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मनुष्य अपनी खोज से या तो कुप्रबंधन से या अति दोहन से जलीय पर्यावरण को नष्ट कर रहा है। जलीय पर्यावरण के हानिकारक प्रभावों के लिए मनुष्य की गतिविधियां काफी हद तक जिम्मेदार है। महासागरों में प्लास्टिक प्रदूषण का 60 फ़ीसदी हिस्सा सिर्फ पांच देशों से ही फैलता है जिनमें चीन, इंडोनेशिया, फिलीपींस ,वियतनाम और थाईलैंड शामिल है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board) के अनुसार भारत की नगरपालिकाएं सालाना 55 मिलियन टन कचरा इकट्ठा करती है,जिसमें से केवल 37 प्रतिशत का ही निदान किया जाता है। बढ़ती आबादी ,तेजी से बढ़ रहे शहरीकरण, एवं बदलती जीवन शैली के परिणामस्वरूप प्लास्टिक कचरे का कुप्रबंधन हुआ है, जिससे नगरपालिका ठोस कचरे का संचय हुआ है। लोगों द्वारा ज्यादातर ऐसी वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है जो प्लास्टिक से बनी होती है।
उनका अपघटन संभव ना होने के कारण ऐसी वस्तुएं अधिकांशतः जलीय स्रोतों जैसे नदियों और महासागरों में प्रवाहित कर दी जाती है जिससे वे जलीय प्रदूषण का कारण बनती है। शहरों में उत्पन्न किया गया कचरा डंपिंग की प्रक्रिया के अंतिम चरण के रूप में नदी प्रणालियों के द्वारा समुद्र में बहा दिया जाता है। हर साल प्लास्टिक, कांच, धातु, सैनिटरी उत्पाद, कपड़े आदि से बना हजारों टन कचरा महासागरों में डाला जाता है जिसका लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा प्लास्टिक होता है।
कुल एकत्रित प्लास्टिक कचरे का केवल 60 प्रतिशत ही पुनर्नवीनीकरण किया जाता है, जबकि शेष 40 प्रतिशत को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। वर्तमान में, भारत समुद्री मलबे के संकट से जूझ रहा है, जो इसकी समृद्ध समुद्री जैव विविधता के लिए गंभीर खतरा है। ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ (United Nations Environment Programme) के अनुसार, दक्षिण एशियाई समुद्रों में रोजाना 15,343 टन कचरा डाला जाता है, जो 60 प्रमुख भारतीय शहरों से उत्पन्न होता है।
हम भूमि पर रहने वाले नागरिक अपने कर्तव्यों को न समझकर जलीय प्रदूषण में अपना योगदान देते आ रहे हैं ।वह समय दूर नहीं जब हम अपने महासागरों को पूर्ण तरह से प्रदूषित कर देंगे, जिसका प्रभाव भूमि पर रहने वाले मानव अर्थात् हम पर ही पड़ेगा। हम अपने महासागरों में अत्यधिक घातक कचरा इकट्ठा कर रहे हैं। अगर बात की जाए, हिंद महासागर की तो यह चिंतनीय है कि हिंद महासागर में भी प्लास्टिक कचरे का कुछ ऐसा ही हाल है। मानचित्र से पता चलता है कि हिंद महासागर भी अत्यधिक प्रदूषित हो गया है, इसके पानी में 1.3 अरब बड़े-बड़े प्लास्टिक के टुकड़े हैं ।अकेले हिंद महासागर में ही भारतीय उपमहाद्वीप से पहुंचने वाली भारी धातुओं और लवणीय प्रदूषण की मात्रा प्रतिवर्ष करोड़ों टन है। दरअसल, इंसानों द्वारा प्लास्टिक का हो रहा बेतहाशा प्रयोग मानव जीवन के लिए ही खतरे का सबब बनता नजर आने लगा है।महासागरों में बढ़ता प्रदूषण चिंता का विषय बनता जा रहा है । अरबों टन प्लास्टिक का कचरा हर साल महासागर में समा जाता है। आसानी से विघटित नहीं होने के कारण यह कचरा महासागर में जस का तस पड़ा रहता है, लेकिन मानव की यह निंदनीय सोच यहीं तक सीमित नहीं रह गई है बल्कि वह ऐसे-ऐसे क्रियाकलाप कर रहा है जिससे पूरी पृथ्वी पर इसका गहरा कुप्रभाव देखने को मिल रहा है।
