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भारत में शिक्षा का इतिहास ईसाई धर्म (Christianity) और ईसाई धर्म प्रचारकों के आगमन से
काफी समय पहले प्राचीन तक्षशिला और नालंदा जैसे प्रारंभिक हिंदू और बौद्ध शिक्षा केंद्रों में
भारतीय धर्म‚ भारतीय गणित‚ भारतीय तर्क जैसे पारंपरिक तत्वों के शिक्षण के साथ शुरू हुआ।
मध्य युग में भारत में इस्लामी साम्राज्यों की स्थापना के साथ इस्लामी शिक्षा का समावेश हुआ‚
जबकि यूरोपीय (Europeans) लोगों के भारत आने के बाद‚ पश्चिमी शिक्षा को औपनिवेशिक
रूप से भारत में लाया। 19 वीं शताब्दी में ब्रिटिश (British) शासन के दौरान आधुनिक
विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। अंततः 20 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जारी उपायों की एक
श्रृंखला ने शैक्षिक प्रणाली की नींव रखी।
भारत में प्रारंभिक शिक्षा गुरुओं की देखरेख में शुरू हुई। उस समय शिक्षा सभी के लिए खुली
होती थी और उन दिनों शिक्षा के अर्थ को‚ मोक्ष या ज्ञान प्राप्त करने के तरीकों में से एक के
रूप में देखा जाता था। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा‚ एक विकेन्द्रीकृत सामाजिक संरचना के कारण‚
शिक्षा‚ वर्ण और संबंधित कर्तव्यों के आधार पर प्रदान की जाने लगी‚ जो किसी भी व्यक्ति को
एक विशिष्ट जाति के सदस्य के रूप में प्राप्त करनी होती थी। जैसे ब्राह्मणों को शास्त्रों और
धर्म के बारे में शिक्षा दी जाती थी जबकि क्षत्रियों को युद्ध के विभिन्न पहलुओं के लिए शिक्षित
किया जाता था। वैश्य जाति ने वाणिज्य और अन्य विशिष्ट व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की शिक्षा
प्राप्त की। शूद्र जाति के लोग श्रमिक वर्ग के पुरुष थे और उन्हें इन कार्यों को करने के लिए
कौशलता पर प्रशिक्षित किया जाता था। भारत में शिक्षा के शुरुआती स्थान अक्सर मुख्य आबादी
वाले क्षेत्रों से अलग शांत स्थानों पर थे। छात्रों को कड़े नियमों का अनुसरण करना पड़ता था
तथा उनसे अपेक्षा की जाती थी‚ कि वे गुरु द्वारा निर्धारित मठवासी दिशा-निर्देशों का कड़ाई से
पालन करें तथा शहरों से दूर आश्रमों में रहें। गुप्त साम्राज्य के तहत जैसे-जैसे जनसंख्या में
वृद्धि हुई‚ शहरी शिक्षा के केंद्र तेजी से सामान्य होते गए और वाराणसी (Varanasi) जैसे शहर
और नालंदा (Nalanda) में बौद्ध केंद्र तेजी से दिखाई देने लगे।
प्राचीन भारत में शिक्षा को हमेशा बहुत अनुशासित और सुव्यवस्थित माना गया है‚ तीसरी
शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान जब पारंपरिक और धार्मिक ज्ञान सीखना मुख्य विषय हुआ करता था
तब ताड़ के पत्ते और पेड़ की छाल लेखन गद्दी का कार्य करते थे तथा अधिकांश शिक्षण
ऋषियों और विद्वानों द्वारा मौखिक हुआ करते थे। भारत में शिक्षा‚ पारंपरिक शिक्षा का एक
रूप है जिसका धर्म से गहरा संबंध होता था। आस्था के विधर्मिक संप्रदायों में जैन और बौद्ध
स्कूल थे। विधर्मिक बौद्ध शिक्षा अधिक समावेशी होती थी‚ जहाँ व्याकरण‚ चिकित्सा‚
दर्शनशास्त्र‚ तर्कशास्त्र‚ तत्वविज्ञान‚ कला और शिल्प आदि भी पढ़ाए जाते थे। तक्षशिला और
नालंदा जैसे उच्च शिक्षा के प्रारंभिक धर्मनिरपेक्ष बौद्ध संस्थान‚ सामान्य युग में अच्छी तरह से
काम करते रहे और इसमें चीन (China) और मध्य एशिया (Central Asia) के छात्रों ने भी
