विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों में बलिदान को बहुत महत्व दिया जाता है।बलिदान मुख्य रूप से
प्रायश्चित या पूजा के कार्य के रूप में एक देवता को भौतिक संपत्ति या जानवरों या मनुष्यों के जीवन को
समर्पित करना है। पशु बलि से सम्बंधित अनुष्ठानों के साक्ष्य कम से कम प्राचीन यहूदी और यूनानियों
के समय से प्राप्त होते हैं, संभवतः यह इससे पहले भी मौजूद था। जबकि अनुष्ठानिक मानव बलि की
बात करें, तो इसके साक्ष्य मेसोअमेरिका (Mesoamerica) की पूर्व-कोलंबियाई (Columbian) सभ्यताओं
के साथ-साथ यूरोपीय (European) सभ्यताओं में भी पाए जा सकते हैं।
आज कई धर्मों द्वारा विभिन्न प्रकार के बलि अनुष्ठान आयोजित किए जा रहे हैं, हालांकि उनमें मानव
बलि शामिल नहीं है। विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों में बलिदान संस्कारों का संगठन निस्संदेह कई
कारकों से प्रभावित हुआ है। फिर भी, बलिदान एक ऐसी घटना नहीं है जिसे तर्क संगत रूप से कम
किया जा सकता है। यह मूल रूप से एक धार्मिक कार्य है,जो पूरे इतिहास में व्यक्तियों और सामाजिक
समूहों के लिए गहरा महत्व रखता है। यह एक प्रतीकात्मक कार्य है, जो मनुष्य और पवित्र व्यवस्था के
बीच संबंध स्थापित करता है।
बहुत समय पहले से ही दुनिया के कई लोगों के लिए बलिदान उनके धार्मिक जीवन का मुख्य हिस्सा रहा
है तथा इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण इस्लाम धर्म में भी देखने को मिलता है।इस्लाम धर्म में बलिदान
या कुर्बानी के महत्व को ईद-उल- अधा या बकरीद के पर्व के रूप में समझा जा सकता है। इस दिन
बकरी,भेड़ आदि की बलि देकर उसके मांस को रिश्तेदारों, मित्रों और गरीब लोगों में बांटा जाता है।इस्लाम
धर्म में बकरीद के पर्व के दिन पशु बलि के पीछे यह धारणा है, कि पैगम्बर इब्राहिम ने अल्लाह के हुक्म
को मानकर अपने प्रिय बेटे इस्माइल का बलिदान देने का निर्णय किया था। किंतु अल्लाह ने इब्राहिम से
खुश होकर उसके बेटे को एक भेड़ में बदल दिया। इस प्रकार अल्लाह के आगे अपनी प्रिय वस्तु को
समर्पित करने की भावना को चिन्हित करने के लिए बकरीद के दिन पशु बलि देने की परंपरा का
अनुसरण किया जा रहा है। इस पर्व का उद्देश्य केवल पशु बलि देना ही नहीं है, बल्कि अल्लाह के प्रति
अपने प्रेम और भक्ति को प्रदर्शित करने हेतु उन चीजों के बलिदान से है, जो हमें सबसे अधिक प्रिय हैं।
ईश्वर को अपनी पसंदीदा चीजों को समर्पित करने का रिवाज या परंपरा केवल इस्लाम में ही नहीं बल्कि
अनेकों धर्मों और संस्कृतियों में मौजूद है।जैसे कि ईसाई धर्म के प्रसार तक पूरे यूरोप (Europe) में पशु
बलि बहुत आम थी तथा कुछ संस्कृतियों या धर्मों में आज भी दी जा रही है।कई संस्कृतियों में कांस्य
युग के अंत तक पशु बलि काफी आम बन चुकी थी, हालांकि घरेलू पशुधन के रूप में पशुओं का उपयोग
नहीं किया जाता था। प्राचीन मिस्र (Egypt) में लोग अत्यधिक पशु पालन करते थे, तथा अपने पशुओं
का उपयोग पशु बलि के लिए भी करते थे। जानवरों की बलि का सुझाव देने वाले कुछ प्रारंभिक
पुरातात्विक साक्ष्य मिस्र से ही प्राप्त होते हैं।
जानवरों के अवशेष वाले मिस्र के सबसे पुराने दफन स्थल
ऊपरी मिस्र की बदरी (Badari) संस्कृति से उत्पन्न हुए हैं, जो 4400 और 4000 ईसा पूर्व के बीच फला-
फूला।प्राचीन और आधुनिक यूनानियों जैसी कुछ संस्कृतियों में बलि दिए गए जानवर के अधिकांश भागों
