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मनुष्य लगभग 2.6 मिलियन वर्षों पूर्व से पत्थर के औजारों का प्रयोग कर रहे है, लेकिन लगभग
400,000 साल पहले ही हमारे पूर्वजों ने पत्थर के औजार के निर्माण में क्रांतिकारी सुधार करना
प्रारंभ किये। दरसल अब उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों के भद्दे औजारों के स्थान पर, छोटे, तेज और
अति धारदार उपकरण बनाना शुरू कर दिया। पत्थर को तराशने की इस शैली को उन्होंने नाम
दिया "लेवलोइस तकनीक (levellois technique)"
इस तकनीक का नाम पेरिस के एक उपनगर के नाम पर रखा गया था, जहां इस तरह से बनाए गए
उपकरण पहली बार खोजे गए थे। विद्वानों द्वारा लेवलोइस तकनीक का उद्भव अफ्रीका में मध्य
पाषाण युग तथा यूरोप और पश्चिमी एशिया में मध्य पुरापाषाण युग के बीच माना जाता है।
शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि लेवलोइस तकनीक लगभग 125, 000 साल पहले विविध
भौगोलिक क्षेत्रों में तब फैली, जब मनुष्य ने अफ्रीका से दूर- दराज क्षेत्रों में फैलना शुरू कर दिया था।
लेकिन एक नए अध्ययन के तहत भारत में 385,000 साल पहले के लेवलोइस औजार के प्रयोग
का दस्तावेज मिलता है, जो इस प्राचीन तकनीक के इतिहास पर जटिल प्रश्न उठाते हैं। शर्मा सेंटर
फॉर हेरिटेज एजुकेशन (Sharma Center for Heritage Education) के पुरातत्वविदों ने
दक्षिणी भारत के एक पुरातात्विक स्थल अत्तिरम्पक्कम से, पत्थर के औजारों के एक संग्रह का
विश्लेषण किया। साइट पर पाई जाने वाली सबसे पुरानी कलाकृतियां 1.5 मिलियन वर्ष पुरानी हैं,
और यह प्रारंभिक पाषाण युग से जुड़ी एच्यूलियन शैलियों (Acheulean styles) में बनाई गई थीं।
लेकिन यहां पुरातत्वविदों ने 7,000 से अधिक अन्य उपकरण भी खोजे हैं और नेचर जर्नल
(Nature Journal) में प्रकाशित एक नए पेपर के अनुसार यह उपकरण “लेवलोइस तकनीक” से
बनाए गए थे। साथ ही ल्यूमिनेसेंस डेटिंग (luminescence dating) का उपयोग करते हुए,
शोधकर्ताओं ने यह भी बताया कि लेवलोइस उपकरण, 385,000 और 172,000 साल पहले के बीच
के थे। यदि उनका विश्लेषण सही साबित होता है, तो भारत में पाए जाने वाले औजार अन्य मध्य
पुरापाषाण काल के औजारों की तुलना में 200,000 वर्ष से अधिक पुराने हैं।
शर्मा सेंटर फॉर हेरिटेज एजुकेशन के पुरातत्वविद् और नए अध्ययन के प्रमुख लेखकों में से एक,
शांति पप्पू के अनुसार "इस एक साइट में विभिन्न प्रागैतिहासिक संस्कृतियों के कब्जे का एक
बहुत लंबा इतिहास है।" साइट से सबसे पुरानी कलाकृतियां (1.5 मिलियन साल पहले की) बड़े हाथ
की कुल्हाड़ी और क्लीवर (axe and cleaver) भी प्राप्त हो चुकी हैं जो, प्रारंभिक पाषाण युग की
पुरानी एच्यूलियन संस्कृति से जुड़ी हैं। हालांकि पहले "ऐसा माना जाता था कि यह विशेष
सांस्कृतिक या व्यवहार शायद 125,000 साल पहले भारत में तब आया था, जब आधुनिक मानव
अफ्रीका से बाहर निकल रहे थे।" लेकिन "इस पेपर के निष्कर्ष ने स्पष्ट रूप से उन विचारों को
चुनौती दे दी है! "
पुरातत्व विज्ञानी माइकल पेट्राग्लिया (Michael Petraglia) के अनुसार "यह एक अद्भुत खोज है,
