भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research, ICAR) के
अनुसार, इंदौर अनुसंधान केंद्र (Indore Research Center) स्थापित किया गया था, जहां संयंत्र
उद्योग संस्थान (Institute of Plant Industry, IPI) मौजूद था। 1920 के दशक में इंदौर के
महाराज द्वारा कपास का अध्ययन करने के लिए आईपीआई (IPI) की स्थापना करवाई गई थी।
लेकिन ऐसी मान्यता है, कि यह एक ब्रिटिश (British) कृषि वैज्ञानिक अल्बर्ट हॉवर्ड (Albert
Howard) को शोध की स्थिति प्रदान करने का एक तरीका है, जो पहली बार 1905 में पूसा
(Pusa) में शाही आर्थिक वनस्पतिशास्त्री के रूप में काम करने के लिए भारत आए थे। हावर्ड
आधुनिक फसलों और प्रौद्योगिकी का उपयोग करके भारतीय कृषि का विकास करते थे। भारत के
प्रति लोगों के अधिकांश दृष्टिकोण यह थे कि हमारे किसानों को विकसित होने के लिए शिक्षित होने
की आवश्यकता थी, लेकिन इस मामले में हावर्ड का दृष्टिकोण कुछ और ही था। वह एक किसान का
बेटा था, उसे कृषि क्षेत्र में अपने व्यावहारिक ज्ञान पर गर्व था। हावर्ड की पत्नी गैब्रिएल
(Gabrielle), उनके वैज्ञानिक कार्यों में एक समान भागीदार के रूप में उनके साथ थी, हावर्ड ने यह
भी सुनिश्चित किया कि उनकी सहायता करने वाले प्रत्येक भारतीय को उनका पूरा श्रेय दिया जाएगा।
अपनी इस कुशल बुद्धि की वजह से हावर्ड ने गौर किया कि रासायनिक खाद जैसी नवीनतम
तकनीकों का उपयोग न करने के बावजूद भी संस्थान के बाहर के किसानों के खेतों में फसलें अक्सर
संस्थानों के किसानों की तुलना में अधिक स्वस्थ होती है, उन्होंने उन किसानों के पारंपरिक तरीकों
और तकनीकों का अध्ययन करना शुरू कर दिया। उन्हें पता चला कि फसलों के साथ-साथ उठाए गए
जानवरों के कचरे के साथ-साथ अन्य पौधों के कचरे से भी एकमात्र उर्वरक बनता है। जिसे मिट्टी में
मिलाने से मिट्टी की उर्वरक क्षमता अधिक हो जाती है। हॉवर्ड, फफूँद (fungi) के विशेषज्ञ थे और
उन्होंने अपने इस अध्यन से पश्चात यह सिद्धांत दिया कि पारंपरिक तरीकों से तैयार की गई मिट्टी
में फफुंदियों और सूक्ष्म जीवों का पोषण होता है, जिससे कृत्रिम साधनों द्वारा बनाई गई मिट्टी की
तुलना में इन तकनीकों से बनाई गई मिट्टी का स्वास्थ्य बेहतर होता है। 1930 के दशक में इंदौर
में अल्बर्ट हावर्ड ने आईपीआई (IPI), में जैविक कृषि करने के सिद्धांत रखे।
अल्बर्ट हॉवर्ड का जन्म 8 दिसंबर 1873 में हुआ था। वे एक अंग्रेजी वनस्पतिशास्त्री के साथ-साथ
जैविक खेती आंदोलन के संस्थापक भी थे। हालांकि भारत में काम करते हुए उन्हें आम तौर पर एक
रोगविज्ञानी माना जाता था लेकिन ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि उनकी शैक्षणिक योग्यता
वनस्पति विज्ञान ही रही होगी। उन्होंने पहले मध्य भारत और राजपुताना के राज्यों में कृषि
सलाहकार के रूप में और फिर इंदौर में इंस्टीट्यूट ऑफ प्लांट इंडस्ट्री (IPI) के निदेशक के रूप में
कार्य किया और इसी तरह इन्होंने भारत में एक कृषि अन्वेषक के रूप में 25 वर्षों तक कार्य किया।
हावर्ड कृषि क्षेत्र में भारतीय तकनीकों का दस्तावेजीकरण और प्रकाशन करने वाले पहले पश्चिमी
व्यक्ति थे। हावर्ड एक शानदार विकासशील कार्यकर्ता थे। अपने व्यवसाय की शुरुआत में उन्होंने
पारंपरिक कृषि विज्ञान के प्रतिबंधों को कृषि क्षेत्र में अपनी बढ़ती रुचि के साथ त्याग दिया। वे "कम
से कम चीजों के बारे में अधिक से अधिक सीखने और जानकारी हासिल करने" में विश्वास रखते थे।
वह इस विषय को लेकर भी काफी शोध करते थे कि प्रयोगशालाओं और परीक्षण-भूखंडों में कृत्रिम रूप
