प्रारंग देश-विदेश श्रृंखला 1 - ‘बंगाल स्कूल वॉश कला तकनीक’ मूल रूप से जापानी ‘सुमी-ई’ कला का एक रूप है

दृष्टि III - कला/सौंदर्य
21-02-2023 10:34 AM
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 प्रारंग देश-विदेश श्रृंखला 1 - ‘बंगाल स्कूल वॉश कला तकनीक’ मूल रूप से जापानी ‘सुमी-ई’ कला का एक रूप है

प्रत्येक देश की अपनी कला एवं संस्कृति होती है,जो किसी न किसी रूप में अन्य देशों की कला एवं संस्कृति को अवश्य ही प्रभावित करती हैं। जापान भी उन देशों में से एक है जो अपनी कला एवं संस्कृति से अन्य देशों को प्रभावित करता है। पूरी दुनिया हमेशा से ही जापान से प्रभावित रही है। जापानी लोग अपनी जीवन शैली, संस्कृति और नवीनता के लिए विश्व में प्रसिद्ध हैं। अब तो, जापानी माँगा कला (Manga Art) और फिल्में, अपनी शैली और पात्रों के कारण दुनिया भर में धूम मचा रही हैं। इसी तरह से, ‘पारंपरिक जापानी स्याही चित्रकारी’ (Japanese traditional ink painting) ने भी बहुतों का ध्यान आकर्षित कर अन्य कला एवं संस्कृति को प्रभावित किया है ।
‘जापानी स्याही चित्रकारी’, जिसे जापानी लोग सुमी-ई (Sumi-e) कला कहते है, कैनवास(Canvas) पर उकेरी गई जापानी सौंदर्यशास्त्र की अभिव्यक्ति है। इस चित्रकारी का नाम दो जापानी शब्दों से लिया गया है; पहला ‘सुमी’ जिसका अर्थ है “स्याही” और दूसरा ‘ई’ जिसका अर्थ है “चित्रकारी”। ‘सुमी- ई ’ चित्रकारी मतलब ‘काले रंग की स्याही की चित्रकारी’, ज़ेन बौद्ध भिक्षुओं (Zen Buddhist Monks) के ज़रिये चीन से जापान पहुंच गई थी । 14वीं सदी में इस कला को कविता के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता था। यह कला काली स्याही का उपयोग करके हस्तनिर्मित कागज पर की जाने वाली एक एकरंगी चित्रकारी (Monochromatic painting) है। यह चित्रकारी ज़ेन तत्वज्ञान के पहलुओं को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करती है। यह विशेष रूप से ज़ेन तत्वज्ञान की दृष्टि, कि इस दुनिया में प्रत्येक वस्तु (चेतन और निर्जीव दोनों) समान हैं, को भी अभिव्यक्त करती है। सुमी-ई चित्रकारी में, सावधानीपूर्वक पृष्ठभूमि को छोड़कर, केवल किसी व्यक्तिगत वस्तु पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता है। यह कला केवल आवश्यक तत्वों को दर्शाती है और विवरणों पर कम ध्यान केंद्रित करती है।
यह चित्रकारी न केवल कैनवास पर, बल्कि इसकी तकनीक में भी सौंदर्यपूर्ण है। बांस पर लगे महीन बालों के कुंचे (Brush) कलाकार को मुक्त-प्रवाह वाले विशेष निशान और रेखाएं प्राप्त करने में सक्षम बनाते है। मूल रूप से, कागज पर वांछित रंगत प्राप्त करने के लिए पानी के विभिन्न अनुपातों के साथ विभिन्न प्रकार की स्याही को मिलाया जाता था। वही दूसरी ओर, आलंकारिक रेखाओं की अनुपस्थिति इस चित्रकला की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।
यह कला जापानी वुडब्लॉक प्रिंटिंग (Woodblock printing) के शुरुआती रूपों में से एक है, जो जापानी इतिहास के नारा काल (710 – 794) के समकालीन मानी जाती है। सुमी-ई कला, वास्तव में, “इंक वॉश पेंटिंग (Ink wash painting)” का ही एक रूप है, जो एक पूर्व–एशियाई (East- Asian) कूंचा चित्रकारी (Brush painting) तकनीक है जो काली स्याही का उपयोग करती है। सुमी-ई चित्रकारी का सबसे पुराना उदाहरण ‘हयाकुमंतो दारानी’ (Hyakumantō Darani), जो बौद्ध प्रार्थनाओं या मंत्रों की एक श्रृंखला है, जिसे कागज पर मुद्रित कर लकड़ी के छोटे बक्सों में संरक्षित किया गया था एवं जो स्वरूप एवं अर्थ में बिल्कुल