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महात्मा गांधी द्वारा पहनी गई टोपी‚ जिसे “गांधी टोपी” कहा जाता है‚ अभी भी
राजनेताओं‚ रंगमंच तथा अन्य लोगों के बीच मौजूद दिखाई देती है। स्वतंत्रता
आंदोलन के दौरान गांधीजी दो बार रामपुर आए थे। वे पहली बार 30 दिसंबर
1918‚ को “खिलाफत आंदोलन” का नेतृत्व करने वाले‚ मौलाना शौकत अली और
उनके छोटे भाई मोहम्मद अली से मिलने के लिए रामपुर आए थे। गांधी टोपी के
अस्तित्व की कहानी 1919 की है‚ जब गांधीजी दूसरी बार रामपुर रियासत के
नवाब‚ सैय्यद हामिद अली खान बहादुर से मिलने के लिए कोठी खास बाग‚
रामपुर आऐ थे। रामपुर की अपनी इस यात्रा में उन्हें नवाबों के दरबार की एक
परंपरा के विषय में बताया गया‚ कि “मेहमानों को नवाबों से मिलते समय अपना
सिर ढंकना पड़ता है।” इस परम्परा ने बापू को एक परेशानी में डाल दिया क्योंकि
वह अपने साथ कोई कपड़ा या टोपी नहीं रखते थे। तब रामपुर के बाजारों में
महात्मा गांधी के लिए उपयुक्त टोपी खरीदने की तलाश शुरू हुई थी। लेकिन जिन
लोगों को यह काम सौंपा गया था‚ वे उनके लिए उपयुक्त टोपी नहीं ढूंढ पाए
क्योंकि उनमें से कोई भी टोपी गांधीजी के लिए उपयुक्त नहीं थी। इस परिस्थिति
में मोहम्मद अली तथा शौकत अली की मां अबदी बेगम ने स्वयं गांधीजी के लिए
एक टोपी बुनने का फैसला किया और फिर वह टोपी “गांधी टोपी” के रूप में
प्रसिद्ध हो गई। नुकीले सिरों और चौड़ी पट्टी वाली गांधी टोपी‚ बाद में अहिंसा
और आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में सामने आई। गांधी की बढ़ती लोकप्रियता
को दबाने के लिए ब्रिटिश (British) सरकार ने गांधी टोपी पर प्रतिबंध लगाने की
कोशिश की‚ लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।3.
“गांधी टोपी” सफेद रंग की एक ऐसी टोपी है‚ जो आगे और पीछे की ओर नुकीली
और चौड़ी पट्टी वाली होती है। इसका निर्माण खादी से किया जाता है। इसका
नाम भारतीय नेता महात्मा गांधी के नाम पर रखा गया है‚ जिन्होंने पहली बार
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इसके उपयोग को लोकप्रिय बनाया था।
भारतीय स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं द्वारा पहने जाने वाली इस टोपी को अब आमतौर
पर स्वतंत्र भारत में राजनेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा पहनना एक
प्रतीकात्मक परंपरा बन गयी है।
महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को हुई थी। उनका अंतिम संस्कार
दिल्ली के राज घाट पर हिंदू रीति-रिवाजों से किया गया था। उनकी लोकप्रियता के
कारण‚ उनकी अस्थियों की राख को कई भागों में विभाजित किया गया था। उनमें
से कुछ को उनके करीबी सहयोगियों‚ दोस्तों‚ परिवार के सदस्यों को सौंप दिया
गया था और कुछ को शोकग्रस्त राष्ट्र को ठीक करने के लिए देश के दौरे पर
भेजा गया था। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इनमें से राख का एक हिस्सा
उत्तरप्रदेश के रामपुर में भी दफनाया गया था। इस तथ्य के कारण रामपुर
उत्तरप्रदेश का एक अकेला ऐसा जिला है तथा सम्पूर्ण भारत देश में तीसरा स्थान
है‚ जहां गांधी समाधि है‚ जहां उनकी राख दफन है।
इसके अलावा सम्पूर्ण भारतवर्ष में केवल दिल्ली में राज घाट तथा कच्छ जिले के
आदिपुर बंदरगाह शहर‚ गुजरात में गांधी समाधि के अन्य दो स्थान हैं। 12
फरवरी 1948‚ को गांधीजी की राख का विसर्जन समारोह भाई प्रताप‚ आचार्य
कृपलानी‚ कच्छ के पूर्व राजघराने और क्षेत्र के अन्य नेताओं द्वारा कांडला क्रीक में
सम्पन्न किया गया और गांधीधाम शहर की नींव रखी गई।3.
