वीणा (Veena) उन तीन दिव्य संगीत वाद्ययंत्रों में से एक है, जिसके साक्ष्य वैदिक काल (बांसुरी और मृदंगम के साथ) से प्राप्त होते हैं। कला की देवी सरस्वती को हमेशा वीणा के साथ दिखाया जाता है, इसलिए यह इस बात का प्रतीक है, कि सभी प्रकार की ललित कलाओं में वीणा का प्राथमिक महत्व है। प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय साहित्य में संस्कृत शब्द वीणा, तंत्री या तारों वाले संगीत वाद्ययंत्र को दिया गया नाम है। इसका उल्लेख ऋग्वेद, सामवेद और अन्य वैदिक साहित्य जैसे शतपथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय संहिता में भी मिलता है। प्राचीन ग्रंथों में, नारद को तांपुरा का आविष्कारक माना गया है, जिसे धातु की पट्टियों पर मौजूद सात तार वाले वाद्य यंत्र के रूप में वर्णित किया जाता है। संगीत की एक प्रोफेसर सुनीरा कासलीवाल के अनुसार, ऋग्वेद और अथर्ववेद (दोनों 1000 ईसा पूर्व), उपनिषद (800-300 ईसा पूर्व) जैसे प्राचीन ग्रंथों में, एक तार वाले वाद्ययंत्र को वाना (Vana) कहा गया, जो बाद में विकसित होकर वीणा बना। प्रारंभिक संस्कृत ग्रंथों में किसी भी तार वाले वाद्य यंत्र को वाना कहा गया है, अर्थात तंत्रीय वाद्य यंत्र में चाहे एक तार हो या अनेक तार, उसमें धातु की पट्टियां हों या न हों, उसे हाथ से बजाया जाए या छड़ से, सभी प्रकार की परिस्थितियों में उसे वाना ही कहा गया है। शास्त्रीय संगीत और प्रदर्शन कला पर सबसे पुराना जीवित प्राचीन हिंदू ग्रंथ “नाट्य शास्त्र” जिसे भरत मुनि द्वारा लिखा गया था, में वीणा का वर्णन मिलता है। यह संस्कृत ग्रंथ, संभवतः 200 ईसा पूर्व और 200 ईस्वी के बीच पूरा हुआ, जिसकी शुरूआत में यह उल्लेख किया गया, कि “जब मनुष्य का गला या कंठ उत्तम या निपुण हो जाता है, तब वह “शरीर वीणा” या शरीर का तंत्रीय वाद्ययंत्र होता है, और ऐसा कंठ, तंत्रीय वाद्ययंत्र और बांसुरी गंधर्व संगीत का स्रोत बन जाते हैं। ऐसे ही कुछ वर्णन हिंदू धर्म के अन्य प्राचीन ग्रंथों, जैसे ऐतरेय आरण्यक के श्लोक 3.2.5 में तथा शंखायन आरण्यक के श्लोक 8.9 आदि में भी मिलते हैं। प्राचीन महाकाव्य महाभारत में ऋषि नारद को एक वैदिक ऋषि के रूप में वर्णित किया गया है, जो "वीणा वादक" के रूप में प्रसिद्ध हैं। आइए, आज इन दो वीडियो के माध्यम से वीणा की कई किस्मों में से दो किस्मों, सरस्वती और रुद्र वीणा की ध्वनि का आनंद प्राप्त करें।