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जब कभी आप भारत के छोटे-छोटे बाज़ारों में भ्रमण के लिए जाते हैं, तो वहां आपको किसी न किसी भोजनालय से उठती छोले-भटूरे या छोले-समोसे की भीनी-भीनी खुशबू अपनी ओर अवश्य खींच लेती होगी । भारतीय पाक संस्कृति में छोले के मुख्य उत्पाद “चने" की पकड़ का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि साल 1981 में रिलीज हुई सुपरहिट फिल्म 'क्रांति" का एक पूरा गाना “चना जोर गरम" चने को ही समर्पित था। आज भारत के घर-घर में आपको चने के दीवाने नज़र आ जायेंगे। 2019 में, वैश्विक चने का 70% उत्पादन अकेले भारत में ही हुआ था। चने का शानदार इतिहास और सेहत पर पड़ने वाले फायदों को जानकर आपका जी भी इसे खाने को ललचा जायेगा।
चना (Caesar Arietinum), पौधों के फैबेसिआइ परिवार (Fabaceae) के उप परिवार फैबोइडे (Faboideae) की एक वार्षिक फली है, जो विभिन्न प्रकार का होता है एवं जिन्हें बंगाल चना, ‘गरबांजो’ या ‘गरबांजो बीन’ (Garbanzo Bean) या मिस्र की मटर (Egyptian Peas) के रूप में भी जाना जाता है। चना प्रोटीन से भरपूर होता है और इसकी खेती हजारों सालों से की जाती रही है। यह सबसे पहले उगाई जाने वाली फलियों में से एक है, और मध्य पूर्व में इसके 9500 साल पुराने अवशेष भी पाए गए हैं। चना भूमध्यसागरीय, मध्य पूर्वी और भारतीय व्यंजनों में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है।
“चना" नाम की उत्पत्ति मध्य फ्रांसीसी नाम “पोइस चिचि (Pois Chiche)" से हुई है, जो लैटिन शब्द “साइसर ( Cicer) से निकला है। चना एक प्रकार की दलहनी फसल है, जिसके बीजांकुर में 2 से 3 दाने होते हैं। चने का पौधा 20-50 सेमी की ऊंचाई तक बढ़ता है, और इसकी पत्तियां नाजुक होती हैं।
माना जाता है कि इंसानों द्वारा चने को पहली बार लगभग 7000 ईसा पूर्व में दक्षिण-पूर्व तुर्की (Turley) में उगाया गया था। चने का पूर्वज माने जाने वाला जंगली “साइसर रेटिकुलटम” (Cicer Reticulatum), आज भी उस क्षेत्र में उगाया जाता है ।
काबुली चने की खेती के अवशेष तुर्की और लेवांत (Levant) में प्री-पोटरी नियोलिथिक बी साइट्स (Pre-Pottery Neolithic B Sites) में पाए गए हैं । चने के बीज भूमध्य क्षेत्र में लगभग 6000 ईसा पूर्व तथा भारत में लगभग 3000 ईसा पूर्व में फैल गए। (You had mixed up the data numbers harendra – be careful) दक्षिणी फ्रांस में 6790ई.पू. की एक गुफा की मेसोलिथिक परतों (Mesolithic layers) में भी चने मिले हैं। 3500 ईसा पूर्व में ग्रीस और उसके आसपास के इलाकों में नवपाषाण स्थलों पर भी चने की फलियाँ पाई गईं।
800 ईसवी में, कैरोलिंगियन राजवंश (Carolingian dynasty) के शासक शारलेमेन (Charlemagne) की रचना कैपिटुलारे डेविलिस’ (Capitulare De Willis) में भी चने का उल्लेख साइसर इटैलिकम (Cicer Italicum) के रूप में किया गया था, जो शाही बागानों में उगाया जाता था। वनस्पतिशास्त्री अल्बर्ट मैग्नस (Albert Magnus) ने भी चने की लाल, सफेद और काली किस्मों का वर्णन किया है।
17वीं शताब्दी के वनस्पति वैज्ञानिक निकोलस कल्पेपर (Nicholas Culpepper) ने लिखा है कि चना मटर की तुलना में अधिक पौष्टिक होता है । प्राचीन लोगों ने चने को शुक्र के साथ जोड़ा और इसके कई स्वास्थ्य लाभ भी गिनाए, जिसमें वीर्य और दूध उत्पादन में वृद्धि तथा गुर्दे की पथरी के इलाज में चने का लाभदायक होना शामिल है।
