भारत में विलुप्त होती सपेरा संस्कृति

लखनऊ

 28-10-2022 09:21 AM
रेंगने वाले जीव

भारत में सपेरों द्वारा सांप से जुड़े मनोरंजक कार्यक्रमों को दिखाने की एक लंबी परंपरा रही है। वास्तव में यह एक जोखिम भरा काम होता है और इसमें सपेरे तथा सांप दोनों की जान को खतरा होता है। किंतु आधुनिक प्रोद्योगिकी और सरकारी प्रतिबंधों के कारण देशभर में सपेरों की प्राचीन कला लुप्त होती जा रही है।
देश के सभी हिस्सों में सपेरा जाति के लोग रहते हैं। भारत में सपेरों ने लोक संस्कृति को न केवल पूरे देश में फैलाया, बल्कि विदेशों में भी भारतीय संस्कृति के रंगों का भी विस्तार किया है। सपेरों द्वारा बजाई जाने वाली डफली, तुंबा और बीन की मधुर तान किसी को भी आकर्षित कर सकती है। सपेरा होना बीन या पुंगी नामक वाद्य यंत्र को बजाकर एक सांप (अक्सर एक कोबरा) को सम्मोहित करने का अभ्यास है। इसके विशिष्ट प्रदर्शन में सांपों को संभालना या खतरनाक प्रतीत होने वाले कार्यों में साँपों से करतब कराना और हाथ की सफाई दिखाना शामिल हो सकता हैं। साँप प्रदर्शन की यह प्रथा ऐतिहासिक रूप से 20वीं शताब्दी में भारत में कुछ आदिवासियों का प्रमुख व्यवसाय रही है, लेकिन 1972 में सरकार द्वारा इस प्रथा पर प्रतिबंध लगाने के बाद सपेरों की संख्या में तेजी से गिरावट आई। सांपों के बाहरी कान नहीं होते हैं, लेकिन वे कम आवृत्ति की गड़गड़ाहट भी अनुभव कर सकते हैं। इसीलए जब वे अपने लिए किसी खतरनाक चीज को देखते हैं, तो रक्षात्मक मुद्रा में उठ जाते हैं। सांप को बांसुरी या 'पुंगी' से आकर्षित करने का कार्य गलत तथ्यों पर आधारित है, क्योंकि वास्तव में सांपों के कान नहीं होते हैं और इसलिए वे बजने वाले संगीत को नहीं सुन सकते हैं। वास्तव में सांप सपेरे की बीन को अपने लिए एक खतरा मानते हुए बीन की गति का अनुसरण करता हैं और इसके साथ झूलता है। इसलिए इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
हालांकि सापों से जुड़े आकर्षक प्रदर्शन अन्य एशियाई देशों जैसे कि पाकिस्तान , बांग्लादेश , श्रीलंका , थाईलैंड और मलेशिया में अभी भी किये जाते हैं। साथ ही यह परंपरा मिस्र , मोरक्को और ट्यूनीशिया के उत्तरी अफ्रीकी देशों में भी प्रचलित है। प्राचीन मिस्र में सांपों का प्रदर्शन एक प्रमुख आकर्षण माना जाता था, और यह प्रथा वहां आज भी मौजूद है। संभवतः भारत में उत्पन हुई यह प्रथा अंततः पूरे दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में फैल गई। आज भारत में सर्प प्रदर्शन लगभग विलुप्त हो चुका है। कई सपेरे त्योहारों के दौरान कस्बों और गांवों का दौरा करते हुए भटकते रहते हैं। हिंदू धर्म ने लंबे समय से नागों को पवित्र माना है। माना जाता है कि जानवरों को नागाओं से संबंधित माना जाता है, और कई देवताओं को कोबरा के संरक्षण में भी चित्रित किया गया है। प्राचीन समय में सपेरों को पारंपरिक उपचारक माना जाता था। अपने प्रशिक्षण के दौरान , उन्होंने सांप के काटने का इलाज करना सीखा। कई लोगों ने सांपों को संभालना भी सीखा और लोगों ने उन्हें अपने घरों से सांपों को निकालने के लिए बुलाना भी शुरू किया।
