भारत एवं एशिया में पांडुलिपियों का इतिहास

लखनऊ

 01-06-2021 08:55 PM
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली

इंसानो की हमेशा से ही यह जिज्ञासा रही है की वे अपने द्वारा किये गए कर्मो तथा अपनी परम्पराओं और मान्यताओं को आनेवाली पीढ़ियों तक प्रेषित करें। आज भी हम हज़ारों सालों पहले की घटनाओं और परम्पराओं से भली भांति परिचित है, जिसका श्रेय हम पांडुलिपियों को दे सकते हैं।
पाण्डुलिपि (manuscript) किसी एक व्यक्ति अथवा एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा हस्तलिखित दस्तावेज होते हैं। इन दस्तावेजों में इतिहास, महान ग्रन्थ, धर्म संबंधी क्रियाकलाप वर्णित होते हैं। 16 वीं सदी में हिन्दू भागवत पुराण भी ताड़पत्रों पर लिखा गया था। ये हस्तलिखित पत्र होते हैं। मुद्रित किया हुआ या किसी अन्य विधि से, (यांत्रिक/विद्युत रीति से) नकल करके तैयार दस्तावेज, पाण्डुलिपि श्रेणी में नहीं आते। प्राचीन समय में ज्ञान और विभिन्न शोधों का संरक्षण करने के लिए भी इसका निर्माण किया जाता था। पांडुलिपियां अनेक प्रकार से वर्णित की जा सकती हैं, परन्तु इनमे से अधिकांश को ताड़पत्र, भोजपत्र, ताम्रपत्र और सुवर्णपत्र आदि पर लिखा गया है। वर्तमान में सर्वाधिक मातृ ग्रंथ अथवा पांडुलिपियां भोजपत्रों और ताड़पत्र में प्राप्त होते हैं। सूखे ताड़ के पत्तों पर लिखी गयी पाण्डुलियाँ ताड़पत्र कहलाती हैं।
लेखन सामग्री के रूप में ताड़पत्तों का सबसे पहले प्रचलन भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्व एशिया में पांचवी शताब्दी अथवा उससे भी पूर्व शुरू हो गया था। धीरे- धीरे उनका विस्तार दक्षिण एशिया से बढ़कर विश्व के दूसरे क्षेत्रों में होने लगा। इन पत्रों में बोरासस प्रजाति के सूखे और धुएं से उपचारित ताड़ के पत्ते (पालमायरा पाम) या ओला लीफ (कोरिफा अम्ब्राकुलीफेरा या टैलीपोट पाम की पत्ती का उपयोग किया जाता था। नेपाल में पाया गया ताड़ के पत्तों में संस्कृत शैव धर्म पाठ ज्ञात प्राचीन पाण्डुलिपि है जो की वर्तमान में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय पुस्तकालय में संरक्षित किया गया है। जिसे 9 वीं शताब्दी का माना जाता है। चीन के किज़िल गुफाओं में भी ताड़ के पत्तों के संग्रह स्पिट्जर पांडुलिपि (Spitzer manuscript) पायी गयी हैं, जिन्हे लगभग दूसरी शताब्दी का बताया जा रहा है, यह अब तक की ज्ञात सबसे पुरानी दार्शनिक पनुलिपियों में से एक हैं। ताड़ के पत्तों पर पाण्डुलिपि करने के लिए सर्वप्रथम इन पत्तों को आयताकार काटा जाता था, फिर एक धारदार कलम से इन पत्तों पर शब्द उकेरे जाते थे, उकेरे गए शब्दों के गहरे तल पर स्याही भरकर सतह की स्याही को मिटा दिया जाता था, और इस प्रकार निर्मित ताड़पत्रों को एक छिद्र के माध्यम से डोरी से एक साथ बाँध दिया जाता था। इस तरह से निर्मित ताड़पत्र आमतौर पर नमी, कीटों , और जलवायु से कई दशकों (लगभग 600 वर्षों ) तक सुरक्षित रह सकते थे। दुनिया में खोजी गयी सबसे पुरानी भारतीय पांडुलिपियां नेपाल, तिब्बत और मध्य एशिया के कुछ ठंडे और शुष्क स्थलों पर प्राप्त हुई हैं, जो लगभग पहली शताब्दी की मानी जा रही हैं। ताड़ के पत्तों की अनेक परतों को संस्कृत भाषा में पत्र अथवा परना कहा जाता था. तथा लेखन हेतु तैयार पत्रों को ताला-पत्र अथवा ताड़ी से सम्बोधित किया जाता था।
