रामपुर के रज़ा पुस्तकालय में दुर्लभ लघुचित्रों, चित्रों और सचित्र पांडुलिपियों का एक समृद्ध संकलन
संरक्षित है, जो मंगोल, ईरानी, मुगल दक्कनी, राजपूत, पहाड़ी, अवध और ब्रिटिश कंपनी स्कूल ऑफ
पेंटिंग्स (British Company School of Paintings) का प्रतिनिधित्व करते हैं, आज यह सभी पुस्तकालय
स्वामित्व की काफी हद तक अप्रयुक्त संपत्ति में शामिल हैं।
1880 ई.वी. में मीर यार अली खान साहिब द्वारा लिखित एक सुंदर सचित्र फोलियो (folio ) या
हस्तलिपि
रामपुर के रज़ा पुस्तकालय में संरक्षित है, जो कि "मुसद्दस-ए जन साहिब (जान साजिब की कविता)
(Musaddas-i Jan Sahib (The poem of Jan Sajib)) या मुसद्दस-ए बेनज़ीर (बेनज़ीर की कविता)
(Musaddas-i Benazir (The poem of Benazir))" नामक एक दुर्लभ हस्तलिखित ग्रंथ से संबंधित है।यह
ग्रन्थ नस्तालिक लिपि में लिखा गया है,इसे 1865-87 ई.वी. में नवाब मुहम्मद कल्ब-ए अली खान
के शासनकाल के दौरान लिखा गया था।
इस ग्रन्थ में जश्न-ए-बेनज़ीर (jashn-e-benazir) (अतुलनीय
त्योहार) कहे जाने वाले शाही त्योहार के बारे में लिखा गया है, जिसका उद्घाटन 1866 में नवाब
कल्ब-ए-अली खान (1865-87) द्वारा किया गया था। इस मेले के आयोजन का उद्देश्य उनके राज्य
में कला, संस्कृति और व्यापार का प्रचार प्रसार करना था।
इसमें कवि भगवान से प्रार्थना कर रहा है कि "इस मेले का आयोजन प्रतिवर्ष हो"।यह ग्रन्थ तुकबंदी
वाली पंक्तिबद्ध कविताओं के रूप में लिखा गया है जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं:
असगर 'अली हकीम वो है दास्तान-जो'
अहमद अली से कम नहीं कासिम अली से जो
हैं लखनऊ के चारब-जुबान वुही क्यों ना हो
सैय्यद 'अली भी फ़र्द हैं इस फन में आज तो'
झड़ते हैं फूल मुंह से 'अजब खुश-जुबान हैं'
बुलबुल की तरह कहते हैं सदा दास्तान हैं
इन पंक्तियों में असगर अलि की तुलना अहमद अली या कासिम अली से की गयी है। यह लखनऊ
के निवासी हैं और उनकी वाणी बहुत ही मधुर है। सैय्यद अली भी एक अच्छे वक्ता हैं, जो बड़े ही
रोमांचक तरीके से अपने किस्से सुनाते हैं।
इस ग्रन्थ के लघु चित्रों में उपयोग किए गए पानी के रंग कंपनी शैली (company style) में हैं, इन
लघुचित्रों में बेनज़ीर महल की वास्तुकला और मैदानों, दुकानों और विक्रेताओं, संगीतकरों, गायकारों,
नर्तकियों और उन सभी प्रतिभागियों जिन्होंने इस मेले में हिस्सा लिया, को बहुत ही आकर्षक तरीके
से दर्शाया गया है।इस ग्रंथ के एक सचित्र पृष्ठ में कलकत्ता की नर्तकी बन्नी उत्सव के दौरान प्रदर्शन
करती हुई दिखाई गई है।मीर यार अली द्वारा अनुवादित यह ग्रन्थ भारत-इस्लामी साहित्यिक
संस्कृति की एक अल्पज्ञात लेकिन शानदार कृति है।
नवाब को श्रद्धांजलि देने के उद्देश्य से लिखी गयी यह कविता एक लोक-चित्रावली है जो
तत्कालीन सामाजिक उथल-पुथल के शिखर पर विभिन्न वर्गों को दर्शाती है। उनमें अभिजात वर्ग,
प्रतिष्ठित कलाकार और आम लोग शामिल हैं, जो इस उत्सव में एक साथ शामिल हुए थे। यह
कविता, इतिहास एवं जीवनी तथा काव्य सम्मेलन और सामाजिक विवरण के बीच के अंतर को धुंधला
कर देती है।
यह पुस्तक प्रसिद्ध ख्याल गायकों, तालवाद्यकारों, और वादकों, दरबारियों, बाल-नर्तकियों, कवियों,
कथाकारों (दास्तोंगो) और गीतकारों (मार्सियागो) का एक वास्तविक संग्रह है।यह कविता "काव्य
नृवंशविज्ञान" विधा में लिखी गयी है , जिसमें विभिन्न साहित्यिक विधाएं शामिल हैं। जिसके
