विश्व भर में मानव जनसंख्या आसमान छू रही है, ऐसा माना जा रहा है कि 2025 तक मानव आबादी के 8 बिलियन तक बढ़ने का अनुमान है।जैसे-जैसे शहर बढ़ते जा रहे हैं, इस ग्रह में रहने वालेअन्य जीवों पर इसका काफी गहरा प्रभाव पड़ रहा है, उन्हेंशहर के अनुकूलन रहने में मजबूर होना पड़ रहा है, या उनके विलुप्त होने का जोखिम बड़ गया है। हालांकि शहर में रहने वाले जानवरों ने अपने नए वातावरण में कुछ उल्लेखनीय समायोजन किए हैं। उदाहरण के लिए,बंदर, जो मानव भोजन पर कई अधिक निर्भर हो चुके हैं। रैकून (Raccoon)द्वारा नट और कीड़े खाने से लेकर कूड़ेदानों से पेट भरते हुए देखा गया है। चूहे और कबूतर शहरी जीवन के पर्याय बन गए हैं। और फिर वहाँ पेरेग्रीन बाज़ (Peregrine falcons) हैं, जो विशाल गगनचुंबी इमारतों के बीच रहते हैं।चूहे की प्रजातियां मनुष्यों के बीच सैकड़ों वर्षों से नहीं तो हजारों वर्षों से फल-फूल रही हैं।लेकिन मानव द्वारा इन्हें अपनाया नहीं जाता है, क्योंकि ये कई प्रकार के रोग वाहक होने के साथ-साथ काफी नुकसान भी करते हैं।गर्मी और भोजन की तलाश में चूहे हर साल अनुमानित 21 मिलियन अमेरिकी (American) घरों में प्रवेश करते हैं।
अक्सर "आकाश का चूहा" कहे जाने वाले कबूतर को अपने कृंतक समकक्ष की तरह ही शहरों के विस्तार से उतना ही लाभ हुआ है।मानव शहरों के प्रसार में नाटकीय रूप से प्राकृतिक शिकारियों की संख्या कम हो गई है, और लाखों लोगों द्वारा इनके लिए खाना प्रदान किए जाने की वजह से ये काफी अच्छे से शहरों में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त, कबूतरों के लिए शहर की इमारतें उत्तम प्रजनन स्थान के रूप में काम करती हैं।व्यावहारिक रूप से हर शहर में कबूतर मुख्य आधार हैं,दुनिया भर में कबूतरों की संख्या 28 मिलियन तक हो सकती है।दुनिया भर में मानव शहरीकरण के बड़े पैमाने पर विस्तार से सबसे अधिक लाभान्वित रैकून हुए हैं। शहरी जीवन वास्तव में रैकून के लिए इतना अच्छा है कि वे तदनुसार विकसित हो सकते हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि शहर में रहने वाले रैकून जंगल में अपने समकक्षों की तुलना में अधिक चतुर होते हैं।शहरों के विस्तार के साथ तिलचट्टे का भी विस्तार होना आम है, ऐसा मान सकते हैं कि विश्व भर में प्रत्येक घरों में तिलचट्टे पाए जा सकते हैं।
जो लोग उत्तरी अमेरिका और यूरोप में रहते हैं, उनके लिए बंदरों को जंगल में रहने वाले आराध्य जीव के रूप में देखा जाता है, लेकिन जैसा कि हम जानते ही हैं कि भारत में ये लगभग प्रत्येक शहर में मानव आबादी के बीच पाए जा सकते हैं। दिल्ली 30,000 बंदरों का घर है, जो खाना, शराब, चश्मा और कपड़े चुराने के लिए जाने जाते हैं। बुद्धि, और मनुष्यों के डर की कमी, बंदरों को शहरों में पनपने देती है।