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1857 सिर्फ एक साल नही है यह एक युग है, यह वह साल है जब शताब्दियों से चली आ रही परतंत्रता के खिलाफ पहली आवाज़ उठी थी, यह वह साल है जब देश पहली बार अपने दोहन पर बोला था। 1857 की क्रान्ती की वज़ह जो भी हो परन्तु यह स्वर्णिम काल के रूप में देखा व पढा जायेगा, हलाँकी यह क्रान्ती देश स्तर पर ना हो सका था पर यह क्रान्ती संदेश था देश के हर कोने में बैठे हर उस व्यक्ति के लिये जो परतंत्रता को स्वीकार किये बैठा था। यह क्रान्ति किसी एक जाति धर्म द्वारा नही लड़ गया था अपितु हर धर्म व हर जाति द्वारा लड़ा गया था। यह वह क्रान्ती थी जिसने ईस्ट इंडिया कम्पनी की नींव को उखाड़ फेका। मेरठ, कानपुर, दिल्ली, लखनऊ आदि इस क्रान्ति के केंद्र थे। मुगल शासक बहादुरशाह जफर से लेकर अवध की रानी हजरत महल तक और सिपाही मंगल पांडे से लेकर झाँसी की रानी तक सभी ने इस स्वतंत्रता के युद्ध को परम पराकाष्ठा पर ले जाकर लड़े। इस क्रान्ति में देश के लिये कितने ही धरतीपुत्र बली की वेदी पर चढ गयें। नरसंहार इतना हुआ की बुलंदशहर के एक चौराहे का नाम ही कत्ले आम पड़ गया, रेजीडेंसी व अन्य स्थानों पर आज भी गोलियों के निशान उस संहार को बयाँ करते हैं। बहादुर शाह जफर के बच्चों की हत्या से लेकर उसके काले पानी कि सज़ा तक लक्ष्मी बाई के बलिदान से लेकर बेगम हज़रत महल के देश छोड़ने तक इस क्रान्ती ने बहुत कुछ देखा है। अखिलेश मिश्रा ने अपनी पुस्तक 1857 अवध का मुक्तिसंग्राम में लखनऊ के क्रान्ति का अत्यन्त विशद व हृदय विदारक विवरण प्रस्तुत किया है- 30 मई को रात नौ बजे ही विद्रोह होगा- उससे एक मिनट भी पहले नहीं। तब तक अंग्रेज रेजिडेंट और अफसरों का हर हुक्म माना जायेगा। वफादारी का पूरा-पूरा सुबूत दिया जायेगा। 12 मई को सर हेनरी लॉरेंस ने लखनऊवासियों की एक सभा में तकरीर की, विद्रोहियों के मन में काफी विषमन किया पर किसी ने चूं न की। अनुशासन के प्रति यह आस्था मौलवी अहमदुल्लाह शाह ने बच्चे-बच्चे के दिल में उतार दी थी। लखनऊ शान्त प्रतीत दिख रहा था जिससे दिल्ली, मेरठ आदि स्थानों पर आश्चर्य था कि आखिर लखनऊ भाग लेगा की नहीं इस मुक्तिसंग्राम में पर 30 मई वह दिन था जब नाना साहब और मौलवी साहब के दौरों ने करामात दिखाया और मंदिर से लेकर मस्जिदों तक सभायें हुई और सभी लोगों नें दिवारों में छेद बनाकर बंदूके तान ली और जैसे ही इसारा हुआ 71 नम्बर पल्टन की सारी बंदूके एक साथ दग उठीं। यह मुस्तैद रहने का सिग्नल था। उस वक्त जो भी अंग्रेज जहाँ मिला मौत के घाट उतार दिया गया। रेजीडेंसी से सम्बन्धित सारे तार काट दिये गये। 71 नम्बर पल्टन जो की मानो महाकाल बने अंग्रेजों का संहार कर रही थी का दमन करने के लिये लॉरेंस ने 7 नम्बर हिन्दुस्तानी घुड़सवार पल्टन को लेकर रवाना हुये। पर ज्योंही पल्टन छतरमंजिल के सामने पहुंची-बाईं ओर यूनियन जैक अकस्मात मानो जादू से उड़ गया और उसकी जगह सुनहले तारों से कढा हुआ हरा झंडा फहराने लगा। सैनिकों ने नारा लगाया- सम्राट बहादुर शाह की जय। लॉरेंस अपनी जान बचाते हुये भागा। यह झंडा अवध की राजधानी पर नहीं लहराया था अपितु यह भारत के सर्वोत्तम ऊँची शिखर पर लहराया था जिसने और लोगों को