परिणामस्वरूप इसमें विभिन्न प्रकार के मनोरंजन, व्यवहारिक गुणों और जाति समूहों के बीच
सामाजिक भेद का समायोजन हो गया है।यह कविता कवियों, कहानीकारों और शोकगीत के पाठ करने
वालों की चर्चाओं में अक्सर जीवंत हो उठती है। यह कविता लिंग भेद से ऊपर उठी हुयी है, इसमें
सबको उनकी कला से पहचाना जाता है।
1857 के विद्रोह की आंधी के साथ मुगल और अवध राज्य एक झटके में तितर-बितर हो गए, जिसने
उत्तर भारत के राजनीतिक परिदृश्य को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया। हालांकि, रामपुर राज्य
संयुक्त प्रांत में एकमात्र मुस्लिम शासित रियासत के रूप में जीवित रहने में कामयाब रहा क्योंकि
नवाब यूसुफ अली खान (1855-1865) ने ब्रिटिश राज के लिए महत्वपूर्ण सेवाएं प्रदान कीं। उनके बेटे
कल्बे अली खान (1865-86) को 1857 के बाद सिंहासन विरासत में मिला और उन्होंने संप्रभुता की
एक नई परिभाषा गढ़ने में कामयाबी हासिल की। एक रियासत के रूप में रामपुर स्थानीयकृत और
नियंत्रित था, लेकिन हम यह भी पाते हैं कि सीमित संप्रभु राजनीतिक क्षेत्र के भीतर यहां के शासक
ने "काव्य संप्रभुता" और इसके संरक्षक की पारंपरिक भूमिका को बनाए रखने का हर संभव प्रयास
किया। रामपुर के नवाबों द्वारा कवियों का भरण-पोषण किया जाता था।
कल्बे अली खान के शासन के दौरान लिखी गयी जश्न-ए-बेनजीर में विभिन्न कवियों का उल्लेख
किया गया है, जो कि भिन्न भिन्न श्रेणियों से संबंधित थे।इसमें अमीर मिनाई, दाग दिहलवी, जलाल
लखनवी और मंसूर शामिल हैं।फ़ारसी और उर्दू शायरी के उस्तादों के अलावा, हम इसमें स्थानीय रुबाई
का पाठ करने वालों का भी उल्लेख देख सकते हैं, जिन्होंने इस मेले में हिस्सा लिया था।कलाकारों
के सर्वेक्षण में प्रसिद्ध दास्तान-गोस (कथाकार) हकीम असगर 'अली, मीर अहमद' अली, कासिम 'अली,
मीर नवाब, सैय्यद' अली, मुंशी अंबा प्रसाद, गुलाम महदी और गुलाम रजा शामिल हैं।
इन परिच्छेदों के माध्यम से हमें पता चलता है कि प्रसिद्ध रेख़ती संगीतकार लखनऊ से चले गए
और इन्होंने रामपुर में शरण ली, जहाँ न केवल उन्हें संरक्षण दिया गया था, बल्कि इस मरती हुई
कला को उस दौरान उभरी प्रिंट संस्कृति और रामपुर पुस्तकालय के साथ-साथ प्रकाशन उपक्रमों के
माध्यम से भी संरक्षित किया गया था।उस दौरान अभिनेताओं और कलाकारों की सूची में धार्मिक
विभाजन की आधुनिक भावना का पालन नहीं किया गया है। मुंशी अंबा प्रसाद जैसे गैर-मुस्लिम,
कुशल दास्तान-वक्ता थे जिन्हें रामपुर के नवाबों का संरक्षण प्राप्त था। उनके उल्लेखनीय दास्तानों
में चाहर रंग, दास्तान-ए-सुल्ताना फ़ित्ना और दास्तान-ए-फ़ारुख़ सहसवर हैं। उनके पुत्र गुलाम महदी
ने भी रामपुर के दास्तान-गो के रूप में ख्याति अर्जित की। कविता का एक अन्य खंड दरबारी
संगीतकारों की पहचान और कलात्मकता को दर्शाता है।
1911 में एक अज्ञात फोटोग्राफर द्वारा बेनज़ीर महल की तस्वीर ली गयी। रामपुर की तस्वीरों का
यह एल्बम नवंबर 1911 में फेस्टिवल ऑफ एंपायर (Festival of Empire) द्वारा भारत कार्यालय को
प्रस्तुत किया गया था।
संदर्भ:
https://bit.ly/3wJgYpz
https://bit.ly/3AWyKcx
https://bit.ly/2UNvqjm
https://bit.ly/2VyjdPK
https://bit.ly/2U48w7o
https://bit.ly/3eeAZOn
चित्र संदर्भ
1.रामपुर के रजा पुस्तकालय का बाहरी चित्रण (flickr)
2.1865-87 ई.वी. में रामपुर नवाब मुहम्मद कल्ब-ए अली खान का एक चित्रण (wikimedia)
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