बंदरों के आतंक से भारत के लगभग अधिकांश लोग परेशान होंगे, बंदर घरों में घुसकर खाने-पीने के सामान का नुकसान करने के साथ-साथ कई बार लोगों पर हमला भी कर देते हैं। इन्हें भगाने के लिए कई तरह की तरकीब अपनाई जाती है। नई दिल्ली में इन आक्रमक बंदरों और अन्य जंगली जानवरों को डराने के लिए हनुमान लंगूरों (सेमनोपिथेकस वंश की एक प्रजाति) को प्रशिक्षित किया जाता है। जब शहर ने 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी की थी, तो वहाँ के नगरपालिका परिषद ने 38 लंगूरों को बंदरों के नियंत्रण में मदद करने के लिए उपयोग किया था। हनुमान लंगूरों को रक्षक के रूप में अधिक मूल्यवान माना जाता है, हिन्दू उन्हें वानर देवता हनुमान के प्रतीक के रूप में पूजते हैं। रामायण की कथा में बताया गया है कि हनुमान जी और उनकी वानर सेना ने देवी सीता को राक्षस रावण से बचाने के लिए भगवान राम की मदद की थी। साथ ही यह भी बताया गया है कि जब रावण की लंका में हनुमान जी की पूँछ में आग लगाई गई थी, तब लंगूर हनुमान जी के घाव को लेकर काफी चिंतित हुए थे।
हनुमान लंगूर को ग्रे लंगूर (Gray Langur) भी कहा जाता है, भारत में यह लंगूर उत्तर-प्रदेश राज्य में भी देखा जा सकता है। परंपरागत रूप से केवल एक प्रजाति सेमनोपिथेकस एंटेलस (Semnopithecus Entellus) की ही जानकारी प्राप्त हुई थी, लेकिन 2001 के बाद से, अतिरिक्त प्रजातियां भी देखने को मिली हैं। वर्तमान समय में आठ प्रजातियों को मान्यता दी गई है।हनुमान लंगूर स्पष्ट रूप से स्थलीय क्षेत्रों, जंगलों, लकड़ी के घने जंगलों और भारतीय उपमहाद्वीप के शहरी क्षेत्रों में पाये जाते हैं। अधिकांश प्रजातियाँ कम से मध्यम ऊंचाई पर पाई जाती हैं किंतु नेपाल और कश्मीर में पाये जाने वाले हनुमान लंगूर हिमालय में 4,000 मीटर (13,000 फीट) तक भी पाये जा सकते हैं। ये लंगूर काले चेहरे और काले कान के साथ काफी हद तक ग्रे (कुछ और पीले) होते हैं। आमतौर पर सभी उत्तर भारत के ग्रे लंगूर सामान्य चाल के दौरान अपनी पूँछ को पीठ के ऊपर से सिर की ओर ले जाकर एक छल्ला बनाते हैं, तथा पूँछ का अगला भाग शरीर के दाईं या बाईं ओर गिरता है, जबकि सभी दक्षिण भारतीय और श्रीलंकाई ग्रे लंगूरों की किस्में अपनी पूँछ को उदगम स्थल से ऊपर उठाकर सिर से पीछे की ओर मोड़कर, अगला हिस्सा गिरा देते हैं, जिससे पूँछ की अंग्रेजी के “U” या “S” अक्षर की आकृति बनती है।
वहीं लिंग के आधार पर इनके आकार में भी काफी बदलाव देखा जा सकता है, इनमें नर हमेशा मादाओं से बड़े होते हैं। सिर और शरीर की लंबाई 20 से 31 इंच तक होती है। उनकी पूंछ, 27 से 40 इंच हमेशा उनके शरीर से अधिक लंबी होती है।लंगूर ज्यादातर चौगुना चलते हैं और अपना आधा समय जमीन पर और बाकी आधा पेड़ों में बिताते हैं, तथा यह पुरानी दुनिया के बंदरों के वंशज है जोकि भारतीय उपमहाद्वीप के मूल निवासी हैं। ऐसा माना जाता है कि लगभग 40 मिलियन वर्ष पहले दुनिया में बंदरों के बीच एक महत्वपूर्ण विभाजन हुआ था। नई दुनिया के बंदर दक्षिण अमेरिका (South america) में रह रहे थे और पुरानी दुनिया के अफ्रीका (Africa) में एप्स (Apes) के साथ रह रहे थे। नई दुनिया के बंदरों ने दक्षिण अमेरिका की ओर प्रवास करना शुरू किया था, वे वहाँ वनस्पति के विभिन्न रूपों से बने बेड़ों का उपयोग करके आए होंगे या कोई अन्य गतिविधियों का उपयोग करके। केवल इतना ही नहीं ये शारीरिक असमानताओं के कारण भी एक दूसरे से भिन्न हैं।
