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पूरी दुनियां में कैलेंडर का प्रमुख कार्य, आज की दिनांक अथवा वर्ष के दौरान आने वाले त्यौहारों का विवरण देखना होता है। लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य में इन कैलेंडरों (Calendars) की भूमिका, महज दिनांक या त्यौहारों की तिथि दर्शाने से भी कई गुना अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। जन मानस में ईश्वर के संदेश का प्रचार करने से लेकर, देशभक्ति की ज्वाला जलाए रखने तक, भारतीय समाज में इन कैलेंडरों का योगदान अतुलनीय माना जाता है। इसी कारण यहां पर उन प्रमुख निर्माण केंद्रों की चर्चा करना भी अहम् हो जाता है, जिन्होंने भारत के लगभग हर घर की दीवारों में विविध विषयों के चित्रों को समाहित किये हुए इन कलैंडरों को टांग दिया।
भारत के प्रथम और सबसे लोकप्रिय कैलेंडर चित्रकार, राजा रवि वर्मा (Raja Ravi Varma) द्वारा कैलेंडर कला को लोकप्रिय बनाने के लगभग एक सदी बाद, भारत के तमिलनाडु राज्य के विरुदुनगर ज़िले में स्थित “शिवकाशी” नगरी द्वारा अपने उत्पादन केंद्रों के माध्यम से कैलेंडर कला का विस्तार किया गया।
भारत में कैलेंडर कला (Calendar Art) का केंद्र माने जाने वाले छोटे से शहर शिवकाशी को भारत का ''मिनी-जापान (Mini-Japan)'' भी कहा जाता है, जो मदुरई से लगभग 70 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में बसा है। 2001 की जनगणना के अनुसार इस नगर की जनसंख्या 72,170 व्यक्ति थी। इस शहर में तीन प्रमुख उद्योगों (माचिस, आतिशबाजी और छपाई) ने अपार तरक्की प्राप्त की थी,जिस कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे 'मिनी-जापान' (तमिल में 'कुट्टी जापान') की उपाधि भी प्रदान की।
आकार में छोटा प्रतीत होने वाला यह शहर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में प्रिंट उत्पादन का प्रमुख भार वहन करता है। 1980 में यह दावा किया गया था कि भारत की संपूर्ण ‘ऑफसेट प्रिंटिंग क्षमता’ (Offset Printing Capability) का 40 प्रतिशत उत्पादन केवल शिवकाशी में हो रहा था। जिसका लगभग 13 करोड़ (130 मिलियन रुपये) का वार्षिक कारोबार था, और
इतना पैसा लगभग 300 ऑफसेट छपाई मशीन चलाने वाली 75 कंपनियों से आ रहा था। 2001 के एक अनुमान के अनुसार, 373 प्रेस के साथ पूरे बाज़ार में अकेले शिवकाशी की ऑफसेट प्रिंटिंग हिस्सेदारी (Offset Printing Stake) तकरीबन 60 प्रतिशत थी।
स्वतंत्रता के बाद, संस्कृति में, विशेष रूप से धार्मिक प्रतीकों को, चित्रित करने के संदर्भ में शिवकाशी में एक बहुत बड़ा बाजार उभरा क्योंकि शिवकाशी इसकी विशिष्ट गर्म, शुष्क जलवायु, रसायनों और कागज के भंडारण के कारण प्रिंटिंग के लिए अच्छी तरह से अनुकूलित माना जाता है। इसके साथ ही शिवकाशी श्रम की कम लागत, स्थानीय नादर समुदाय और इसके गहन औद्योगिक विकास के कारण हमेशा से ही प्रिंटिंग के अनुकूल रहा है।
जब शिवकाशी की औद्योगिक सफलता की बात आती है तो पूंजी निवेश और सरकारी सब्सिडी (Government Subsidies) इसमें न्यूनतम भूमिका अदा करती है। वास्तव में, इसकी सफलता का एक प्रमुख कारक अनौपचारिक श्रमिकों के उपयोग के माध्यम से लागत में कमी भी रही है, जो बहुत कम दैनिक मजदूरी पर काम करते हैं।
1990 के दशक के अंत में, इसके सभी तीन प्रमुख उद्योग (माचिस, आतिशबाजी और छपाई) व्यावसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा के विचारों से काफी हद तक अछूते रहे। शिवकाशी में छपाई की शुरुआत 1928 में माचिस और आतिशबाजी उद्योगों के लिए लिथोग्राफी लेबल (Lithography Label) के साथ शुरू हुई। और जल्द ही शिवकाशी में छपाई अन्य उद्योगों जैसे विज्ञापन पोस्टर (Advertising Poster) और कैलेंडर आदि के लिए भी पैकेजिंग चित्र (Packaging Pictures) और लेबल (Label) तक विस्तारित हो गई।
शिवकाशी में नादर प्रेस लिमिटेड (Nadar Press Ltd.), पहला प्रिंटिंग प्रेस था, जिसे 1928 में के.एस.ए.अरुण गिरी नादर (KSA Arun Giri Nadar) द्वारा स्थापित किया गया था। इसके बाद नेशनल लिथो प्रेस (National Litho Press), कोरोनेशन (Coronation), और प्रीमियर (Premiere) जैसे अन्य प्रिंटिंग प्रेस यहां पर स्थापित हुए। इन्होने तमिल और मलयालम फिल्मों के व्यापार लेबल (Business Labels) और कभी-कभी फिल्म पोस्टर भी प्रिंट किये। इन्हें डिजाइन करने के लिए ज्यादातर कलाकार बंबई, कलकत्ता और मद्रास के प्रमुख केंद्रों से आते थे।
