मंदिर स्थापत्य की ‘वेसर शैली’ का इतिहास तथा इसकी प्रमुख विशेषताएं

वास्तुकला I - बाहरी इमारतें
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मंदिर स्थापत्य की ‘वेसर शैली’ का इतिहास तथा इसकी प्रमुख विशेषताएं

वेसर (Vesara) भारतीय मंदिर वास्तुकला का एक मिश्रित रूप है‚ जिसमें दक्षिण भारतीय योजना के साथ उत्तर भारतीय विवरण की विशेषताएं भी शामिल हैं। वेसर का अर्थ है ‘खच्चर’‚ दक्षिण भारतीय ग्रंथ कामिका-आगम (Kamika-agama) बताते हैं‚ कि यह नाम इसके मिश्रित प्रकृति से प्रेरित होकर लिया गया है‚ जहां यह योजना में द्रविड़ वास्तुकला (Dravida architecture) है‚ वहीं इसका आकार विवरण में नागर वास्तुकला (Nagara architecture) है। वही ग्रंथ यह भी कहता है‚ कि इसी मिश्रित प्रकृति के कारण वेसर को ‘संकर’ (Sankara) भी कहा जाता है। यह समिश्रित शैली कदाचित धारवाड़ (Dharwad) क्षेत्र के ऐतिहासिक वास्तुकला विद्यालयों में उत्पन्न हुई थी। यह शैली दक्कन (Deccan) क्षेत्र में‚ विशेष रूप से कर्नाटक में बाद के चालुक्यों (Chalukyas) तथा होयसालों (Hoysalas) के बचे हुए मंदिरों में आम है। भारतीय ग्रंथों के अनुसार‚ वेसर भारत के मध्य भागों जैसे विंध्य (Vindhyas) और कृष्णा नदी के बीच लोकप्रिय था। यह ऐतिहासिक ग्रंथों में पाए जाने वाले‚ नागर (Nagara)‚ द्रविड़ (Dravida)‚ भूमिजा (Bhumija)‚ कलिंग (Kalinga) तथा वरता (Varata) के साथ भारतीय मंदिर वास्तुकला के छह प्रमुख प्रकारों में से एक है।
संभवत: इस शब्द का प्रयोग प्राचीन लेखकों द्वारा किया गया था‚ लेकिन आधुनिक उपयोग के समान अर्थ के साथ नहीं। ऐसे ही अन्य कारणों से‚ एडम हार्डी (Adam Hardy) जैसे कुछ लेखकों द्वारा इसे नजरअंदाज किया जाता है। 7वीं से 13वीं शताब्दी ईस्वी तक इसके लिए कई अलग-अलग वैकल्पिक शब्दों का प्रयोग किया गया‚ जैसे कर्नाटा द्रविड़ (Karnata Dravida)‚ ‘मध्य भारतीय मंदिर वास्तुकला शैली’ तथा ‘दक्कन (Deccan) वास्तुकला’‚ इनके अलावा अल्पकालीन अवधि के लिए‚ स्थानीय राजवंशों को संदर्भित शब्दों का प्रयोग भी किया गया‚ जैसे “चालुक्य वास्तुकला” (Chalukyan architecture)‚ जिसे शुरू में प्रारंभिक चालुक्य या बादामी चालुक्य वास्तुकला तथा बाद में कल्याण चालुक्य या पश्चिमी चालुक्य वास्तुकला कहा जाता था‚ ऐसे ही होयसला (Hoysala) राजवंश शासन के दौरान इसे होयसला वास्तुकला कहा जाता था। जो लोग “वेसर” का उपयोग करते हैं‚ उनमें इस बात पर कुछ असहमति है कि इसका उपयोग किस अवधि के लिए किया जाए। इस तरह की असहमति काफी हद तक नामकरण के मामलों तक ही सीमित है।