से रचित स्थितियों के बजाए किसी विशेष क्षेत्र में विशिष्ट प्राकृतिक परिस्थितियों में एक स्वस्थ
फसल कैसे उगाई जाए। भारतीय किसानों और उनकी मिट्टी में मौजूद कीटों से उन्हें कई सारी बातें
सीखने को मिली। उन्होंने अपने कार्यशैली में संपूर्ण विश्व के सर्वोच्च शिक्षकों को अपनाया। वे भारत
के किसानों और प्रकृति की देन रूपी कीटों को अपना शिक्षक मानते थे। किसानों और कीटों के साथ
काफी समय बिताने के बाद, उन्होंने इन दोनों को ही अपना प्रोफेसर घोषित कर दिया। उन्होंने अपने
शोध से पाया कि जब अनुपयुक्त परिस्थितियों में सुधार किया गया तो कीट स्वयं ही फसल से चले
गए। उनकी फसलें और उनके पशुधन वस्तुतः कीटों के हमले से सुरक्षित थी। वह प्रारंभिक जैविक
आंदोलन में एक प्रमुख व्यक्ति थे। रूडोल्फ स्टेनर (Rudolf Steiner) और ईव बालफोर (Eve
Balfour) के साथ, उन्हें अंग्रेजी बोलने वाली इस आधुनिक दुनिया में कई लोगों द्वारा जैविक कृषि
की प्राचीन भारतीय तकनीकों के प्रमुख शोधकर्ताओं में से एक माना जाता है।
हॉवर्ड द्वारा आईपीआई (IPI), में जैविक कृषि करने के लिए रखे गए यह सिद्धांत जैविक खेती
आंदोलन के सिद्धांतों को निर्धारित करेंगे, लेकिन वे सिद्धांत उस समय के उनके सहयोगियों के
लिए बहुत कट्टरपंथी साबित हुए। उनकी पत्नी गैब्रिएल द्वारा लिखी गई उनकी जीवनी से हमें हॉवर्ड
के संघर्षों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है, जिसके कारण उन्हें सहयोगियों के समूह में से हटा
दिया जाता है। लेकिन हावर्ड ने महसूस किया कि उन्हें इंदौर की रियासतों द्वारा ब्रिटिश शासित प्रांतों
की तुलना में अधिक स्वतंत्रता दी गई थी। इंदौर ने उन्हें भारत छोड़े बिना अपना शोध जारी रखने
का मौका दिया। जानवरों और पौधों के कचरे के संयोजन से बनी खाद को तेजी से अपघटन करने
की विधि के रूप में खेती में इस्तेमाल किया जा सकता है। खाद बनाने की इस वैज्ञानिक प्रणाली को
हॉवर्ड ने विकसित और लोकप्रिय बनाया। इस विधि को उन्होंने इंदौर प्रक्रिया (Indore Process)
का नाम दिया। इस प्रक्रिया ने भारत के साथ-साथ विदेशों में भी ध्यान आकर्षित किया। 1935 में,
हावर्ड के सेवानिवृत्त होने के कुछ समय पश्चात ही, द टाइम्स ऑफ इंडिया (The Times of
India) में बताया कि इंदौर प्रक्रिया को पूर्वी अफ्रीका (Eastern Africa), भारत के मध्य प्रांत,
पंजाब, संयुक्त राज्य (United States) और सिंध द्वारा स्वीकार किया गया है और इस प्रक्रिया
को स्वीकारने के बाद वहां की फसलों में महत्वपूर्ण सुधार भी हुए हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने
भी इस प्रक्रिया के बारे में सुना और महसूस किया कि यह उनकी ग्रामीण प्रौद्योगिकी की अवधारणा
के अनुकूल है
। इसके पश्चात उन्होंने आईपीआई (IPI) का दौरा किया और इंदौर प्रक्रिया की जांच
की। उसी वर्ष के गणतंत्र दिवस के अवसर पर आयोजित परेड के दौरान "किसान गांधी" फ्लोट के
साथ आईसीएआर (ICAR) द्वारा इंदौर प्रक्रिया को स्वीकार किया गया था।
संदर्भ:
https://bit.ly/37WWUd8
https://bit.ly/3wEYmJq
https://bit.ly/3wwj1iS
https://bit.ly/3LtWQz8
चित्र संदर्भ
1 प्रसन्न किसानों को दर्शाता एक चित्रण (PixaHive)
2. कृषि वैज्ञानिक अल्बर्ट हॉवर्ड को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. भारतीय महिला किसान को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
4. इंदौर कम्पोस्टिंग प्रक्रिया को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
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