कई बार हमें देश-विदेश में बड़ रही शरणार्थियों की समस्यां का जिक्र सुनने को मिल जाता है, उनकी
स्थिति देखकर अपने घर की छत कीमती लगने लगती है। भला कौन व्यक्ति चाहेगा की उसे अपने
घर अथवा देश को मजबूरन छोड़कर किसी दूसरे देश में शरण लेनी पड़े, वह भी असुरक्षा के साथ।
कई देशों के लिए शरणार्थी एक समस्या है, परंतु दुर्भाग्यवश इन शरणार्थियों की अपनी विकट
समस्याएं हैं। हालाकिं इनके भी अपने कुछ मूल अधिकार हैं।
1951 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा पहली बार शरणार्थी सम्मलेन आयोजित किया गया, और उन्हें पहली
बार परिभाषित किया गया। उनके अनुसार "शरणार्थी वे लोग होते हैं, जो अपनी जाति , धर्म,
राष्ट्रीयता, राजनीतिक राय अथवा सामाजिक समूह के द्वारा निर्ममता से प्रताड़ित किए गए हो,
तथा जिस कारण उन्हें अपना घर एवं मूल देश छोड़ना पड़े और किसी अन्य देश में शरण लेनी पड़े।
ये वस्तुतः दुनिया में सबसे कमजोर लोग होते हैं, जिन्हे मानवता के सबसे बुनियादी अधिकारों से
भी वंचित कर दिया जाता है।
हालाँकि 1951 के शरणार्थी सम्मेलन और इसके 1967 के प्रोटोकॉल के अनुसार शरणार्थियों के
अपने अधिकार होते हैं, जिनके तहत उन्हें किसी अन्य देश में भी विदेशियों की भांति सम्मान दिया
जाना चाहिए, तथा कई मामलों में उनके साथ देश के मूल नागरिकों के समानं ही व्यवहार होना
चाहिए। 1951 का शरणार्थी सम्मेलन मेजबान देशों में जाने पर उस देश के प्रति शरणार्थियों के
दायित्वों पर भी प्रकाश डालता है। यह दायित्व गैर-शोधन के सिद्धांत परधारित हैं, जिसके अनुसार
किसी भी शरणार्थी को वापस उस देश में नहीं लौटाना चाहिए, जहां वह आज़ादी अथवा जीवन के
संबंध में गंभीर खतरे का सामना कर चुका हो। परंतु यह सिद्धांत उन शरणार्थियों पर लागू नहीं
होता जिन्हे पहले से ही देश की सुरक्षा के लिए खतरा माना गया हो अथवा जो गंभीर अपराध के
दोषी साबित हुए हों। 1951 के कन्वेंशन (Convention) में कुछ शर्तों के साथ इन्हे विशेष अधिकार
दिए गए, जैसे:-
1. मेज़बान देश में कुछ शर्तों को छोड़कर, देश से निष्कासित न करने का अधिकार।
2. देश के किसी अन्य राज्य अथवा क्षेत्र में अवैध रूप से प्रवेश करने पर दंडित न होने का अधिकार।
3. मेज़बान देश में काम करने का अधिकार।
4. मेज़बान देश में आवास तथा शिक्षा का अधिकार।
5. सार्वजनिक राहत और सहायता का अधिकार।
6. देश की अदालत की सहायता लेने का अधिकार।
7. निर्धारित क्षेत्र के भीतर आंदोलन करने की स्वतंत्रता का अधिकार।
8. पहचान एवं यात्रा संबंधी दस्तावेज प्राप्त करने का अधिकार।
इसके अलावा वे जितने लम्बे समय तक मेज़बान देश में रहते हैं उतने ही अधिक उनके अधिकार
भी बड़ने लगते हैं।
दुनिया भर में शरणार्थियों की अनिश्चित स्थित्ति के परिपेक्ष्य में जागरकता
बढ़ाने लिए 20 जून को विश्व शरणार्थी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इससे आम जनता में
युद्ध, उत्पीड़न और संघर्ष के कारण अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर हो चुके, लोगों के बारे में एक