ताड़ के पत्तों पर लेखन प्रायः प्राचीन भारत के हिन्दू मंदिरों और ग्रंथों के इतिहास संरक्षित करने के लिए किया जाता था। इन मंदिरों को पांडुलिपियों के शिक्षण स्थल के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता था, तथा यही पर आमतौर पर इनका लेखन भी किया जाता था। इंडोनेशिया, कंबोडिया, थाईलैंड और फिलीपींस जैसे दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भारतीय संस्कृति के प्रसार के साथ, ही पांडुलिपियों का विस्तार भी होने लगा। पुरातत्वविदों ने इंडोनेशिया के बाली मंदिर में लोंटार नामक ताड़-पत्ती पांडुलिपियों की खोज की है, और कंबोडियाई मंदिरों में भी 10 वीं शताब्दी की अंगकोर वाट और बंटेय श्रेई ताड़पत्र खोजे गए हैं।
हमारे शहर की रामपुर रज़ा पुस्तकालय में भी ताड़पत्तियों की कई बहुमूल्य पांडुलिपियां है, इनमे से अधिकांश तेलुगु, संस्कृत, कन्नह, सिंहली और तमिल भाषाओं में लिखी गयी हैं।
सामान्यतः इन पांडुलिपियों में धार्मिक चरित्रों का वर्णन है। यह ताड़पत्र कई मायनो में खास हैं, इन्ही में से एक पांडुलिपि हमें विषाक्त बिमारियों ठीक करने के परिपेक्ष्य में कई जड़ी-बूटियों के औषधीय गुणों के बारे में बताती है। संस्कृत में लिखी गयी एक अन्य ताड़ पाण्डुलिपि में रामायण को भामावचकम् के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इंडोनेशिया में ताड़पत्रों को लोंटार कहा जाता है। इंडोनेशिया में ताड़पत्रों (लोंटार) को बाली और जावानी भाषा में लिखा जाता था। यहाँ कई दशकों से आज तक बाली में कई अनूठे ताड़पत्र संरक्षित किये गए हैं। ऐसी पांडुलिपियों का सबसे बड़ा संग्रह ब्राह्मणवादी परिसरों और शाही महलों में पाया गया है। अकेले बाली में इनकी संख्या दसियों हज़ार हो सकती है। इनमे से अधिकांश को पूर्वजों से मिली पवित्र विरासत के तौर पर संजोया गया है, और पूजा जाता है, या नियमित रूप से उपयोग किया जाता है अर्थात, पढ़ा जाता है। आज कई पुस्तकें हैं जिन्हे बहुत कम बालिनीज़ जो उच्च बालिनी, पुरानी जावानीज़ (कावी), और संस्कृत पढ़ सकते हैं। लोंटार का संग्रह उदयन विश्वविद्यालय, द्विजेंद्र फाउंडेशन, पुसैट डोकुमेंटसी बुदया बाली (बालिनी संस्कृति के दस्तावेज़ीकरण केंद्र) में, बाली संग्रहालय में, और बलाई भाषा (भाषा केंद्र) में पुस्तकालयों में भी किया गया है।

संदर्भ
https://bit.ly/3fZdVDB
https://bit.ly/3p46jUq
https://bit.ly/3c3lkk5
https://bit.ly/3fTqtfC
https://bit.ly/3i4VmAj

चित्र संदर्भ
1. वराहमिहिरम की ६वीं शताब्दी बृहत संहिता 2C1279 सीई हिंदू पाठ ताड़ के पत्ते की पांडुलिपि का एक चित्रण (wikimedia)
2. सेंचुरी सीई संस्कृत किज़िल चाइना स्पिट्जर पांडुलिपि फोलियो 383 टुकड़ा रेक्टो और वर्सो का एक चित्रण (wikimedia)
3. उड़िया लिपि में १६वीं शताब्दी की ताड़ के पत्तों की पांडुलिपियों का एक चित्रण (wikimedia)


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