आप और हम अक्सर सुनते हैं कि एक चित्र हजार शब्दों के बराबर होता है, अर्थात जहाँ एक दृश्य को वर्णित करने में हमारा आधा घंटा लग जाता है, वहीँ एक उस घटना से जुड़ा केवल एक चित्र दिखा देने भर से ही पूरी स्थिति मात्र कुछ क्षणों में स्पष्ट हो जाती है। लखनऊ मुगल साम्राज्य की ऊंचाई के दौरान चांदी और सोने का उपयोग करके अपने जूतों और धागे की कढ़ाई के लिए जाना जाता था। ठीक उसी प्रकार एक अन्य महत्वपूर्ण दक्षिण भारतीय चित्रकला शैली (तंजौर) में भी सोने के उपयोग का अत्यधिक महत्व दिया जाता है। तंजावुर शैली से निर्मित चित्रकलाएं आज भी विश्वभर के बाज़ारों में बेहद लोकप्रिय हैं।
तंजावुर चित्रकला क्या है?
तंजावुर एक दक्षिण भारतीय चित्रकला शैली है, जिसकी उत्पत्ति सं 1600 में दक्षिण भारत के तंजौर नामक शहर से हुई। यह शहर दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में स्थित है, इसी शहर से उत्पत्ति के आधार पर इस चित्रकला शैली को तंजौर पेंटिंग (Tanjore Painting) के नाम से भी जाना जाता है। इस चित्रकला शैली को 17 वीं शताब्दी में विजयनगर रायस के आधिपत्य के दौरान के नायकों द्वारा विभिन्न क्षेत्रीय कलाओं जैसे कि शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय नृत्य, और साहित्य आदि को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विकसित किया। चित्रकला की इस शैली में विशेष रूप से हिंदू धार्मिक विषयों तथा ईश्वर को चित्रित किया जाता है। चित्रकला की इस शैली में चित्रकारी करने के लिए सोने का इस्तेमाल किया जाता है, इस खासियत ने इसकी विश्व में लोकप्रिय होने में बड़ी भूमिका निभाई। तंजावुर पेंटिंग, पहली बार तंजावुर के मराठा दरबार (1676-1855) में प्रदर्शित हुई थी। जिसे 2007-2008 में भारत सरकार द्वारा भौगोलिक संकेत के रूप में मान्यता दी गई है।
तंजावुर चित्रकला में सरल प्रतिष्ठित चित्र बनाए जाते हैं, परन्तु इसके निर्माण में समृद्ध और चमकीले रंग, सोने की पन्नी, कांच के मोती अथवा टुकड़े और कीमती रत्न जड़े होते हैं। तंजावुर पैनल पेंटिंग जो की लकड़ी के तख्तों पर बनाई जाती है, इसलिए इसे स्थानीय भाषा में पलगई पदम (पलगई = "लकड़ी का तख़्त", पदम = "चित्र") कहा जाता है। धीरे-धीरे यह पेंटिंग कैनवास (Canvas) , लकड़ी के पैनल, कांच, कागज, अभ्रक और हाथी दांत पर भी बनाई जाने लगी। छोटे हाथी दांत के चित्र (जिन्हें आमतौर पर राजहरम कहा जाता था ) कैमियो पेंडेंट के रूप में पहने जाते थे,और काफी लोकप्रिय थे। आधुनिक समय में, ये पेंटिंग दक्षिण भारत में अवसरों के लिए स्मृति चिन्ह बन गए हैं - आज इन्हे दीवारों को सजाने के लिए ,कला प्रेमियों के संग्रहण के लिए, साथ ही कभी-कभी यह आम गलियों में दर्जन के हिसाब से भी खरीदा-बेचा जाता है।