छोटे पगोडा (मंदिर) जैसी लगती हैं, में पाया गया था। ये बौद्ध देवताओं का सम्मान करने के लिए बनाए गए थे। कई इतिहासकार मानते हैं कि ये पगोडा सुमी-ई मुद्रण का सबसे पुराना उदाहरण है, लेकिन उनके धार्मिक महत्व के कारण, इसके सभी सूत्र पत्रों (Scrolls) को हटाना और उनका अध्ययन करना थोड़ा मुश्किल है। इन पत्रों को दूर से देखने के लिए एक्स-रे (X–ray) तस्वीरों का उपयोग किया जाता है और इस प्रकार शोधकर्ताओं को सूत्रों को फिर से बनाने में मदद मिलती है। स्क्रॉल की उम्र और अपरदन का पता लगाने के लिए प्रौद्योगिकी कार्यरत है। समय के साथ जैसे-जैसे मुद्रण आंदोलन विकसित हुआ, कलाकारों ने सुमी-ई मुद्रण को हाथ से रंगना शुरू कर दिया। क्या आपको पता है, यह प्राचीन जापानी कला 1900 के दशक में जापानियों के माध्यम से भारत पहुंची । कहा जाता है कि 1903 में जापानी विद्वान और कला समीक्षक ओकाकुरा (Okakura) ने अपने दो कलाकार शिष्यों योकोयामा ताइकन (Yokoyama Taikan) और हिस्बिदा सुबुनसो (Hisbida Sbunso) (1874-1911) को भारत में भेजा और वे तब कलकत्ता में अबनिंद्रनाथ टैगोर के साथ रहे। तब अबनिंद्रनाथ ने देखा कि कैसे ताइकन ने एक बड़े एवं सपाट कूंचे (Brush) को पानी में डुबाकर, सावधानी से चित्रित और विशेष रूप से तैयार सतह पर नरम और नाजुक रंगों की एक श्रृंखला दी। अबनिंद्रनाथ ने अपने एक आत्मकथात्मक लेख में इसे स्वीकार किया था लेकिन उन्होंने इस तकनीक को और भी विकसित किया।इस प्रकार भारत में आने पर इस प्राचीन जापानी सुमी-ई कला को टैगोर परिवार का संरक्षण प्राप्त हुआ ।
तब इसे ‘बंगाल स्कूल वॉश कला तकनीक’ (Bengal school wash art technique) के नाम से जाना जाने लगा । अबनिंद्रनाथ टैगोर कोमल और नाजुक रंग-संगति की श्रेणी में तल्लीन थे। उन्होंने ‘भारतीय स्याही तकनीक’ विकसित की जिसमें जलरंगो (Watercolours) की एक पतली परत के बाद पेंटिंग को पानी में डुबोया जाता था। इससे कुछ रंग धुल जाते थे, हालांकि विभिन्न रंग आपस में घुल मिल जाते थे। इस तकनीक ने एक कोमल रंगत बनाई और एक सपने जैसी कालातीतता को बांध के रखा। जलरंग की एक पतली पारदर्शी परत के बाद, अबनिंद्रनाथ चित्र को सचमुच पानी में डुबोते थे, जबकि, मूल चित्रकारी में जापानियों ने ऐसा कभी नहीं किया था।। इससे कुछ रंग धुल जाते थे; और फिर भी उन परतों पर रंगों की एक और पारदर्शी परत चढ़ाई जाती थी। साथ ही इस कला का प्रभावशाली उपयोग एक और अन्य भारतीय कलाकार द्वारा किया गया। प्रसिद्ध कलाकार अजय घोष ने भी, भारतीय पौराणिक कथाओं – अहिल्या और सावित्री, कर्ण-कुंती और कर्ण–परशुराम से लेकर दुर्गा, गणेश और शिव जैसे देवताओं को चित्रित करने के लिए, सूक्ष्म रंगों, बारीक रेखाओं और नाजुक विशेषताओं के माध्यम से इस कला का बखूबी प्रयोग किया। इस प्रकार हमने जाना कि आधुनिक वाश-आर्ट तकनीक मूल रूप से किस देश से संबंधित है और यह भारत कैसे पहुंची और इसने आज का अपना आधुनिक रूप कैसे प्राप्त किया।

संदर्भ
https://bit.ly/3Se1M0b
https://bit.ly/3k4TQlf
https://bit.ly/3K9u1ey
https://bit.ly/3IwaZxO

चित्र संदर्भ
1. सुमी-ई’ कला के एक रूप को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. जापानी सुमी-ई’ कलाकार को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
3. प्राकृतिक दृश्य को दिखाती सुमी-ई कला को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. एक अन्य सुमी-ई कला को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
5. अबनिंद्रनाथ द्वारा चित्रित भारत माता को दर्शाता एक चित्रण (Openclipart)