भारतीय मंदिर वास्तुकला के विद्वान‚ ढाकी (Dhaky) कहते हैं‚ कि वास्तुकला पर उत्तर भारतीय ग्रंथों में वेसर शैली का कोई उल्लेख नहीं है। इसके विपरीत यह द्रविड़ (Dravida) और नागर (Nagara) के साथ‚ वास्तुकला पर अधिकांश दक्षिण भारतीय ग्रंथों में पाया जाने वाला शब्द है‚ जो बताता है कि वेसर शैली का उदय हुआ और दक्षिण में इसका समर्थन भी किया गया। मानसरा (Manasara) ने नागर को उत्तर में‚ द्रविड़ को दक्षिण में और वेसर को मध्य में वर्गीकृत किया है। यह बताता है कि नागर चार पक्षों को तथा द्रविड़ बहुभुज या अष्टकोण को महत्त्व देता है‚ जबकि वेसर बीच में वृत्ताकार या अंडाकार दोनों रूपों के साथ अभिनंदन करता है। 10वीं शताब्दी के बाद कर्नाटक में बचे हुए कई हिंदू और जैन मंदिर संरचनाओं तथा वेसर रूप में खंडहरों को देखते हुए‚ वेसर शैली को कर्नाटक और वहां रचित ग्रंथों से जोड़ा गया है। सामान्य तौर पर‚ कई दक्षिण भारतीय ग्रंथों में कहा गया है‚ कि वेसर एक ऐसी इमारत है जो कर्ण (karna) या कंठ (kantha) के ऊपर की योजना में “गोलाकार या गोल” है। हिंदू मंदिर वास्तुकला के अन्य सैद्धांतिक वर्गीकरण हैं‚ जिसमें दक्षिण भारतीय ग्रंथ‚ योजना का उपयोग करते हैं तथा उत्तर भारतीय ग्रंथ‚ समग्र आकार और रूप का उपयोग करते हैं‚ विशेष रूप से अधिरचना में। वेसर शैली की उत्पत्ति कृष्णा (Krishna) और तुंगभद्रा (Tungabhadra) नदियों के बीच के क्षेत्र में हुई‚ जो कि समकालीन उत्तर कर्नाटक है। कुछ कला इतिहासकारों के अनुसार‚ वेसर शैली की जड़ें‚ बादामी के चालुक्यों में खोजी जा सकती हैं‚ जिनकी प्रारंभिक चालुक्य या बादामी चालुक्य वास्तुकला ने इस शैली में मंदिरों का निर्माण किया था‚ जिसमें नागर और द्रविड़ शैलियों की कुछ विशेषताओं को मिलाया गया था‚ जैसे पट्टदकल (Pattadakal) में समान तिथि के विभिन्न मंदिरों में‚ गर्भगृह के ऊपर उत्तरी शिखर और दक्षिणी विमान दोनों प्रकार के अधिरचना का उपयोग करना। इस शैली को मान्यखेता (Manyakheta) के राष्ट्रकूटों (Rashtrakutas) द्वारा एलोरा (Ellora) जैसे स्थलों में भी परिष्कृत किया गया था। हालांकि बादामी (Badami) या प्रारंभिक चालुक्य शैली (Chalukya style) के साथ स्पष्ट रूप से निरंतरता का एक अच्छा परिमाण है। सिन्हा जैसे अन्य कला इतिहासकारों का कहना है कि हिंदू मंदिर वास्तुकला में प्रयोग और नवाचार कर्नाटक में ऐहोल (Aihole)‚ पट्टाडकल (Pattadakal)‚ बादामी तथा महाकुटा (Mahakuta) जैसे स्थलों पर शुरू हुए जहां नागर और द्रविड़ दोनों मंदिर एक-दूसरे के नजदीक बनाए गए थे। हालांकि इन्होंने अपनी ऐतिहासिक पहचान बरकरार रखी। सिन्हा कहते हैं‚ वेसर को नागर या द्रविड़ के एक साधारण मिश्रण के रूप में नहीं माना जाना चाहिए‚ बल्कि एक वास्तुशिल्प आविष्कार के रूप में माना जाना चाहिए।

संदर्भ:
https://bit.ly/30lwYnx
https://bit.ly/3DhXVXN
https://bit.ly/3Hp5PRm

चित्र संदर्भ:
1.कुक्कनूर (1000-1025 सीई) में कलेश्वर मंदिर ने भद्रा खंड के साथ अपने नवाचारों के साथ नागर तत्वों को द्रविड़ योजना में एकीकृत करके, वेसर वास्तुकला का बीड़ा उठाया।
2.जोडा-कलश मंदिर, सुदी, कर्नाटक - वेसर-शैली का एक और प्रारंभिक प्रर्वतक
3.चेन्नाकेशव मंदिर, सोमनाथपुरा, 1258