नीला रंग दुनिया में सर्वाधिक पसंद किया जाने वाला रंग है, साथ ही यह प्राकृतिक तौर पर पाये जाने वाले सबसे दुर्लभ रंगों में से भी एक है। औद्योगिक क्रांति के दौरान लीवाई स्ट्रॉस की नीली डेनिम जींस (Levi Strauss' s blue denim jeans) की लोकप्रियता के कारण, प्राकृतिक नील की मांग में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई। चूँकि इस रंग की प्राकृतिक निष्कर्षण प्रक्रिया महंगी थी और बढ़ते परिधान उद्योग, इसका आवश्यक मात्रा में उत्पादन नहीं कर पा रहे थे, इसलिए, रसायनज्ञों ने डाई बनाने के सिंथेटिक तरीकों की खोज शुरू कर दी। नील को कई तरीकों से तैयार किया जाने लगा। सन 1865 में, जर्मन रसायनज्ञ एडॉल्फ वॉन बेयर (Adolf von Baer) ने नील के बेहतर संश्लेषण पर काम करना शुरू किया, उन्होंने 1878 में अपना पहला नील संश्लेषण आइसटिन (Isatin) , दुसरे संश्लेषण सिनामिक एसिड (Cinnamic acid) , तथा तीसरे संश्लेषण के तौर पर उन्होंने 2-नाइट्रोबेंजाल्डिहाइड (2-nitrobenzaldehyde) का वर्णन किया। परंतु यह सभी नील संश्लेषण के उपाय, बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं थे, अर्थात बड़े पैमाने पर उत्पादन काफ़ी महंगा साबित हुआ, इसलिए, नील के वैकल्पिक प्रारंभिक सामग्री की खोज जारी रही। नील की मांग और खोज के परिणाम स्वरूप शीघ्र ही एनिलिन (aniline) से एन- (2-कार्बोक्सीफेनिल) ग्लाइसिन (N- (2-carboxyphenyl) glycine) के संश्लेषण ने, नील का एक नया और आर्थिक रूप से आकर्षक मार्ग प्रदान किया और 1897 में बीएएसएफ (BASF) द्वारा इसका व्यावसायिक निर्माण किया जाने लगा।
1882 में तीसरा इंडिगो संश्लेषण 2-नाइट्रोबेंजाल्डिहाइड (2-nitrobenzaldehyde) सामने आया, यह सरल था और प्रचुर मात्रा में अच्छे नील की उपज देता था, परंतु यह भी आर्थिक तौर पर व्यवहारिक नहीं था, अथवा महंगा था। नील निर्माण की इस प्रक्रिया को आमतौर पर बेयर-ड्रूसन क्रिया (Bayer–Drusen process) कहा जाता है। हालांकि, नील के आर्थिक रूप से सस्ते संश्लेषण बाद में स्विस-जर्मन रसायन विज्ञान के प्रोफेसर, कार्ल ह्यूमैन (Karl Heumann) (1850-1894) और एक जर्मन औद्योगिक रसायनज्ञ, जोहान्स फ्लेगर (Johannes Fleger) (1867-1957) द्वारा विकसित किए गए। 1914 के मध्य में बीएएसएफ (BASF) दुनिया के कुल सिंथेटिक नील का 80% उत्पादन कर रहा था, जिसके परिणामस्वरूप 1913 में प्राकृतिक नील का भारतीय निर्यात 187, 000 टन से गिरकर, मात्र 11, 000 टन रह गया। साथ ही 1913 तक विश्व भर में प्राकृतिक नील के स्थान पर पूरी तरह कृत्रिम नील ने लोकप्रियता हासिल कर ली। उस दौर में खेती करने की दो मुख्य विधियाँ प्रचलित थी, नवजोत (Navjot) और रैयती (RAIYATI) । पहली विधि में खेती प्लांटर्स (Planters) भाड़े के श्रमिकों द्वारा कराई जाती थी, तथा दूसरी विधि में खेती करने वाले स्वयं जमींदार हो सकते थे। नील की खेती प्रायः दूसरी विधि रैयती द्वारा ही की जाती थी। हमारे शहर रामपुर का भी वस्त्र उद्द्योग के अनुरूप "नील वृक्षारोपण" का वृहद् इतिहास रहा है, जहाँ 1900 वर्ष से पहले के औपनिवेशिक दिनों में इसके भयानक निहितार्थ (उलझनें) लोगों के समक्ष आये। रामपुर में रजा टेक्सटाइल मिल (Raza Textile Mill) की स्थापना होने के प्रारंभिक दिनों में सिंथेटिक इंडिगो का इस्तेमाल यहां भी किया जाने लगा, जिससे पूर्व यहाँ प्राकर्तिक नील का उद्पादन होता था।
