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हम सभी जानते हैं कि प्लास्टिक और अन्य प्रकार के मानव निर्मित कार्बनिक अपशिष्ट, हमारे जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिए बेहद हानिकारक साबित हो सकते हैं। लेकिन शायद आपको यह जानकर हैरानी होगी कि कभी-कभी स्वयं प्रकृति ही प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र की क्षति या पूर्ण विनाश का कारण बन जाती है। चलिए जानते हैं कि यह कैसे संभव है?
दरसल, आइकोर्निया क्रैसिप्स (Eichhornia Crassipes) नामक जलकुंभी (Hyacinth), एक आक्रामक पौधे की प्रजाति होती है जो दशकों पहले, अपने मूल पारिस्थितिकी तंत्र अमेज़ोनिया, ब्राजील (Amazonia, Brazil) से निकलकर दुनिया भर के जल निकायों में फ़ैल गई और एक आक्रामक प्रजाति बन गई। समय के साथ यह भारत भी पहुंची और तब से यह भारत में कई झीलों जैसे कि पुणे में कटराज झील, उदयपुर में पिछोला झील और बेंगलुरु में उल्सूरू झील आदि को निरंतर खा रही है। यह कुख्यात जलकुंभी कई अन्य उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में भी फ़ैल गई है, जहां यह मीठे पानी के जलमार्गों पर आक्रमण कर रही है और कई देशी पौधों की प्रजातियों के विनाश अथवा विस्थापन का भी कारण बन रही है।
नदियों में इसके विस्तार के कारण जैव विविधता का नुकसान होता है और पानी की गुणवत्ता में गिरावट आती है। इसके अतिरिक्त, जलकुंभी मानव गतिविधियों को बाधित करती है, रोगवाहकों के लिए प्रजनन स्थल के रूप में कार्य करती है, और जलीय वातावरण में एक हानिकारक कीट की भांति रहती है। यह गर्म तापमान और उच्च स्तर के पोषक तत्वों वाले क्षेत्रों में अच्छी तरह से बढ़ सकती है, और जलीय पर्यावरण को बेहद नुकसान पहुंचा सकती है। इसके कारण जल का प्रवाह रुक जाता है जिसके फलस्वरूप मच्छरों की रोग फैलाने वाली वेक्टर प्रजातियां (Vector Species) स्थिर जल में स्वतंत्र रूप से प्रजनन करती हैं। इन खरपतवारों की घनी छतरियां धूप के प्रवेश को कम करती हैं जो पानी मटमैलैपन को बढ़ाता है और तापमान में परिवर्तनशीलता को कम करता है। नतीजतन, इन सभी घटनाओं से जलीय पौधों और जीवों की आबादी में कमी आती है क्योंकि उनका आवास कम रहने योग्य हो जाता है। उपयुक्त वातावरण ना मिलने के कारण उनकी मृत्यु भी हो जाती है। मृत जलीय पौधों और जीवों के अपघटन के परिणामस्वरूप एक अप्रिय गंध आती है। इसके अलावा स्थानीय मछुआरों को इन खरपतवारों की घनी छतरियां से ढके पानी में अपने जाल डालना असंभव लगता है। अनुमान बताते हैं कि भारत में अधिकांश सभी बड़े जल निकाय जलीय खरपतवारों से प्रभावित हैं। उनकी परत पानी में सूर्य के प्रकाश और ऑक्सीजन के प्रवेश को रोककर जैव विविधता को गंभीर रूप से प्रभावित करती है। इसके अलावा, उनकी वृद्धि सिंचाई चैनलों में पानी के प्राकृतिक प्रवाह को रोकती है, तथा सुचारू नौपरिवहन (Navigation) और पनबिजली उत्पादन में बाधा डालती है।
जलकुंभी को अक्सर भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में गर्म तापमान और पोषक तत्वों से भरपूर झीलों, नदियों तथा आर्द्रभूमि में देखा जाता है। इसमें बड़े, मोमी पत्ते और बैंगनी फूल होते हैं जो केन्द्रक (Spikes) में उगते हैं। इसका पौधा बहुत लंबा हो सकता है, और यह बीज तथा देहांकुर (Stolons) दोनों के माध्यम से काफी तेज़ी से प्रजनन करता है, जिस कारण इसे नियंत्रित करना और इससे छुटकारा पाना काफी मुश्किल हो जाता है। इसे हाथों या मशीनों से हटाना भी कठिन है, और यह बेहद महंगा भी हो सकता है। हमारे लखनऊ शहर की जीवनधारा गोमती नदी में भी इस जलीय दानव का प्रकोप देखा जा रहा है।
दरसल, जलकुंभी के कारण राजधानी लखनऊ की पहचान पवित्र गोमती नदी भी मानो बिलुप्त सी हो गई है। कई जगहों पर हालात इतने ख़राब हैं कि वहां पर नदी नजर ही नहीं आ रही है। दूर से देखने पर लगता है कि मानो यह कोई लंबा घास का हरा मैदान हो। गोमती नदी से जलकुंभी को हटाने के लिए न जाने कितनी बार अभियान चलाए गए, लेकिन सफलता अभी तक हाथ नही लगी है।