आजादी के बाद, छपाई केंद्रों (Printing Press) ने ऑफसेट मशीनों का अधिग्रहण करना शुरू किया। ज्यादातर केंद्रों द्वारासेकंड-हैंड मशीनों (Second-hand Machines) को पूर्वी जर्मनी से खरीदा गया। 1960 के दशक के मध्य तक, शिवकाशी के रंग मुद्रण उद्योग ने अपनी उत्पादन लागत को इस हद तक अनुकूलित कर लिया था कि यह बॉम्बे (अब मुंबई), दिल्ली, कलकत्ता (अब कोलकाता), और मद्रास (अब चेन्नई) जैसे प्रमुख महानगरीय केंद्रों में स्थानीय प्रेस के साथ प्रतिस्पर्धा करने लगी। शिवकाशी मुद्रण उद्योग द्वारा हासिल की गई प्रगति, कामगारों या कलाकारों की लागत में पर्याप्त कमी, काफी हद तक कुशल कर्मियों के कम वेतन और 'अनुषंगीकरण' की विकेंद्रीकृत प्रणाली को अपनाने के कारण विकसित हुई है। हालांकि, माचिस और आतिशबाजी उद्योगों के कारण इसे सरलता, आत्मनिर्भरता और उपयोग में मितव्ययिता द्वारा भी सहायता मिली है। शिवकाशी ने मैन्युअल और यांत्रिक प्रक्रियाओं के अपने इष्टतम मिश्रण तथा स्थानीय रूप से निर्मित और आयातित सामग्रियों के माध्यम से भी काफी बचत की है।
स्वतंत्रता के बाद के तीन दशक, 1960 के दशक के मध्य से 1990 के दशक के मध्य तक, शिवकाशी कैलेंडर उद्योग का प्रमुख केंद्र बना रहा, जिसमें चित्र प्रकाशक और राष्ट्रव्यापी कैलेंडर निर्माताओं ने देश के सबसे दक्षिणी छोर पर कैलेंडर प्रिंटिंग के लिए इसे अपने अनुकूल पाया। 2001 से, शिवकाशी में अधिकांश प्रिंटिंग कंपनियां अपने कार्यों का उन्नयन कर रही थीं और पुस्तकों, अधिक अपमार्केट स्टेशनरी (Upmarket Stationery) और पैकेजिंग कार्टन (Packaging Carton) जैसे क्षेत्रों में विविधता ला रही थीं। इसके अलावा कुछ कंपनियां तो पूरी तरह से प्रिंटिंग से बाहर निकलने पर विचार कर रही थीं।
माचिस और आतिशबाज़ी के बाद, एक उद्योग के रूप में छपाई, शिवकाशी मेंसर्वाधिक रूप से फली-फूली, जहाँ प्रारंभ में, बक्सों के लिए लेबल की छपाई की जाती थी। बाद में, उन्नत मशीनरी और प्रौद्योगिकियों को लाने वाले उद्यमियों के साथ, यह शहर पाठ्यपुस्तकों, डायरी और कैलेंडर सहित सभी प्रकार के मुद्रण कार्यों को संभालने में विकसित हुआ।
लेकिन शिवकाशी के सबसे बड़े प्रिंटरों में से एक, लवली कार्ड्स (Lovely Cards) के के. सेल्वाकुमार (K.Selvakumar) के अनुसार "शिवकाशी में अब मुद्रण कार्य पहले जैसा नहीं रहा। यहां पर बिजली संकट के कारण उत्पादन लागत बढ़ रही है और कई छोटे और मध्यम खिलाड़ियों को लागत का सामना करना बहुत मुश्किल लगता है।” सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन 1990 के दशक में कंप्यूटर आधारित मुद्रण तकनीकों के आगमन के साथ हुआ है। प्रिंटरों द्वारा झेली जाने वाली एक अन्य गंभीर बाधा, मिलों से कागज की आपूर्ति में आई कमी और लागत में हुई वृद्धि भी है। मास्टर प्रिंटर्स एसोसिएशन (Master Printers Association) के अध्यक्ष ए. राजन (A. Rajan) के अनुसार “मिलों से कागज की आपूर्ति अत्यधिक अनियमित है और मिल मालिकों द्वारा कागज की कीमत तय करने के कारण लागत भी बढ़ती जा रही है।” पहले उत्पादन उन मजदूरों के कलात्मक कौशल पर निर्भर करता था, जो प्लेट बनाने के लिए हाथ से चित्र बनाते थे। उस दौरान शिवकाशी में 1,000 से अधिक ऐसे उत्कृष्ट कलाकार थे, जिनकी मांग हमेशा रहती थी। लेकिन जब रंग पृथक्करण में कंप्यूटर आधारित तकनीकों को अपनाया जाने लगा, तो इन कलाकारों की पूरी जमात ही गायब हो गई। केवल ऐसे कलाकार, जो प्रौद्योगिकियों का सामना करने में सक्षम थे, बच गए, लेकिन धीरे धीरे उनमें से अधिकांश भी समय के साथ गायब हो गए। कंप्यूटर आने के बाद सब कुछ बदल गया।
संदर्भ
https://bit.ly/3W6rFAb
https://bit.ly/3YuGu1g
चित्र संदर्भ
1. कैलेंडर प्रिंटिंग मशीन को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
2. तमिल नाडु राज्य के विरुदुनगर ज़िले में स्थित “शिवकाशी” को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. शिवकाशी कैलेंडर प्रिंटिंग को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
4 .शिवकाशी रेलवे स्टेशन को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. ऑफसेट प्रिंटिंग को दर्शाता एक चित्रण (maxpixel)
6. आतिशबाजी के काम को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
7. भद्रकाली अम्मन मंदिर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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