आज भी प्राकृतिक नील दुनिया भर में सदियों से प्रतिष्ठित है, और 4000 से अधिक वर्षों से इसका उपयोग किया जा रहा है। भारत में नील के बागान 1777 से पहले के हैं, जब एक फ्रांसीसी लुई बोनार्ड ने इसे पूर्वी भारत में बंगाल में पेश किया था। उन्होंने बांकुरा, तलडांगा और हुगली जिले के गोलपारा में खेती शुरू की।
जैसा की इसके नाम से ही स्पष्ट है, इंडिगो यानी नील की उत्पत्ति भारत से हुई थी। इस उद्द्योग की कहानी ऐतहासिक रूप से दिलचस्प और दयनीय दोनों है, उत्पत्ति के साथ ही यह दुर्लभ उष्णकटिबंधीय उत्पादों में से एक था। नील की लोकप्रियता ने सर्वप्रथम यूरोपीय व्यापारियों को भारत की ओर आकर्षित किया और समुद्री मार्ग से यह धीरे-धीरे विश्वभर में प्रसारित हुआ। 1815-16 तक नील की खेती ने बंगाल में अपना एकाधिकार जमा लिया था, विस्तार के साथ ही नील की कीमतों ने असाधारण स्तरों को छुआ और इसके फलते-फूलते उद्द्योग ने ख़ूब मुनाफा कमाया। इंग्लैंड, बंगाल का सबसे प्रमुख निर्यातक देशों में से एक था, परन्तु 1827 इंग्लैंड के बाज़ारों ने भारी मंदी का सामना किया जिस कारण बंगाल का नील उत्पादन लगभग 50 प्रतिशत तक गिर गया। इसके अलावा यह गिरावट यूनियन बैंक के पतन का भी कारण बनी। यूरोप के देशों में ब्लू डाई की मांग चाय, कॉफी, रेशम और जैसी विदेशी वस्तुओं के समान थी इसलिए 19वीं शताब्दी की शुरुआत में, अंग्रेजों द्वारा ढेरों नील के बागान विकसित किए, क्योंकि यह अधिक लाभ प्रदान करने वाली फ़सल थी। आज भी, प्राकृतिक नील बेशकीमती है, विशेषतौर पर फैशन उद्योग में।
आज सिंथेटिक इंडिगो ने अधिकांश फ़ैशन उद्योग पर कब्जा कर लिया है, हालांकि, जो लोग प्राकृतिक इंडिगो रंगद्रव्य बनाने में प्रयोग की जाने वाली कला को समझते हैं, वे अभी भी प्राकर्तिक इंडिगो-रंग वाले कपड़े पहनना पसंद करते हैं।
हमारे शहर रामपुर का भी वस्त्र उद्द्योग के अनुरूप "नील वृक्षारोपण" का वृहद् इतिहास रहा है, जहाँ 1900 वर्ष से पहले के औपनिवेशिक दिनों में इसके भयानक निहितार्थ (उलझनें) लोगों के समक्ष आये। रामपुर में रजा टेक्सटाइल मिल (Raza Textile Mill) की स्थापना होने के प्रारंभिक दिनों में सिंथेटिक इंडिगो का इस्तेमाल यहां भी किया जाने लगा, जिससे पूर्व यहाँ प्राकर्तिक नील का उद्पादन होता था।
प्राकृतिक नील बनाने की प्रक्रिया बहुत जटिल है और इसके लिए अत्यधिक कौशल की आवश्यकता होती है। आज, नील की खेती ज्यादातर भारतीय राज्यों तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और राजस्थान में की जाती है। उनमें से ज्यादातर छोटे किसान या पारंपरिक उत्पादक हैं, जो पीढ़ियों से इस व्यवसाय में हैं।
संदर्भ
https://bit.ly/35NoHrU
https://bit.ly/3gQNem5a
https://bit.ly/35P3n5l
https://bit.ly/2T5fMiH
चित्र संदर्भ
1. इंडिगो, जर्मनी के ड्रेसडेन के तकनीकी विश्वविद्यालय का ऐतिहासिक संग्रह का एक चित्रण (wikimedia)
2. इंडिगो डाई अणु का बॉल-एंड-स्टिक मॉडल का एक चित्रण (wikimedia)
3. इंडिगो-डाई टैगेलमस्ट पहने हुए टौअरेग्स (Touaregs) का एक चित्रण (wikimedia)
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.