को खा लिया जाता था, जबकि उसके एक हिस्से को जला दिया जाता है। कुछ संस्कृतियों में बलि देने के
बाद पूरे जानवर को ही जला दिया जाता था। कुछ पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार यूनान में पशु बलि के
लिए मिस्र से भेड़ और बकरियों का आयात किया जाता था।प्राचीन यूनानीधर्म में पूजा में आमतौर पर
वेदी पर भजन और प्रार्थना के साथ घरेलू पशुओं की बलि दी जाती थी। वेदी किसी भी मंदिर की इमारत
के बाहर मौजूद होती थी, और शायद किसी मंदिर से नहीं जुड़ी थी। विभिन्न अनुष्ठानों के बाद जानवर
को वेदी पर मार दिया जाता था। सीथियन (Scythian) भी विभिन्न प्रकार के पशुधन की बलि देते थे,
लेकिन उनके द्वारा दी जाने वाली सबसे प्रतिष्ठित भेंट में घोड़े का उपयोग किया जाता था। उन्होंने कभी
भी सुअर का बलिदान नहीं दिया, क्यों कि वे अपने परिवेश में सूअर रखना पसंद नहीं करते थे।
हिंदू धर्म में पशु बलि की आधुनिक प्रथा मुख्य रूप से शक्तिवाद से जुड़ी हुई है और हिंदू धर्म की
स्थानीय लोकप्रिय या आदिवासी परंपराओं में दृढ़ता से निहित हैं। भारत में पशु बलि प्राचीन वैदिक धर्म
का हिस्सा रही है और कई धर्मग्रंथों जैसे यजुर्वेद में इसके उल्लेख भी मिलते हैं। हिंदू धर्म के गठन के
दौरान पशु बलि की परंपरा को काफी हद तक समाप्त कर दिया गया था तथा बहुत से हिंदू अब उन्हें
अस्वीकार करते हैं। इसके अलावा पुराणों में भी पशु बलि को निषेध बताया गया है। हालांकि, अनेकों
स्थानों में जानवरों की बलि देने की प्रथा आज भी जारी है।
यहूदी धर्म में, बलिदान को कोरबान (Korban) कहा जाता है, जो तोरह (Torah) में वर्णित और आदेशित
विभिन्न प्रकार के बलिदानों में से एक है। कोरबान शब्द मुख्य रूप से श्रद्धांजलि देने, अनुग्रह प्राप्त
करने, या क्षमा प्राप्त करने के उद्देश्य से मनुष्यों द्वारा भगवान को दिया जाने वाला बलिदान है।
प्राचीन समय में दिए गए बलिदानों को बाइबल की आज्ञाओं को पूरा करने के लिए दिया जाता था।दूसरे
मंदिर (यहूदी पवित्र मंदिर)के विनाश के बाद, बलि पर प्रतिबंध लगा दिया गया था,क्यों कि बलि के लिए
कोई मंदिर नहीं बचा था।आधुनिक धार्मिक यहूदी बलि के बजाय अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए
प्रार्थनाएं करते हैं।
इसी प्रकार प्राचीन चीन (China) में भी बलि देने की परंपरा थी, जो मुख्य रूप से शाही लोगों से
सम्बंधित थी। हालांकि,बौद्ध धर्म जैसे अन्य धर्मों ने चीन में बलि संस्कारों को प्रभावित किया। प्राचीन
जापान (Japan)में, देवताओं और अंत्येष्टि के लिए मानव बलि काफी आम थी, लेकिन इस प्रथा को
प्रारंभिक मध्य युग में बंद कर दिया गया। वर्तमान समय में जापान में मानव बलि के अलावा, उन चीजों
को भेंट किया जाता है, जो मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक हैं, जैसे, भोजन, कपड़े, हथियार आदि।
संदर्भ:
https://bit.ly/2TiqBOs
https://bit.ly/36LNZHe
https://bit.ly/3rjF3Ci
https://bit.ly/3ezvryh
https://bit.ly/3ipzQ87
https://bit.ly/3wTIvVw
चित्र संदर्भ
1. बकरे को कुर्बानी के लिए ले जाते बच्चों का चित्रण (flickr)
2. अपने बकरे को कुर्बानी के लिए तैयार करते मुस्लिम युवकों का एक चित्रण (wikimedia)
3. क्यूई के ड्यूक (Duke Jing of Qi) जिंग 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व, चीन में घोड़े की बलि, चित्रण (wikimedia)
4. हिंदू धर्म में जानवरों की बलि चढ़ाने का एक चित्रण (Arghya Mitra)
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