नजरिया बनता है। 2017 में यूएनएचसीआर (UNHCR) ने अपनी एक रिपोर्ट प्रतिपादित की
जिसके अनुसार भारत में लगभग 2,00,000 शरणार्थी पनाह ले रहे हैं, जिनमे से अधिकांश
म्यांमार, अफगानिस्तान, सोमालिया, तिब्बत, श्रीलंका, पाकिस्तान, फिलिस्तीन और बर्मा जैसे
देशों से अल्पसंख्यक हैं, जो भारत को एक सुरक्षित पनाहगाह के रूप में देखते हैं। यूएनएचसीआर
(UNHCR) ने शरणार्थी संकट से निपटने के परिपेक्ष्य में भारत की सराहना करते हुए कहा, कि
भारत अन्य देशों के लिए शरणार्थी समस्या के सन्दर्भ में एक रोल मॉडल है। जबकि भारत उन देशों
में भी शामिल नहीं है, जिन्होंने 1951 के शरणार्थी सम्मेलन में हस्ताक्षर किए थे। क्यों की द्वितीय
विश्व युद्ध की समाप्ति की बाद जब संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के लिए पहली बार कन्वेंशन का
प्रस्ताव दिया गया, तो भारत ने इसे एक अन्य शीत युद्ध रणनीति के रूप में देखा। साथ ही भारत
स्वतंत्रता के बाद भारत तटस्थ रहने की कोशिश कर रहा था। और इसलिए उस समय कन्वेंशन पर
हस्ताक्षर नहीं किया था। यद्यपि किन्ही आधिकारिक कारणों से भारत ने इस कानून का परहेज
नहीं किया, हालंकि संभावित कारणों में से एक कन्वेंशन में 'शरणार्थी' शब्द की परिभाषा भी हो
सकती है, जिसमे केवल जाति, धर्म और राष्ट्रीयता के आधार पर सामाजिक और राजनीतिक
अधिकारों या उत्पीड़न के लिए शरणार्थी को परिभाषित किया गया था और जहाँ हिंसा या गरीबी को
शरणार्थी होने के कारणों में नहीं गिना गया था। उस समय यह भी विचार गया कि हमारा देश पहले
से ही 1.2 अरब लोगों की आबादी के साथ संघर्ष कर रहा है, ऊपर से नए आने वाले शरणार्थी औसत
मज़दूरी को कम कर सकते हैं। साथ ही इनकी बढ़ती संख्या संसाधनों पर भी भरी दबाव डालती है,
और कुछ मामलों में शरणार्थी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अपवाद भी हो सकते हैं, क्यों की इनकी आड़
में देश में आंतकवादी भी घुस सकते हैं। इसके अलावा, पूर्वोत्तर राज्यों जैसे त्रिपुरा, मेघालय और
असम जैसे छोटे राज्यों में, शरणार्थियों के एक बड़े प्रवाह के कारण मूल निवासी अपने ही राज्य में
अल्पसंख्यक बन जाएंगे। यही सब कुछ ऐसे कारण है जिनकी वजह से भारत ने 1951 के शरणार्थी
सम्मेलन पर हस्ताक्षर करने में असमर्थता दिखाई। परन्तु हस्ताक्षर न करने के बावजूद भी भारत
शरणार्थियों को पनाह देकर समग्र विश्व के सामने एक बेहतरीन मिसाल पेश कर रहा है। साथ ही
हमें देश की आतंरिक सुरक्षा और संसाधनों की समस्या को भी अपने दृष्टि पटल में रखकर किसी
भी शरणार्थी को देश में स्थान और अधिकार देने की आवश्यकता है।
संदर्भ
https://bit.ly/35KvRNi
https://bit.ly/2TTlVOR
https://bit.ly/3gJVPHm
चित्र संदर्भ
1. यूएनएचसीआर (UNHCR) द्वारा शरणार्थी बच्चों का एक चित्रण (flickr)
2. UNHCR द्वारा भारत से नौका द्वारा लौटने वाले श्रीलंकाई शरणार्थियों के पहले समूह की मदद करने का एक चित्रण (flickr)
3. अगस्त 2013 में जॉर्डन के रामथा में एक क्लिनिक में सीरिया के शरणार्थी बच्चों का एक चित्रण (wikimedia)
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