इस क्रान्ति में आने का प्रेरणाश्रोत था। अंग्रेजों ने कुटिलता से अवध को एक स्वतंत्र राज का झांसा दिया और वाजिद अली शाह के नाबालिग पुत्र बिरजीस कद्र को वजीर बनाया और बेगम हजरत महल को संरछिका के रूप में राजभार दिया। उत्तर भारत के कई स्थान इस क्रान्ती के दौरान अंग्रेजी शासन से स्वतंत्र हो चुके थे। नाना साहब की सेना ने कानपुर से भी अंग्रेजी सेना को दुम दबा कर भागने पर मजबूर कर दिया था। क्रान्तिकारियों द्वारा किये गये इस कृत्य से अंग्रेजों को रेजीडेन्सी के अलांवा कहीं और पैर रखने की भी जगह ना थी। उनकी इस स्थिति का पता हैवलॉक के कलकत्ता भेजे गये पत्र में दिखाई देता है जहाँ उसने लिखा है कि यदि अंग्रेजी शासन जल्द फौज ना भेजा तो लखनऊ क्या कानपुर भी हाँथ से निकल जायेगा और हमे इलाहाबाद लौट जाना पड़ेगा। युद्ध विकराल मोड़ ले रहा था 23 सितम्बर को पहले से कहीं बड़ी संख्या में अंग्रेज सेना सिख सैनिकों को साथ लेकर आलमबाग पहुंची। तीन दिन घमासान युद्ध हुआ। पता चला की तात्या टोपे की सेना ने कानपुर को घेर लिया यह सुनकर अंग्रेज सेना कानपुर चली गयी। लखनऊ में विद्रोहियों का नेतृत्व मौलवी अहमदुल्लाह शाह, रायबरेली के राणा वेणीमाधव, गोंडा के राजा देवीबख्श सिंह कर रहे थे। मौलवी का सैन्य संचालन और राजा बालकृष्ण राव (स्वतंत्र सरकार के वित्तमंत्री) का शासन प्रबन्ध आज तक प्रसिद्ध है। कम्पनी की सेवा के लिये नेपाल से सेना ने लखनऊ की तरफ कूँच किया परन्तु उसे कई कठिनायियों का सामना करना पड़ा अंतोगत्वा नेपाली सेना 11 मार्च को लखनऊ में पहुंची यहाँ मौलवी से उनका भीषण युद्ध हुआ। भारतीय सेना द्वारा मार खाने की वजह से उधर हेनरी लॉरेंस की 4 जुलाई को मृत्यु हो गयी। इसी बीच हडसन जो की बहादुर शाह के बच्चो का रक्त बहाया था अपनी सेना के साथ लखनऊ पहँचा। सम्पूर्ण भारत में विद्रोह सान्त हो चुका था। सभी तरफ से अंग्रेजी व सिख सेना लखनऊ की तरफ कूंच की थी यह वह दौर था जब बेगम हजरत महल घोड़े पर सवार हो अंग्रेजों व उनके सेनाओं पर अपनी तलवार चला रही थी। बेगम हजरत महल इस क्रान्ति की नवनिर्वाचित नेत्री बन गयी थीं। बेगम के इस रूप को देखकर लखनऊ के गली कूँचो से शस्त्रधारियों का समूह उमड़ पड़ा था, क्या बच्चे क्या बूढे सभी बेगम के साथ जुड़ गये। भीषण युद्ध हुआ ऐसा कि शायद अभी तक लखनऊ ने ऐसा युद्ध ना देखा हो। बेगम ने हत्यारे महिसासुर हडसन को अपनी तलवार से इस प्रकार से काटी जैसा देवी दुर्गा महिसासुर को काटी थी। लखनऊ ने प्लासी का तो नही पर दिल्ली का बदला जरूर ले लिया। ऐशबाग की लड़ाई में सब उजाड़ हो गया अंग्रेजों की जीत हुई पर मोलवी व बेगम ना मिली अंग्रेजों को। अब तीसरी बार लखनऊ में खून की नदियाँ बहीं, चितायें जलीं। बसीरतगंज से मौलवीगंज तहस-नहस हो गये। मौलवी का पता तब चला जब पुवायां रियासत द्वारा नरेश द्वारा भेजा हुआ एक तोहफा ब्रिटिश सेना को मिला। इस तोहफे में मौलवी का कटा हुआ सर था। धीरे-धीरे अंग्रेजों ने क्रान्ती का दमन कर दिया परन्तु इस क्रान्ती ने एक ऐसा काँटा बो दिया जो आजतक चुभता है। 1. 1857 अवध का मुक्तिसंग्राम, अखिलेश मिश्रा 2. https://goo.gl/445M4a 3. https://goo.gl/xzs48S 4. https://goo.gl/PdzUoL 5. https://goo.gl/6HPD5d