20वीं सदी की शुरुआत सपेरों के लिए स्वर्ण युग साबित हुई। सरकार ने पर्यटन को आकर्षित करने के लिए इस अभ्यास को बढ़ावा दिया। इस दौरान सपेरों को अक्सर सांस्कृतिक उत्सवों तथा निजी संरक्षकों के प्रदर्शन के लिए विदेशों में भी भेजा जाता था। लेकिन वन्यजीव संरक्षण अधिनियम में बदलाव के बाद यह प्रथा अब कानूनी नहीं रही है। कानून मूल रूप से 1972 में पारित किया गया था, और सांप की खाल के निर्यात को रोकने के उद्देश्य से, सांपों को रखने या बेचने पर सात साल की जेल की सजा का प्रावधान किया गया था। 1990 के दशक के अंत में, यह कानून सपेरों पर भी लागू कर दिया गया था। हाल ही में दिल्ली स्थित एनजीओ वाइल्डलाइफ एसओएस (Wildlife SOS) और उत्तर प्रदेश वन विभाग द्वारा एक दिन के अवैध शिकार विरोधी अभियान में, सपेरों से 34 सांप भी बरामद किए गए थे। वह सपेरे भगवान शिव के मंदिरों के बाहर सांपों को प्रदर्शित करके लोगों की भक्ति का लाभ उठाते थे। इस क्रूर और अवैध अभ्यास से इस साल कुल 111 सांपों को बचाया गया है। इसके अलावा अन्य अभियानों में बल्केश्वर, मनकामेश्वर, राजेश्वर, पृथ्वीनाथ और रावली मंदिरों के बाहर बैठे सपेरों से कुल 34 सांपों को जब्त किया गया। लगभग 33 डिग्री सेल्सियस की गर्मी के बीच सभी सांप गंभीर निर्जलीकरण और थकावट से पीड़ित थे। इस अमानवीय और बेतुकी प्रथा से कुल मिलाकर 30 कोबरा और चार रैट स्नेक (Rat snake) बरामद किए गए। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने भारत को वैश्विक अंधकार के बीच एक चमकता सितारा करार दिया है। लेकिन एक स्पेनिश अखबार ला वैनगार्डिया (La Vanguardia) ने भारत की अर्थव्यवस्था को चित्रित करने के लिए "भारतीय अर्थव्यवस्था का समय" शीर्षक के साथ एक सपेरे के व्यंग-चित्र का प्रयोग किया। व्यंग-चित्र को इसके कवर पेज पर छापा गया था, जिसमें मंदी और उच्च मुद्रास्फीति के समय भारत के आर्थिक विकास का विश्लेषण किया गया था। ट्विटर और लिंक्डइन (Twitter and LinkedIn) उपयोगकर्ता पश्चिमी मीडिया के व्यवहार को अनुचित मान रहे हैं। कई उपयोगकर्ताओं ने कहा कि व्यंग-चित्र में "नस्लवादी स्वर" था, क्योंकि यह अभी भी भारत को सपेरों की भूमि के रूप में चित्रित करता है, जो की औपनिवेशिक काल की एक रूढ़िबद्ध धारणा थी, जब भारत को जादू और रहस्य से परिपूर्ण विदेशीता के स्थान के रूप में देखा जाता था।

संदर्भ

https://bit.ly/3eZjUMa
https://bit.ly/3D2J2JQ
https://bit.ly/3TsJVm3
https://bit.ly/3D2Jhoe

चित्र संदर्भ
1. सपेरे और सांप को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. किंग कोबरा सांप को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. औपनिवेशक काल में पुणे,महाराष्ट्र के एक सपेरे को दर्शाता एक चित्रण (Look and Learn)
4. सांप की त्वचा की बनावट को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. साँपों के झुण्ड को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. भारत की अर्थव्यवस्था को चित्रित करने के लिए "भारतीय अर्थव्यवस्था का समय" शीर्षक के साथ एक सपेरे के व्यंग-चित्र को दर्शाता एक चित्रण (twitter)



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