वहीं भारत में ग्रे लंगूर की आबादी कुछ क्षेत्रों में स्थिर है किंतु कुछ में काफी घट गयी है। काले पैर वाले ग्रे लंगूर और कश्मीर के ग्रे लंगूर दोनों को संकट की स्थिति में माना जा रहा है। काले पैर वाले ग्रे लंगूर बहुत ही दुर्लभ हैं, जिसमें 250 से भी कम वयस्क लंगूर शेष हैं। भारत में, ग्रे लंगूरों की संख्या लगभग 3,00,000 है। लंगूरों को पकड़ने या मारने पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून भी निर्मित किये गये हैं किंतु फिर भी देश के कुछ हिस्सों में उनका अब भी शिकार किया जाता है। इन कानूनों को लागू करना मुश्किल साबित हुआ है और ऐसा लगता है कि अधिकांश लोग कानून से अनजान हैं। खनन, जंगल की आग और लकड़ी के लिए वनों की कटाई आदि उनके अस्तित्व के लिए खतरा है।इसके अलावा लंगूर सड़कों के पास भी पाए जाते हैं जिससे वे वाहन दुर्घटनाओं के शिकार होते हैं। उनकी पवित्र स्थिति और अन्य बंदरों की तुलना में उनके कम आक्रामक व्यवहार के कारण, लंगूरों को आमतौर पर भारत के कई हिस्सों में खतरनाक नहीं माना जाता है। लेकिन कुछ क्षेत्रों में अनुसंधान गांवों से लंगूरों को हटाने के लिए उच्च स्तर में मांग की जाती हैं।
हम भूल जाते हैं कि हम इस समय ग्रह पर उत्क्रांति का सबसे बड़ा कारण हैं।शहरों में मानव आबादी का विस्तार अब जानवरों को बदल रहे हैं।हालांकि जिन जानवरों के आवास को हम नष्ट कर रहे हैं, उनके साथ सद्भाव में रहने के लिए हमें बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।ऐतिहासिक रूप से देखा जाएं तो,जानवरों का शहरों के अनुकूल होना सही नहीं है। जैव विविधता, या किसी क्षेत्र में प्रजातियों की संख्या को कम करने के लिए मानव विकास को अच्छी तरह से प्रलेखित किया गया है।जहां नर पहाड़ी शेर ने एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी में जाने के लिए राजमार्गों को पार करना सीख लिया है, वहीं वे कई बार इस बीच फंस जाते हैं। ओर राजमार्गों के निर्माण की वजह से न केवल वे साथी खोजने और प्रजनन करने में असमर्थ हैं, बल्कि नर जो दूसरे नर के साथ एक ही स्थान में नहीं रह सकते, अधिकतर स्थान के लिए एक दूसरे को मार देते हैं। जिससे उनकी आबादी प्रभावित हो रही है। कई बार पहाड़ी शेरकारों से और कृंतक नाशक से भी मारे जाते हैं। कृंतक नाशक बॉबकैट (Bobcat) के लिए भी एक बड़ी समस्या है, जो सांता मोनिका (Santa Monica) के आसपास के शहरी इलाकों में काफी घनी संख्या में रहते हैं। हालांकि वास्तविकता यह है कि मानव द्वारा ग्रह का शहरीकरण बंद करना असंभव है, इसलिए हमारे द्वारा शहरों को वन्यजीवों के अनुकूल बनाने पर विचार करना चाहिए और उनके साथ सामंजस्य बनाकर रहने की कोशिश करनी चाहिए।
संदर्भ :-
https://bit.ly/3cRpNH7
https://on.natgeo.com/2SB8KlJ
https://bit.ly/3q8lhcy
https://on.natgeo.com/3q5Qj4V
https://bit.ly/3zFD2V8
https://bit.ly/35yEsmf
https://bit.ly/2ScUZcG
चित्र संदर्भ:
1. शहर में बंदर (youtube)
2.शहरी वातावरण में बंदर (youtube)
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