जलकुंभी को हटाने के अधिकांश उपाय या तो रासायनिक उपचार या हाथों के माध्यम से किए गए हैं, जोहर प्रकार से अप्रभावी और बेहद महंगे साबित हुए हैं। उदाहरण के लिए, ऊटी में नगर निगम ने पर्यटकों के इस शहर में झीलों को साफ करने के लिए लाखों खर्च कर दिए। बेंगलुरु में, भारतीय सेना ने उल्सूरू झील की सफाई के लिए अपने 7,000 कर्मियों को तैनात किया, फिर भी उनके प्रयास व्यर्थ साबित हुए।
सनातन धर्म कॉलेज, ऐलाप्पुझा (Sanatana Dharma College, Alappuzha) के ‘जलीय संसाधनों पर अनुसंधान केंद्र’ (Centre for Research on Aquatic Resources (CRAR) के जीव विज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर और केंद्र के प्रमुख अन्वेषक जी. नागेंद्र प्रभु (G. Nagendra Prabhu) सहित कई शोधकर्ता रचनात्मक उद्देश्यों के लिए इन जलीय खरपतवारों का उपयोग करने का प्रयास कर रहे हैं।
शोधकर्ताओं ने इन जलीय खरपतवारों को मिटाने की कोशिश करने के बजाय आर्थिक उद्देश्यों के लिए इनका उपयोग करने की आवश्यकता को पहचाना है।
2011 में, ‘वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर-इंडिया’ (World Wide Fund for Nature-India (WWF-India) ने ‘हरिके वन्यजीव अभयारण्य’ (Harike Wildlife Sanctuary) के आसपास एक पहल शुरू की, जिसके तहत उन्होंने जलकुंभी से बने हस्तशिल्प को बढ़ावा देने के लिए अभयारण्य के निकट दो गांवों का चयन किया। इस पहल का कई अन्य लोगों ने अनुसरण किया है।
इसी श्रंखला में, हैदराबाद में हाल ही में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (Indian Institute of Chemical Technology) द्वारा त्वरित अवायवीय खाद तकनीक (Accelerated Anaerobic Composting Technology) “जो 28 दिनों के भीतर पत्तियों, तनों और जलकुंभी की जड़ों को अच्छी गुणवत्ता वाले जैविक उर्वरक में परिवर्तित कर देता है,” के माध्यम से कापरा झील का कायाकल्प किया गया था।
जैविक खाद बनाने के अलावा, प्रभु और उनकी टीम ने जलकुंभी और जलीय काई ( सल्विनिया मोलेस्टा) (Salvinia Molesta) जैसे सामान्य जलीय खरपतवारों का उपयोग करके बैक्टीरिया से सेल्युलोज़ एंजाइम (Cellulase Enzyme) बनाने की तकनीक भी विकसित की है। उनका मानना है कि इन पौधों का जैवसंहति इष्टिका (Biomass Briquettes) बनाने, मशरूम की खेती करने तथा संशोधित जलकृषि (Hydroponics) के लिए खाद्य सामग्री के रूप में कुशलतापूर्वक उपयोग किया जा सकता है। साथ ही बचे हुए पदार्थ का इस्तेमाल जैविक खाद के रूप में किया जा सकता है।
इसके अतिरिक्त, टीम ने जलकुंभी के पत्तों और तने के गूदे से उत्पादों की एक श्रृंखला विकसित की है, जिसमें निपटान-योग्य प्लेटें (Disposable Plates), जैव निम्नीकरणीय पौधे घर के बर्तन (Biodegradable Nursery Utensils), अंडे और फलों की ट्रे, कार्टून मॉडल (Cartoon Models), खिलौने, फाइल बोर्ड (File Boards), बहुउद्देशीय बोर्ड और विशेष कैनवास भी शामिल हैं। हालांकि आज भी इन तकनीकों को बड़े पैमाने पर लागू करने के लिए विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता है।
संदर्भ
https://bit.ly/3X4XpGm
https://bit.ly/3X9VRuS
https://bit.ly/3H051V6
चित्र संदर्भ
1. जलकुंभी को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. नदी में आइकोर्निया क्रैसिप्स को संदर्भित करता एक चित्रण (Flickr)
3. तालाब को ढक चुकी आइकोर्निया क्रैसिप्स को संदर्भित करता एक चित्रण (Flickr)
4. एक नाविक के हाथ में आइकोर्निया क्रैसिप्स को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. उखाड़ी गई जलकुंभी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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