भाग लिया।प्राचीन काल में‚ भारत में शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली हुआ करती थी जिसमें जो कोई
भी व्यक्ति अध्ययन करना चाहता था वह एक गुरुकुल जाता और उनसे पढ़ाने का अनुरोध
करता था। यदि गुरु द्वारा एक छात्र के रूप में उसे स्वीकार किया जाता‚ तो वह गुरु के साथ
उनके घर पर रहता तथा घर पर सभी गतिविधियों में सहयोग करता। इससे शिक्षक और छात्र
के बीच एक मजबूत बंधन बनता तथा छात्र को घर चलाने के बारे में भी सब कुछ सिखाया
जाता था। गुरुओं द्वारा वह सब कुछ सिखाया जाता था जो छात्र सीखना चाहते थे‚ संस्कृत से
लेकर पवित्र शास्त्रों तक और गणित से लेकर तत्वविज्ञान तक। छात्र तब तक गुरुओं के साथ
रुके रह सकते थे जब तक गुरु को यह महसूस नहीं होता कि छात्र वह सब कुछ सिख गया है
जो गुरु द्वारा उसे सिखाया गया है। सारी शिक्षा प्रकृति और जीवन से घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती
थी। भारत में शिक्षा गुरुकुल प्रणाली के साथ और अधिक प्रासंगिक हो गई‚ जिसके लिए छात्रों
और शिक्षकों को एक साथ बोर्डिंग (boarding) की आवश्यकता होती थी‚ जो पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान
प्राप्त करते थे। धर्म‚ दर्शनशास्त्र‚ युद्धनीति‚ चिकित्सा‚ ज्योतिष विद्या प्रमुख विषय हुआ करते
थे। इस शिक्षा का एक और अनूठा पहलू‚ सभी के लिए इसकी मुफ्त उपलब्धता भी थी‚ लेकिन
इसे ‘गुरुदक्षिणा’ नामक एक स्वैच्छिक योगदान की अनुमति दी गई थी‚ जिसे पाठ्यक्रमों के अंत
में कुछ संपन्न परिवारों द्वारा वहन किया जा सकता था।
आधुनिक भारत में शिक्षा की शुरुआत ब्रिटिश काल (British era) से हुई और इस प्रकार अंग्रेजी
भाषा का अध्ययन सामने आया‚ जिस पर अन्य भाषा सीखने की तुलना में अधिक जोर दिया
गया। भारत में शिक्षा का हालिया स्वरूप 20 वीं शताब्दी में लॉर्ड मैकाले (Lord Macaulay)
द्वारा प्रस्तावित एक विचार था‚ जो मानते थे कि भारतीयों को अपने पारंपरिक विचारों‚ रुचियों‚
बुद्धिमत्ता और नैतिकता से बाहर आने के लिए आधुनिक शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। भारत में
पश्चिमी शिक्षा ने देश के विभिन्न हिस्सों में कई धर्म प्रचारक कॉलेजों की स्थापना की।
स्वतंत्रता के बाद‚ शिक्षा क्षेत्र में काफी हद तक केंद्र सरकार का नियंत्रण था‚ लेकिन 1976 में
एक संवैधानिक संशोधन के माध्यम से धीरे-धीरे केंद्र और राज्य सरकारों का एक संयुक्त प्रयास
बन गया। 21 वीं सदी के प्रारंभ तक‚ 14 साल की उम्र तक बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य
जैसी शिक्षा नीतियों और योजनाओं की शुरुआत हुई और प्राथमिक शिक्षा पर अधिक ध्यान
केंद्रित करते हुए शिक्षा में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 6% खर्च करने की योजनाएं बनाई
गई। हालाँकि‚ शिक्षा के मामले में भारत का अतीत समृद्ध रहा है‚ फिर भी देश अशिक्षा के
उच्च प्रतिशत और स्कूल छोड़ने वालों की उच्च दर से पीड़ित है। भारत के राज्य उत्तर प्रदेश में
हाई स्कूल और इंटरमीडिएट शिक्षा बोर्ड‚ राजपूताना‚ मध्य भारत और ग्वालियर पर अधिकार
क्षेत्र के साथ वर्ष 1921 में भारत में स्थापित पहला बोर्ड था। 1929 में‚ हाई स्कूल और
इंटरमीडिएट शिक्षा बोर्ड‚ राजपुताना की स्थापना की गई थी। बाद में‚ कुछ राज्यों में बोर्ड
स्थापित किए गए। लेकिन अंततः‚ 1952 में‚ बोर्ड के संविधान में संशोधन किया गया और