पहले समारोह, विषय और खरीदार की पसंद के आधार पर तंजावुर पेंटिंग विभिन्न आकारों में बनाई जाती थीं। इन तस्वीरों में देवताओं, मराठा शासक तथा उनके दरबारियों और कुलीनों के बड़े चित्रों को वर्णित किया जाता था, जिसको मराठा महलों और इमारतों में स्थापित किया जाता था। यद्यपि पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस कला में कई बदलाव हुए हैं,परन्तु आज भी यह कला प्रेमियों के बीच लोकप्रिय है, और कई कलाकारों को अपनी वास्तविक भारतीय शैली से प्रेरित कर रहा है। 1767-99 में मराठा शासन के पतन के साथ, अंग्रेजों ने तंजौर कलाकारों को इस कला को अस्तित्व में रखने हेतु प्रेरित किया। 1773 में, तंजौर में एक ब्रिटिश चौकी स्थापित की गई। तंजौर और उसके आसपास के भारतीय कलाकारों ने आगे आने वाले समय में अंग्रेजी शासकों के लिए चित्र तैयार किये। चित्रों के इन सेटों को एल्बम कहा जाने लगा। इन एल्बम में अंग्रेजी और भारतीय दोनों के रुचिकर विषयों को चित्रित जाने लगा, जिनमे हिंदू पौराणिक कथाओं के देवताओं और प्रसंगों के साथ-साथ खेलों, समारोहों, त्योहारों, जातिगत व्यवसायों और भारतीय वनस्पतियों और जीवों को भी शामिल किया जाने लगा। पहले की तुलना में यह चित्र बहुत कम या बिना सोने की पन्नी से बने थे। जहां पहले कलाकार इन कलाकृतियों के लिए प्राकृतिक रंगों के रूप में वनस्पति और खनिज रंगों का इस्तेमाल करते थे, जिनका स्थान समय के साथ, रासायनिक पेंट ने ले लिया। तंजौर पेंटिंग निर्माण में चमकदार रंग पैलेट लाल, नीले और हरे रंग के जीवंत रंगों का उपयोग किया जाता है।
इन चित्रों की समृद्धि और सघन रचनाओं के कारण यह अन्य भारतीय कलाकृतियों से एकदम भिन्न प्रतीत होते हैं। तंजौर चित्रों में सामान्य विषयों में बाल कृष्ण, भगवान राम, साथ ही अन्य देवी-देवताओं, संतों और हिंदू पौराणिक कथाओं के विषयों को शामिल किया जाता है, प्राचीन समय में तंजौर चित्रों को तंजौर और तिरुचि के राजू समुदाय और मदुरै के नायडू समुदाय द्वारा बनाया जाता था । ये कलाकार, मूल रूप से तेलुगु भाषी थे और आंध्र प्रदेश के निवासी थे जो की विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद तमिलनाडु चले गए।
तंजौर चित्रकला शैली ने कलाकारों से बहुत अधिक दृढ़ता और पूर्णता की मांग की। यहाँ तक की कुछ पवित्र कलाकृतियों का चित्रण पारंपरिक अनुष्ठान शुद्धता और विनम्रता के साथ किया जाता था। कई कलाकारों ने भारतीय कलात्मक परंपरा के प्रति ईमानदार रहते हुए गुमनाम रहना पसंद किया, तथा अपने चित्रों पर कभी हस्ताक्षर नहीं किए। तमिलनाडु में स्थित कुछ समर्पित कलाकारों द्वारा तंजौर पेंटिंग की परंपरा को आज भी जीवित रखा गया है। कलाकृतियों में सिंथेटिक रंगों के उपयोग के साथ-साथ कटहल और सागौन की लकड़ी के स्थान पर प्लाईवुड का इस्तेमाल किया जाता है। आज भी तजौर पेंटिंग की व्यापक मांग है, हालिया वर्षों में इनका बड़े पैमाने पर व्यवसायीकरण किया गया है। यहां तक कि इन्हे सड़क किनारे बाजारों में भी बेचा जा सकता है।आज भी यह कला समय की कसौटी पर खरी उतरी है, और लोकप्रिय बनी हुई है। परंतु गुणवत्ता में सामान्य गिरावट कई कला प्रेमियों को परेशान भी कर रही है। हालांकि इस विशिष्ट कला के संरक्षण हेतु विभिन्न स्तरों पर प्रयास जारी हैं, जो की संतोषजनक है।
संदर्भ
https://bit.ly/3w8cTvm
https://bit.ly/3hwVLez
https://bit.ly/3fme57N
चित्र संदर्भ
1. तंजौर शैली की चित्रकारी का एक चित्रण (flickr)
2. वेणुगोपाल कृष्ण की एक तंजौर ग्लास पेंटिंग का एक चित्रण (wikimedia)
3. तंजौर शैली में की गई चित्रकारी के साथ में खड़ी महिला का एक चित्रण (Flickr)
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