर में हो रहे राजनीतिक घटनाक्रमों में सबसे आगे था तब इसका प्रभाव तत्कालीन कवियों, लेखकों और साहित्यिक कृतियों में दिखाई दे रहा था। इस समय एक ओर देश प्रेम के गीत, क्रांति के विचारों से ढके हुए थे तो दूसरी ओर शोकगीतों से धार्मिक वैचारिक मतभेदों को समेटा गया था। उस समय के प्रमुख नामों में शब्बीर हसन खान, अली सरदार जाफरी बृज नारायण चकबस्त, असरारुल हक मजाज, आनंद नारायण मुल्ला, आल-ए-अहमद सुरूर, मोहम्मद शफी खान बेकल उत्सवी, बंसी धर जदीद लखनवी जौहर, मुंशी जहीर सिंह जुर्रत आदि शामिल थे।
उर्दू शायरी के बारे में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि यह आज भी एक कला और अभिव्यक्ति के रूप में फल-फूल रही है। इंटरनेट के आगमन से कई ऑनलाइन उर्दू शायरी समुदायों ने खुद की साइबर स्पेस में एक जगह बना ली है, जो आपको मुशायरा ऑडियो और वीडियो डाउनलोड करने की अनुमति देती है। वर्तमान में उर्दू शायरी के प्रशंसक दुनिया के कई अलग-अलग हिस्सों से आते हैं। इस कला को आधुनिक समय के कुछ सबसे सम्मानित साहित्यकारों से अंतरराष्ट्रीय पहचान भी मिली है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3lX63ZV
https://bit.ly/3xFC0Zd
https://bit.ly/3xErtxs
https://bit.ly/3xFZqh9
चित्र संदर्भ
1. राम अवतार गुप्ता मुज़्तर की शायरी को संदर्भित करता एक चित्रण (prarang, wikimedia)
2. उर्दू भाषा को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. उर्दू मुशायरे को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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