City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Total | ||
2279 | 16 | 2295 |
***Scroll down to the bottom of the page for above post viewership metric definitions
उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप की ग्रीको-बौद्ध कला या गांधार कला, बौद्ध धर्म की कलात्मक
अभिव्यक्ति का एक जरिया है, जो प्राचीन ग्रीक कला और बौद्ध धर्म के बीच एक सांस्कृतिक
समन्वय है। सिकंदर महान के साथ विश्व विजय पर निकली यूनानी सेना अपने साथ अपनी
कला एवं संस्कृति को भी ले गयी थी, जिसका प्रभाव विश्वभर की कला एवं संस्कृति पर
पड़ा। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से प्रथम शताब्दी ईस्वी के मध्य यूनानी आक्रमण के पश्चात्
यूनानी हेलेनिस्टिक (Hellenistic) कला भारत में पहुँची। सिकंदर के समय के दौरान, यूनानी
कला, साहित्य, दर्शन और विज्ञान का क्षेत्र गौरव के शिखर पर पहुंच गया था।
यूनानी भारतीय संस्कृति की समृद्धि से भी अवगत थे। जब ये दोनों सांस्कृतिक रूप से समृद्ध
देश एक-दूसरे के करीब आए तो एक सांस्कृतिक संश्लेषण उभरा, जिसके शानदार परिणाम सभी
क्षेत्रों में महसूस किए गए, खासकर के गंधार कला के क्षेत्र में। गंधार शैली में भारतीय विषयों
को यूनानी ढंग से व्यक्त किया गया है। इस पर रोमन कला का भी प्रभाव स्पष्ट है। इसका
विषय केवल बौद्ध है, और इसी कारण इस कला को कई बार यूनानी-बौद्ध (ग्रीको-बुद्धिस्ट
(Greco-Buddhist)), इंडो –ग्रीक अथवा ग्रीको-रोमन (यूनानी-रोमीय) कला भी कहा जाता है। इस
शैली की मूर्तियाँ पूर्वी अफगानिस्तान तथा उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान के अनेक स्थलों से मिलती
हैं, जोकि पहली शताब्दी ईसा पूर्व और 7 वीं शताब्दी ईस्वी के बीच विकसित हुई। इसका प्रमुख
केन्द्र गंधार ही था, और इसी कारण यह गंधार कला के नाम से ही ज्यादा लोक प्रिय हुई।
उसके बाद मौर्य सम्राट अशोक ने इस क्षेत्र को बौद्ध धर्म की तरफ मोड़ दिया।
बौद्ध धर्म
भारत-ग्रीक साम्राज्यों में प्रमुख धर्म बन गया। गंधार कला के अंतर्गत बुद्ध एवं बोधिसत्वों की
बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण हुआ। कुषाण तथा जैन धर्मों से संबंधित मूर्तियां इस कला में
प्रायः नहीं मिलती। हालांकि, ग्रीको-बौद्ध कला वास्तव में कुषाण साम्राज्य के तहत फली-फूली
और फैल गई, जब बुद्ध की पहली जीवित छवियों को पहली-तीसरी शताब्दी ईस्वी के दौरान
बनाया गया था। गांधार कला तीसरी-पांचवीं शताब्दी ईस्वी से अपने चरम पर पहुंच गई, जब
अधिकांश जीवित रूपांकनों और कलाकृतियों का निर्माण किया गया था। यह शैली मथुरा (उत्तर
प्रदेश, भारत) में कुषाण कला के साथ समकालीन थी। भारतीय सम्राट अशोक (तीसरी शताब्दी
ईसा पूर्व) के शासनकाल के दौरान, यह क्षेत्र गहन बौद्ध मिशनरी गतिविधि का दृश्य बन गया
था। पहली शताब्दी ईस्वी में, कुषाण साम्राज्य के शासकों (जिसमें गांधार शामिल थे) ने रोम के
साथ संपर्क बनाए रखा। बौद्ध किंवदंतियों की व्याख्या करने के लिए इस शैली का उपयोग
किया, जिसमें शास्त्रीय रोमन कला से कई रूपांकनों और तकनीकों को शामिल किया, जिसमें
वाइन स्क्रॉल (vine scrolls), माला वाले छेरूब (cherubs), ट्राइटन और सेंटॉर (tritons, and
centaurs) शामिल हैं। हालाँकि, मूल प्रतिमा भारतीय शैली की बनी रही।
अशोक महान के शासनकाल के दौरान मौर्य साम्राज्य के तहत बौद्ध कला पहली बार स्पष्ट और
व्यापक हुई, अशोक के स्तंभों सहित स्तूपों जैसे सांची और भरहुत स्तूप, जिनका निर्माण पहली
बार मौर्य युग के दौरान किया गया था, उनमें इस कला की झलक को साफ देखा जा सकता है।