1793 में, भुने हुए छोले को यूरोप (Europe) में कॉफी के विकल्प के रूप में जाना जाने लगा। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, इस उद्देश्य के लिए चने जर्मनी (Germany) के कुछ क्षेत्रों में भी उगाए गए थे, और आज भी उन्हें कभी-कभी कॉफी के विकल्प के रूप में उपयोग किया जाता है। वैश्विक स्तर पर प्रत्येक वर्ष, 12.1 मिलियन टन चने की खेती की जाती है। भारत विश्व में चने का सबसे बड़ा उत्पादक राष्ट्र है। चने के अन्य प्रमुख उत्पादकों में म्यांमार (Myanmar), पाकिस्तान (Pakistan) , तुर्की (Turkey) , रूस (Russia) और इथियोपिया (Ethiopia) शामिल हैं।
देसी चना, जिसे काला चना, छोला या बूट (भारत के पूर्वी भागों में) के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप की मूल फसल मानी जाती है। इसका रंग गहरा, आकार छोटा और बनावट खुरदरी होती है। ये चने भारत, इथियोपिया (Ethiopia), मैक्सिको (Mexico) और ईरान में भी उगाए जाते हैं।
दूसरी ओर, सफेद या काबुली चने आकार में बड़े होते हैं और इनका रंग हल्का और बनावट चिकनी होती है। ये चने मुख्य रूप से भूमध्यसागरीय, दक्षिणी यूरोप, उत्तरी अफ्रीका (North Africa), दक्षिण अमेरिका(South America) और भारतीय उपमहाद्वीप में उगाए जाते हैं। “काबुली चने" का हिंदी नाम “काबुल" शब्द से आया है, क्योंकि माना जाता है कि ये काबुल (अफगानिस्तान) में उत्पन्न हुए थे और 18वीं सदी में भारत आए थे।
भारत और भारतीय समुदायों वाले अन्य देशों में आमतौर पर चने का उपयोग स्वादिष्ट रसेदार सब्जी बनाने के लिए किया जाता है। यह सब्जी अक्सर रोटी या चावल के साथ परोसी जाती है और शाकाहारियों के बीच एक लोकप्रिय व्यंजन और प्रोटीन का स्त्रोत है । चने के आटे यानी बेसन का भी उपयोग विभिन्न व्यंजनों में किया जाता है। भारत और लेवांत (Levant) में, लोग कच्चे चनों को नाश्ते के रूप में और चने की पत्तियों को सलाद सामग्री के रूप में भी खाते हैं। बेसन का हलवा, मैसूर पाक, बेसन की बर्फी और लड्डू जैसी भारतीय मिठाइयाँ भी चने के आटे से ही बनाई जाती हैं।
चने बहुमुखी होते हैं और मनुष्यों और जानवरों दोनों के लिए भोजन के रूप में काम करते हैं। चने प्रोटीन (Protien), कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrate) , फाइबर (Fibre), फोलेट (Folate), आयरन (Iron) और फास्फोरस (Phosphorus) जैसे विभिन्न आवश्यक पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। चने मटर जैसी अन्य फलियों का एक स्वस्थ विकल्प होते हैं । मानव उपभोग के लिए चनों को पकाते समय, उन्हें आमतौर उबाला जाता है। साथ ही ताज़ी फलियों को सलाद के रूप में कच्चा भी खाया जा सकता है या उन्हें भून कर भी खाया जा सकता है।
चने का इस्तेमाल हमारे शहर लखनऊ के प्रसिद्ध शामी कबाब की भरावन में भी किया जाता है। शामी कबाब शहर के सबसे लोकप्रिय व्यंजनों में से एक है। वे अपने कोमलता और सुगंधित स्वाद के लिए जाने जाते हैं, जिनकी कल्पना लखनऊ के नवाबों के शाही रसोइयों द्वारा की गई थी। इन कबाबों को तैयार करने के लिए, मेमने के मांस को उबाला या भून लिया जाता है, और फिर छोले के साथ पीसा जाता है। ऐसा ही एक और स्वादिष्ट व्यंजन पट्टोड़े के कबाब है, जो राजस्थान के शाही रसोई में उत्पन्न हुआ था। इन्हें पिसे हुए काले चने, अदरक, लहसुन और मसालों के मिश्रण से भी बनाया जाता है । पट्टोड़े के कबाब में एक अनूठी बनावट और स्वाद होता है, जिसमें काले चने एक पौष्टिक स्वाद प्रदान करते हैं । वास्तव में, चने कई अलग-अलग प्रकार के कबाब की तैयारी में एक अनिवार्य भूमिका निभाते हैं।