दुर्भाग्यवश गांधीजी
की हत्या उसी दिन की गई थी जिस दिन भाई प्रताप दिल्ली पहुंचे और उन्हें
गांधीधाम की आधारशिला रखने के लिए आमंत्रित किया गया था। गांधी समाधि‚
आदिपुर को वहां रहने वाले लोगों द्वारा जाना जाता है‚ क्योंकि इस शहर में
पर्यटन के लिए बहुत कम स्थान हैं। सिंधु पुनर्वास निगम लिमिटेड (Sindhu
Resettlement Corporation Ltd (SRC)) ने इस स्थान को बहुत अच्छी तरह
से बनाए रखा है। यहां हर साल 12 फरवरी को ‘गांधीधाम दिवस’ मनाया जाता है।
भारत के विभाजन के बाद सिंध से शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए 1950 के दशक
की शुरुआत में इस शहर का निर्माण किया गया था। इसका नाम भारतीय
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर रखा गया था।
रामपुर में स्थापित राख के इस हिस्से की कहानी 1948 की है‚ जब गांधीजी की
हत्या पूरे देश के लिए एक गहरा आघात था। रामपुर रियासत के तत्कालीन नवाब
रजा अली खान बहादुर के लिए यह एक बहुत बड़ा झटका था। वे महात्मा गांधी के
करीबी सहयोगियों में से थे। उन्होंने अपने राज्य के लोगों को इस महान व्यक्तित्व
को श्रद्धांजलि देने का मौका देने के लिए राख का एक हिस्सा अपने साथ रामपुर
लाने का फैसला किया। वह रामपुर से पांच प्रमुख ब्राह्मणों को साथ ले गये और
महात्मा की राख के एक हिस्से को रामपुर ले आये। गांधीजी के पवित्र अवशेषों का
एक हिस्सा रखने की दलील को शुरू में गांधीजी के परिवार के सदस्यों और
पुजारियों ने यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि‚ “राख केवल चांदी से बने कलश में
ही सौंपी जा सकती है।” तब नवाब ने चांदी का कलश बनवाया और आखिरकार
11 फरवरी‚ 1948 को अपनी विशेष ट्रेन में बापू की अस्थियां रामपुर ले आए।
रामपुर आते समय‚ उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि ट्रेन हर स्टेशन पर रुके‚
जिससे लोग राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी को श्रद्धांजलि अर्पित कर सकें। राख को
अनुष्ठानों के अनुसार लाया गया था तथा कलश के साथ एक बैंड था जो पूरे रास्ते
शोक की धुन बजा रहा था।
इसके अलावा श्रद्धांजलि अर्पित करने हेतु‚ राज्य का
झंडा नीचे किया गया था तथा कार्यालयों को सात दिनों के लिए बंद कर दिया
गया था। 12 फरवरी को स्वर रोड पर एक मैदान में कलश प्रदर्शित करने के बाद‚
जिसे बाद में गांधी स्टेडियम घोषित किया गया‚ कलश को शाही जुलूस में कोसी
नदी के तट पर ले जाया गया। गांधीजी की अस्थियों का एक भाग नदी में
विसर्जित कर दिया गया तथा शेष भाग को गांधी समाधि घोषित करते हुए शहर
के मध्य में जमीन में आठ फीट नीचे दबा दिया गया। नवाब‚ गांधीजी के इतने
कट्टर अनुयायी थे कि उन्होंने उनके सम्मान में एक गीत - ‘अखिया खोलो‚ मुख
से बोलो‚ गांधी जी महाराज’ भी लिखा था। महात्मा गांधीजी की अस्थियों के
अंतिम दर्शन के दौरान इसे गायकों के एक समूह द्वारा गाया गया था।
संदर्भ:
https://bit.ly/3F2HyzH
https://bit.ly/3mc4tjo
https://bit.ly/3uqAg3A
https://bit.ly/3F3jQmK
https://bit.ly/3okeSw3
https://bit.ly/3iiEeGz
चित्र संदर्भ
1. गाँधी टोपी पहने भारतीय नेताओं का एक चित्रण (youtube)
2. गांधी टोपी का एक चित्रण (thehindi)
3. रामपुर में गाँधी समाधी के भीतरी परिदृश्य का एक चित्रण (flickr)
4. रामपुर में गाँधी समाधी के बाहरी परिदृश्य का एक चित्रण (flickr)