मौर्य कला सहित प्रारंभिक बौद्ध कला, धर्मों से संबंधित विभिन्न संरचनाओं और प्रतीकों को
दर्शाती है जो आज भी उपयोग किये जाते हैं। धर्मचक्र, कमल और बोधि वृक्ष जैसे प्रतीक बौद्ध
धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाले सामान्य प्रतीक बन गए हैं। इसके अतिरिक्त, इन बौद्ध
कलाकृतियों में कुबेर और आकाशीय देव और असुर सहित विभिन्न पौराणिक देवताओं को
शामिल किया गया था।
मूर्तियाँ का लेस्लेटीपाषाण, चूने, हरी फ़िलाइट और ग्रे-नीली अभ्रक शिस्ट (green phyllite and
gray-blue mica schist) तथा पकी मिट्टी से बनी थी, जिनका उपयोग तीसरी शताब्दी ईस्वी
के बाद तेजी से किया गया था। मूर्तियों पर मूल रूप से सोने का पानी चढ़ा हुआ था। इन
मूर्तियों के साथ ही साथ बुद्ध के जीवन तथा पूर्व जन्मों से संबंधित विविध घटनाओं के दृश्यों
जैसे – माया का स्वप्र, उनका गर्भ धारण करना, बुद्ध का जन्म, सिद्धार्थ का बोधिसत्व रूप,
पाठशाला में बोधिसत्व की शिक्षा, यशोधरा से विवाह, देवताओं द्वारा संसार त्याग हेतु सिद्धार्थ
से प्रार्थना, सिद्धार्थ का कपिलवस्तु छोडना, बुद्ध के दर्शन हेतु मगध राज बिम्बिसार का जाना
सहित कई हृश्यों का अंकन इस शैली में किया गया है। यह स्पष्ट है कि गांधार और मथुरा के
स्कूलों ने स्वतंत्र रूप से पहली शताब्दी ईस्वी में बुद्ध के विशिष्ट चित्रण को अंकन किया।
गांधार स्कूल ने रोमन धर्म की मानवरूपी परंपराओं पर ध्यान केंद्रित किया, इन मूर्तियों में
मानव शरीर के यथार्थ चित्रण की ओर विशेष ध्यान दिया गया है। मांसपेशियों , लहरदार बालों
का अत्यंत सूक्ष्म ढंग से प्रदर्शन हुआ। बुद्ध की वेश-भूषा यूनानी थी, प्रभामंडल सादा तथा
अलंकरण रहित है और शरीर से अत्यंत सटे अंग-प्रत्यंग दिखाने वाले झीने वस्रों का अंकन हुआ
है। ये सभी मूर्तियां यूनानी देवता अपोलो (Apollo) की नकल प्रतीत होती हैं। ऐसा माना जाता
है कि इसने गौतम बुद्ध के मानव रूप का प्रतिनिधित्व पहली बार किया। विशाल मूर्तिकला में
मानव रूप के प्रतिनिधित्व का भारत के बाकी हिस्सों में काफी प्रभाव पड़ा साथ ही साथ इसने
जापान (Japan) तक में अपना प्रभाव डाला। इस शैली के शिल्पियों द्वारा वास्तविकता पर कम
ध्यान देते हुए बाह्य सौन्दर्य को मूर्तरूप देने का प्रयास किया गया। इस शैली में उच्चकोटि की
नक्काशी का प्रयोग करते हुए प्रेम, करुणा, वात्सल्य आदि विभिन्न भावनाओं एवं अलंकारिता का
सुन्दर सम्मिश्रण प्रस्तुत किया गया है। इस शैली में आभूषण का प्रदर्शन अधिक किया गया है।
इसमें सिर के बाल पीछे की ओर मोड़ कर एक जूड़ा बना दिया गया है जिससे मूर्तियाँ भव्य एवं
सजीव लगती है।शैलीगत रूप से, ग्रीको-बौद्ध कला अत्यंत सूक्ष्म और यथार्थवादी होने के साथ
शुरू हुई, इसके बाद इसने इस परिष्कृत यथार्थवाद को खो दिया और उत्तरोत्तर अधिक
प्रतीकात्मक और सजावटी बन गया। जल्द ही, बुद्ध की आकृति को वास्तुशिल्प डिजाइनों (जैसे
कि कोरिंथियन स्तंभ और फ्रिज़ (Corinthian pillars and friezes)) में शामिल किया गया।
बुद्ध के जीवन के दृश्यों को आमतौर पर ग्रीक स्थापत्य वातावरण में चित्रित किया गया है,
जिसमें नायक ग्रीक कपड़े पहने हुए हैं।
संदर्भ:
https://bit.ly/3OjnHiR
https://bit.ly/3yWhggf
चित्र संदर्भ
1. गांधार बोधिसत्व को दर्शाता एक चित्रण (World History Encyclopedia)
2. हेलेनिस्टिक डेल्फी V को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. अशोक स्तंभ सांची स्तूप को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. बुद्ध-वज्रपानी-हेराक्लीज़ को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.