दुनिया भर में व्यापक रूप से चने की खेती और सेवन किया जाता है। मूल रूप से भूमध्यसागरीय और मध्य पूर्व में, चने हजारों वर्षों से मुख्य भोजन का एक हिस्सा रहे हैं। चनों के 90 से अधिक आनुवंशिक रूपों को अनुक्रमित किया गया है, और शोधकर्ताओं ने 28,000 से अधिक जीन (Gene) और कई मिलियन आनुवंशिक निशान खोजे हैं।
हालांकि, प्रोटीन का एक प्रमुख स्रोत होने तथा दुनिया की 20% से अधिक आबादी की आपूर्ति करने के बावजूद, चने को जलवायु परिवर्तन और आनुवंशिक विविधता की कमी जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
वर्तमान में पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील होने के कारण चने की आनुवंशिक विविधता काफी हद तक सीमित हो गई है । चने की फसल रोगजनकों के लिए भी अतिसंवेदनशील होती हैं, जो 90% से अधिक फसल नुकसान का कारण बनती हैं। वैज्ञानिक उम्मीद कर रहे हैं कि चने का जीनोम अनुक्रमण (Genome Sequencing) इन चुनौतियों से निपटने में मदद कर सकता है।
दालों (जिसे "फलियां" भी कहा जाता है) के महत्व और पोषण संबंधी लाभों के प्रति जागरूकता फ़ैलाने के उद्देश्य से, संयुक्त राष्ट्र (United Nations) द्वारा 2018 से प्रत्येक वर्ष 10 फरवरी को ‘विश्व दलहन दिवस’ (World Pulses Day ) के रूप में मनाया जाता है। पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य फसलों के महत्व का सम्मान करने के लिए, संयुक्त राष्ट्र की महासभा (General Assembly) ने 20 दिसंबर, 2013 में एक विशेष संकल्प को अपनाया और 2016 को ‘दलहन के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष’ (International Year of Pulses (I.Y.P.) के रूप में घोषित किया। संयुक्त राष्ट्र के ‘खाद्य और कृषि संगठन’ (Food and Agriculture Organization (F.A.O.) ने 2016 में इस आयोजन का नेतृत्व किया। इस आयोजन ने दालों के पोषण और पर्यावरणीय लाभों के बारे में सार्वजनिक जागरूकता को सफलतापूर्वक बढ़ाया। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, गरीबी, खाद्य सुरक्षा और पोषण, और मिट्टी के स्वास्थ्य जैसी वैश्विक चुनौतियों को कम करने में दालें प्रभावशाली भूमिका निभाती हैं।
संदर्भ
https://bit.ly/40syfng
https://bit.ly/3HZVOg6
https://bit.ly/40sftw9
https://nyti.ms/2OT0AxY
चित्र संदर्भ
1. फेटा पनीर और पुदीने के साथ गार्लिकी रोस्टेड चने को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
2. जड़ों समेत चने के पोंधे को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. इथियोपिया में जनवरी 2015 में चने की कटाई को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. काबुली चने को दर्शाता करता एक चित्रण (wikimedia)
5. चना मसाला को दर्शाता करता एक चित्रण (flickr)
6. लखनऊ के प्रसिद्ध शामी कबाब को दर्शाता करता एक चित्रण (wikimedia)
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