इसका नाम बदलकर केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) कर दिया गया। दिल्ली और कुछ
अन्य क्षेत्रों के सभी स्कूल बोर्ड के अंतर्गत आते हैं। इस बोर्ड का काम था कि वह इससे संबंधित
सभी स्कूलों के लिए पाठ्यक्रम‚ पाठ्यपुस्तकें और परीक्षा प्रणाली जैसी चीजों पर फैसला करे
तथा योजनाएं बनाएं। आज भारत तथा अफगानिस्तान (Afghanistan) से लेकर जिम्बाब्वे
(Zimbabwe) तक कई अन्य देशों में बोर्ड से संबंधित हजारों स्कूल हैं।
भारत में वर्तमान शिक्षा प्रणाली की संरचना सीखने के विभिन्न चरणों पर आधारित है और इसे
10+2+3 पैटर्न के रूप में जाना जाता है। यह 1966 की राष्ट्रीय नीति से है और आज अधिकांश
भारतीय राज्यों में लागू है। इस स्कूली शिक्षा प्रणाली में‚ छात्रों से छह साल की उम्र में स्कूल में
प्रवेश की उम्मीद की जाती है‚ और दस साल की स्कूली शिक्षा के बाद‚ जो सामान्य शिक्षा के
लिए समर्पित होते हैं‚ वे अपना माध्यमिक विद्यालय प्रमाणपत्र बनाते हैं। इसके बाद‚ विज्ञान‚
मानविकी‚ वाणिज्य या व्यावसायिक पाठ्यक्रम की धाराओं के साथ दो साल की वरिष्ठ
माध्यमिक शिक्षा का अनुसरण किया जा सकता है‚ जो छात्रों को विश्वविद्यालयों में तीन और
वर्षों के लिए उदार स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए अर्हता प्राप्त करता है। स्कूली शिक्षा के
पहले दस वर्षों को आगे तीन चरणों में बांटा गया है – पांच साल के लिए प्राथमिक‚ तीन साल
के लिए उच्च प्राथमिक और दो साल के लिए माध्यमिक।
भारत में तीन मुख्य स्कूल प्रकारों की पहचान की जा सकती है – सरकारी‚ सहायता प्राप्त और
निजी। केंद्र या राज्य सरकारों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को सरकारी स्कूल कहा जाता है
जबकि ऐसे स्कूल‚ जो निजी प्रबंधन द्वारा चलाए जाते हैं लेकिन बड़े पैमाने पर सरकारी
अनुदान सहायता से वित्त पोषित होते हैं‚ उन्हें निजी सहायता प्राप्त या सहायता प्राप्त स्कूल के
रूप में जाना जाता है। एक राष्ट्रीय संगठन है जो नीतियों और कार्यक्रमों को विकसित करने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है‚ जिसे राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद
(एनसीईआरटी) (National Council for Educational Research and Training (NCERT))
कहा जाता है जो एक राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा तैयार करता है। प्रत्येक राज्य का अपना
समकक्ष होता है जिसे स्टेट काउंसिल फॉर एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एससीईआरटी) (State
Council for Educational Research and Training (SCERT)) कहा जाता है। ये वे
निकाय हैं जो राज्यों के शिक्षा विभागों को अनिवार्य रूप से शैक्षिक रणनीतियों‚ पाठ्यक्रम‚
शैक्षणिक योजनाओं और मूल्यांकन पद्धतियों का प्रस्ताव देते हैं। एससीईआरटी आमतौर पर
एनसीईआरटी द्वारा स्थापित दिशानिर्देशों का पालन करते हैं।
संदर्भः
https://bit.ly/3kmBtUT
https://bit.ly/3zeK0zI
https://bit.ly/2WoBy2o
https://bit.ly/3kgVtIN
चित्र संदर्भ
1. गुरुकुल की तर्ज पर शिक्षा ग्रहण करते छात्रों का एक चित्रण (arindam-mukherjee)
2. वैदिक शिक्षा ग्रहण करते छात्रों का एक चित्रण (flickr)
3. 1936 - 1947 के बीच भारत में स्कूली शिक्षा का एक चित्रण (wikimedia)
4. भारतीय स्कूली बच्चों का चित्रण (flickr)
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