और "यह 400,000 से 175, 000 साल पहले के बीच दक्षिण एशिया में मनुष्यों के सांस्कृतिक
इतिहास के हमारे ज्ञान में एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंतर को भरता है।"
हालांकि भारत में टीम को साइट पर कोई मानव या होमिनिड जीवाश्म (hominid fossil) नहीं
मिला, जिससे यह जानना मुश्किल हो जाता है कि यहां कौन सी पुश्तैनी मानव प्रजातियां रहती थीं
जिन्होंने इन उपकरणों को बनाया था। शोधकर्ताओं का कहना है कि आधुनिक मानव के इस क्षेत्र में
आने से पहले ही पत्थर उपकरण प्रौद्योगिकी का आविष्कार स्वदेशी रूप से कर दिया गया था।
एमएसयू के पुरातत्व और प्राचीन इतिहास विभाग में सहायक प्रोफेसर अनिल कुमार के अनुसार
पत्थर के औजार जैसे पॉइंट, स्क्रेपर्स, नॉच, फ्लेक्स (Points, Scrapers, Notch, Flex) आदि जो
शायद शिकार और भोजन इकट्ठा करने के लिए इस्तेमाल किए जाते थे, आधुनिक मानव के
अफ्रीका से भारत में आने से पहले भी भारतीय क्षेत्र में मौजूद थे।" अतः अब हम कह सकते हैं कि
1.22 लाख साल पहले मध्य पुरापाषाण संस्कृति भारत में भी मौजूद थी।"
स्वीडन (Sweden में जन्मे वैज्ञानिक स्वांते पाबो (Svante Pääbo) को हाल ही में फिजियोलॉजी
या मेडिसिन (physiology or medicine) में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिन्होंने
40,000 साल पुरानी हड्डियों से डीएनए निकालने की कोशिश में दशकों अनुसंधान किये। उनके
जीनोम के प्रकाशन ने जीवाश्म विज्ञान के कई सवालों की जांच के लिए दरवाजा खोल दिया, जैसे
जो निएंडरथल जीवाश्म (Neanderthal Fossils) पहली बार 1856 में एक जर्मन खदान में पाए
गए थे: वे शुरुआती इंसान आधुनिक लोगों से कैसे संबंधित थे, और किस चीज ने उन्हें अलग
बनाया?
पाबो ने डीएनए अनुक्रमण के लिए नवीनतम तकनीक का इस्तेमाल किया। उन्होंने स्वच्छता के
लिए उच्च मानकों वाली प्रयोगशालाएं डिजाइन कीं जो संदूषण से नमूनों की रक्षा करती हैं।
“निश्चित रूप से 40,000 साल पुरानी हड्डियों से डीएनए को पुनर्प्राप्त करना असंभव माना जाता
था।" पाबो को निएंडरथल जीनोम का वर्णन करने में कुछ तीन दशकों का शोध और समय लगा।
उन्होंने प्राचीन मनुष्यों पर अपना ध्यान केंद्रित करने से पहले, विलुप्त गुफा भालू , ममियों और
प्राचीन जानवरों में भी डीएनए की तलाश की।
सन्दर्भ
https://n.pr/3eeAO94
https://bit.ly/3eeAOWC
https://bit.ly/3CHDdTj
चित्र संदर्भ
1. लेवलोइस तकनीक से निर्मित औजारों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. फ्लिंट-नैपिंग की लेवलोइस तकनीक को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. दक्षिणी भारत के एक पुरातात्विक स्थल अत्तिरम्पक्कम से, पत्थर के औजारों के एक संग्रह को दर्शाता एक चित्रण (downtoearth)
4. फ्लिंट स्टोन कोर से पॉइंट्स एंड स्पीयरहेड्स का उत्पादन, लेवलोइस तकनीक, मौस्टरियन कल्चर, ताबुन केव, इज़राइल को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. स्वीडन (Sweden में जन्मे वैज्ञानिक स्वांते पाबो को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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