इसमें बात की जाए अगर जापान देश की, तो जापान का कहना है कि वह इस साल नष्ट हुए फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा संयंत्र (Fukushima nuclear power plant) से 1.3 मिलीयन रेडियोधर्मी पानी प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) में छोड़ने की अपनी योजना को आगे बढ़ा रहा हैं। हालांकि ‘अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी’ (The International Atomic Energy Agency (IAEA) सहित ‘टोक्यो इलेक्ट्रिक पावर कंपनी’ (The Tokyo Electric Power Company (TEPCO) का कहना है कि यह प्रस्ताव सुरक्षित है और इससे ज्यादा हानि नहीं होगी, लेकिन पड़ोसी देशों ने इस पर अपनी चिंता व्यक्त की है। इस परियोजना से समुद्र का जल, समुद्री जीवन, मछुआरों की आजीविका और क्षेत्र के अन्य देशों पर इसके संदिग्ध प्रभाव देखने को मिलेंगे। आलोचकों का मानना है कि इस परियोजना से संबंधित जोखिमों का अभी तकविस्तार से अध्ययन नहीं किया गया है।इस पर वुड्स होल ओशनोग्राफिक इंस्टिट्यूशन (Woods Hole Oceanographic Institution) के समुद्री विज्ञानी केन ब्यूसेलर(Ken Buesseler) कहते हैं कि ‘टेपको’ द्वारा दिए गए
आश्वासन में जाँच की मात्रा और गुणवत्ता समर्थित नहीं है। जापान के पड़ोसी देश समान चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं
कि जब तक सभी पक्ष वैज्ञानिक तरीकों से सत्यापित नहीं कर लेते कि यह परियोजना सुरक्षित है ,तब तक कोई निर्वहन नहीं होना चाहिए। ‘यूएस नेशनल एसोसिएशन ऑफ मरीन लैबोरेट्रीज’ (U.S. National Association of Marine Laboratories) ने भी जापान के सुरक्षा के दावे का समर्थन करने वाले पर्याप्त और सटीक वैज्ञानिक जांचों की कमी का हवाला देते हुए योजना का विरोध किया है। 2011 के तोहोकू (Tohoku) भूकंप और सूनामी के कारण फुकुशिमा बिजली संयंत्र तबाह हो गया था, तब से कर्मचारियों ने परमाणु ईंधन को ठंडा करने के लिए बर्बाद रिएक्टरों के माध्यम से लगातार पानी पंप किया है । ठंडा पानी रेडियो-न्यूक्लाइड (Radio-nuclides) युक्त होता है जिसमें से अधिकांश विशेष रूप से विकसित फ़िल्टरिंग प्रक्रिया द्वारा स्वच्छ कर दिया जाता है । लेकिन पानी में मिश्रित ट्रिटियम (Tritium), जो रासायनिक रूप से पानी में साधारण हाइड्रोजन के समान है, फ़िल्टरिंग प्रक्रिया से छूट जाता है । संयंत्र भूमि पर 1000 टैंकों में यह पानी एकत्र किया गया है। जापान सरकार संयंत्र से इस पानी को प्रवाहित करना चाहती है। जापान का कहना है कि वह इस जल को अगले 30 वर्षों तक प्रशांत महासागर में निष्कासित करता रहेगा।
संदर्भ
https://bit.ly/40poDtq
https://bit.ly/3jtn4Kq
https://bit.ly/3XZfk1v
चित्र संदर्भ
1. समुद्र में जहरीले अपशिष्ट के निस्तारण को संदर्भित करता एक चित्रण (Max Pixel)
2. समुद्र के भीतर प्लास्टिक कचरे को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा संयंत्र को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. तेल से लतपथ बतख को दर्शाता करता एक चित्रण (flickr)
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