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भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां देश की 68.84% प्रतिशत जनसख्या अभी भी देश के दूरस्थ ग्रामीण
क्षेत्रों में रहती है। हालांकि इस बात में कोई संदेह नहीं है की, पिछले दो दशकों में ग्रामीण क्षेत्रों में भी विकास
और जागरुकता का स्तर बढ़ा है! लेकिन ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच अभी भी एक सुनहरा
सपना ही बना हुआ है। महामारी के दौरान हमारे ग्रामीण स्वास्थ्य ढांचे की, पहले से ही गंभीर स्थिति, और
अधिक गंभीर हो गई है।
इस बीच कई गैर सरकारी संगठन, निजी संगठन और परोपकारी लोग ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाप्रणाली के उत्थान के लिए एक साथ आए। ग्रामीण क्षेत्रों को फंडिंग, उपकरणों की आपूर्ति, रैपिड टेस्ट किट
(rapid test kit), पीपीई आदि के रूप में मदद मिलती रही। हालांकि इससे कोविड-19 से जूझ रहे ग्रामीण
अस्पतालों को बड़ी राहत मिली है, लेकिन वास्तव में भारत के ग्रामीण अस्पताल, सामान्य रोगियों को भी
अच्छी देखभाल प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं!
राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यबल खाता (NHWA) के अनुसार वर्ष 2018 के दौरान पूरे भारत में स्वास्थ्य
कार्यकर्ताओं की कुल अनुमानित संख्या 5.76 मिलियन पाई गई। जिसमें एलोपैथिक डॉक्टर (1.16
मिलियन), नर्स/दाई (2.34 मिलियन), फार्मासिस्ट (1.20 मिलियन), दंत चिकित्सक (0.27 मिलियन),
आयुष 0.79 मिलियन और पारंपरिक चिकित्सा व्यवसायी शामिल हैं। एनएचडब्ल्यूए के अनुसार प्रति
10,000 व्यक्ति में डॉक्टर और नर्सों/दाइयों का स्टॉक घनत्व क्रमशः 8.8 और 17.7 है। हालांकि,
एनएसएसओ (NSSO) द्वारा अनुमानित डॉक्टर और नर्सों/दाइयों के सक्रिय स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का
घनत्व क्रमशः 6.1 और 10.6 होने का अनुमान है। ये सभी अनुमान प्रति 10,000 जनसंख्या पर 44.5
डॉक्टर, नर्स और दाइयों की डब्ल्यूएचओ की सीमा से काफी नीचे हैं।
भारत का स्वास्थ्य क्षेत्र, पर्याप्त बुनियादी ढांचे और मानव संसाधन के अभाव में एक बड़े संकट से जूझ रहा
है। पिछले नौ वर्षों में, मध्य प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा कर्मचारियों, विशेषकर डॉक्टरों की
कमी ने 72,000 शिशुओं की जान ले ली! ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह स्थिति और भी दयनीय है।
केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में
संचालित 5,183 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 76.1% विशेषज्ञों की कमी है।
चलिए कुछ ऐसे प्रभावी कदमों के बारे में जानें, जो ग्रामीण स्वास्थ्य प्रणालियों को सशक्त बना सकते हैं,
और लंबी अवधि में स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकते हैं:
1. दीर्घकालिक सार्वजनिक-निजी भागीदारी (Long Term Public-Private Partnership (PPP):
स्वास्थ्य सेवा समावेशन सुनिश्चित करने के लिए पीपीपी भागीदारी एक दीर्घकालिक टिकाऊ मॉडल के
साथ, भारतीय ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को सकारात्मक रूप से बदल सकती है। पीपीपी वित्तीय,
तकनीकी, शिक्षा और मानव संसाधन पहलुओं की सीमाओं को दूर करने में मदद कर सकती है। इस तरह
की लंबी अवधि की साझेदारी विशेष रूप से दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच बढ़ाती है।साथ ही
निजी निवेशकों के विशाल कौशल, अनुभव और वित्त से नवीन समाधान बनाने में मदद मिल सकती है।
2. एक ऑन-ग्राउंड पर्यवेक्षी समिति की स्थापना (Establish an on-ground supervisory
committee): बेहतर स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच को बढ़ावा देने के साथ ही ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल की
निगरानी के लिए एक ऑन-ग्राउंड पर्यवेक्षी समिति की स्थापना की जा सकती है। अधिकांश ग्रामीण
स्वास्थ्य देखभाल परियोजनाएं बड़े उत्साह के साथ शुरू होती हैं, किंतु इसके परिणाम हमेशा अपेक्षा के
अनुरूप नहीं होते हैं। इसलिए ग्रामीण स्वास्थ्य वृद्धि की गतिविधियों की प्रभावी निगरानी करने के लिए
एक ऑन-ग्राउंड पर्यवेक्षी समिति की आवश्यकता है।
3. चल रहे कौशल विकास और परामर्श (Skill Development and Mentoring): कौशल विकास और
परामर्श, ग्रामीण क्षेत्रों में चिंता का प्रमुख कारण है। डॉक्टरों के लिए कौशल विकास पाठ्यक्रम और सतत
शिक्षण कार्यक्रम, ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशिक्षित डॉक्टरों की कमी से निपटने में मदद कर सकते हैं।
4. मशीनों का लगातार उन्नयन और पैरामेडिकल स्टाफ का प्रशिक्षण (Upgradation of Machines
and Training of Paramedical Staff): ग्रामीण क्षेत्रों में आवश्यक सुविधाओं जैसे कि नवीनतम
चिकित्सा उपकरण और उन उपकरणों का प्रबंधन करने वाले प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मचारियों का भारी
आभाव है। ऐसे में चिकित्सा उपकरणों के लगातार उन्नयन पर ध्यान दिया जा सकता है। साथ ही नर्सों
और पैरा मेडिकल स्टाफ (para medical staff) के लिए इन उपकरणों के प्रभावी संचालन और प्रबंधन पर
प्रशिक्षण कार्यशालाएं भी महत्वपूर्ण हैं।
इन सभी परिकल्पनाओं अलावा, भारत में विकसित ग्रामीण स्वास्थ्य देखभाल प्रणालीयां पहले से ही
मौजूद हैं। चलिए इनपर एक नज़र डालते हैं:
1. उपकेंद्र (Sub Center (SC): उप केंद्र प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली और समुदाय के बीच सबसे
परिधीय और पहला संपर्क बिंदु होते है। उपकेंद्रों को मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, पोषण,
टीकाकरण, डायरिया नियंत्रण और संचारी रोगों के नियंत्रण के संबंध में सेवाएं प्रदान करने के लिए
पारस्परिक संचार से संबंधित कार्य सौंपे गए हैं। प्रत्येक उप केंद्र में कम से कम एक सहायक नर्स दाई
(ANM / महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता और एक पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ता होना आवश्यक है। 31 मार्च, 2019
तक देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत कुल 157541 अनुसूचित जातियों में से 7821 अनुसूचित जातियों को
स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र-उप केंद्रों (HWC-SCs) के रूप में उन्नत किया गया है। सरकारी केन्द्रों में,
कार्यरत उप-केंद्रों का प्रतिशत 2005 में 43.8% से बढ़कर 2019 में 75.3% हो गया है।
2. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (Primary Health Center (PHC): पीएचसी ग्राम समुदाय और चिकित्सा
अधिकारी के बीच पहला संपर्क बिंदु माना जाता है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की परिकल्पना ग्रामीण
आबादी को एक एकीकृत, उपचारात्मक और निवारक स्वास्थ्य देखभाल प्रदान करने के लिए की गई थी,
जिसमें स्वास्थ्य देखभाल के निवारक और प्रोत्साहक पहलुओं पर जोर दिया गया था। पीएचसी की
स्थापना और रखरखाव राज्य सरकारों द्वारा न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम (एमएनपी)/बुनियादी
न्यूनतम सेवाएं (बीएमएस) कार्यक्रम के तहत किया जाता है। 31 मार्च 2019 तक राष्ट्रीय स्तर पर, ग्रामीण
क्षेत्रों में 24855 पीएचसी (यानी 16613 पीएचसी और 8242 एचडब्ल्यूसी-पीएचसी) कार्यरत हैं। सरकारी
केन्द्रों में कार्यरत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों का प्रतिशत 2005 में 69% से बढ़कर 2019 में 94.5% हो
गया है।
3. सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (Community Health Center (CHC): एमएनपी/बीएमएस कार्यक्रम के
तहत राज्य सरकार द्वारा सीएचसी की स्थापना और रखरखाव किया जाता है। न्यूनतम मानदंडों के
अनुसार, एक सीएचसी में चार चिकित्सा विशेषज्ञों अर्थात सर्जन, चिकित्सक, स्त्री रोग विशेषज्ञ और बाल
रोग विशेषज्ञ द्वारा 21 पैरामेडिकल और अन्य कर्मचारियों द्वारा समर्थित होना आवश्यक है। इसमें एक
ओटी, एक्स-रे, लेबर रूम (OT, X-ray, Labor Room) और प्रयोगशाला सुविधाओं के साथ 30 इन-डोर बेड
होते हैं। यह 4 पीएचसी के लिए एक रेफरल केंद्र (referral center) के रूप में कार्य करता है और प्रसूति
देखभाल और विशेषज्ञ परामर्श के लिए सुविधाएं भी प्रदान करता है। 31 मार्च 2019 तक, देश के ग्रामीण
क्षेत्रों में 5335 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र कार्यरत हैं। सरकार में सीएचसी के प्रतिशत केंद्र 2005 में
91.6% से बढ़कर 2019 में 99.3% हो गए हैं।
4.पहली रेफरल इकाइयाँ (First Referral Units (FRU): जिला अस्पताल, उप-मंडल अस्पताल,
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र आदि) को पूरी तरह से सक्रीय ,पहली रेफरल इकाई (एफआरयू) तभी घोषित
किया जा सकता है, जब वह आपातकालीन प्रसूति और नवजात देखभाल के लिए चौबीसों घंटे सेवाएं प्रदान
करने के लिए सुसज्जित हो।
FRU के रूप में घोषित की जा रही सुविधा के तीन महत्वपूर्ण निर्धारक हैं:
1. सीजेरियन सेक्शन (caesarean section)!
2. आपातकालीन प्रसूति देखभाल, नवजात देखभाल।
3. 24 घंटे के आधार पर रक्त भंडारण की सुविधा।
31 मार्च 2019 तक, देश में 3204, FRU कार्य कर रहे हैं। इनमें से 95.7% एफआरयू में ऑपरेशन थिएटर
(operation theater) की सुविधा है, 96.7% एफआरयू में कार्यात्मक लेबर रूम है, जबकि 75.3%
एफआरयू में ब्लड स्टोरेज/लिंकेज की सुविधा है।
संदर्भ
https://bit.ly/37jzDRZ
https://bit.ly/3LIcnft
https://bit.ly/3DJYH0L
चित्र संदर्भ
1. ग्रामीण क्षेत्र में चिकित्सक को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
2. ग्रामीण महिला की जाँच करते डॉक्टर को दर्शाता एक चित्रण (Max Pixel)
3. ग्रामीण भारत में स्वास्थ कार्यक्रम को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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