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फल हमारे आहार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो न केवल स्वादिष्ट किंतु पौष्टिक गुणों से भरपूर होते हैं।हिमालय की निचली ढलानों पर पाया जाने वाला एक फल शहतूत हमारे लिए कई प्रकार से लाभदायक होता है।अपने गहरे बैंगनी रंग के कारण यह हमारे स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभप्रद हैं।गहरे रंग के फल जैसे चैरी (Cherry), अनार, अंगूर और ब्लूबेरी (Blueberry)इत्यादि में कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों से लड़ने की क्षमता होती है।रेशम कई वर्षों से भारत सहित कई अन्य देशों जैसे इटली (Italy), तुर्की (Turkey) और चीन(China) के प्रमुख उद्योगों में से एक रहा है। रेशम के कीड़ों का व्यापार शहतूत के पत्तों पर किया जाता है। इसलिए चीन के चांग टोंग (Chang Tong) प्रांत में 2800 ईसा पूर्व में रेशम के उद्योग के लिए व्यावसायिक रूप से शहतूत के पेड़ उगाए जाते थे।भारत में भी प्रारम्भ में रेशम का अधिकांश आयात चीन से होता था परंतु बाद में रेशम के लिए भारत आत्मनिर्भर देश बन गया। असम ने जंगली रेशम की एक किस्म का उत्पादन करना आरम्भ किया, हालाँकि इस रेशम के कीड़े अरंडी की पत्तियों पर पनपते थे। आज पूरे देश में रेशम की लगभग 17 किस्में व्यावसायिक रूप से उगाई जाती हैं।वर्तमान में शहतूत की खेती भारत के लगभग सभी राज्यों में होती है और यहाँ उगाया जाने वाला प्राथमिक शहतूत का प्रकार मॉरस इंडिका (Morus Indica) है। यह शहतूत गर्म मौसम में पनपते हैं इसलिए दक्षिण का मौसम इसकी खेती के लिए अनुकूल माना जाता है। यही कारण है कि रेशम का उत्पादन काफी हद तक दक्षिण भारत में किया जाता है। शहतूत के फल का प्राथमिक उत्पादक कर्नाटक राज्य है जो लगभग 160,00 हेक्टेयर शहतूत का उत्पादन करता है।
शहतूत की दूसरी किस्म है मॉरस अल्बा (Morus Alba) जिसे सफेद शहतूत भी कहा जाता है।यह हिमाचल प्रदेश, पंजाब और कश्मीर सहित महाराष्ट्र और राजस्थान में भी उगाया जाता है। रेशम के कीड़ों के प्रमुख भोजन के रूप में सफेद शहतूत की पत्तियाँ सर्वाधिक उपयोगी है इसलिए संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America), मैक्सिको (Mexico), ऑस्ट्रेलिया (Australia), किर्गिस्तान (Kirgizstan), अर्जेंटीना (Argentina), तुर्की (Turkey), ईरान (Iran), भारत और कई अन्य देशों में इस शहतूत की खेती की जाती है, हालाँकि यह अल्पकालिक पेड़ होते हैं परंतु तेजी से खिलते हैं।यह अन्य कई प्रकार से भी उपयोगी होते हैं, उदाहरण के लिए शुष्क मौसम वाले स्थानों पर जहाँ भूमिगत वनस्पति का अभाव होता है वहाँ इसकी पत्तियाँ पशुओं के लिए भोजन का कार्य करती हैं। इसके अतिरिक्त कोरिया (Korea) में सफेद शहतूत के पत्तों से चाय बनाई जाती है। इस फल को आम तौर पर सुखाकर खाया जाता है और साथ ही इससे वाइन (Wine) भी तैयार की जाती हैं। इतना ही नहीं, मॉरस अल्बा का औषधिक उपयोग भी है। चीन में इसका इस्तेमाल एक पारंपरिक दवा के रूप में किया जाता है। जिसमें एल्कलॉइड (Alkaloids) और फ्लेवोनोइड (Flavonoids) होते हैं जो बायोएक्टिव यौगिक (Bioactive Compounds) होते हैं। अध्ययनों से पता चला है कि ये यौगिक उच्च कोलेस्ट्रॉल (Cholesterol), मोटापा और तनाव को कम करने में मददगार साबित हो सकते हैं। "इनवेसिव प्लांट मेडिसिन" (Invasive Plant Medicine) नामक पुस्तक के अनुसार, सफेद शहतूत की पत्तियाँ बुखार, सिरदर्द, सूखी आँखें और चक्कर आने, छाल घरघराहट, चिड़चिड़ापन और चेहरे की सूजन इत्यादि का इलाज करती हैं।इसके अतिरिक्त यह फल कब्ज, समय से पहले बुढ़ापा, अनिद्रा और टिनिटस (Tinnitus) से लड़ने के लिए उपयोगी माना जाता है।
शहतूत की एक और किस्म पाकिस्तानी शहतूत (मॉरस सेराटा) (Morus Serrata) है जो हिमाचल प्रदेश में हिमालय और उप-हिमालय से 3,300 मीटर की ऊंचाई पर पाए जाते हैं। चौथे प्रकार का और सौ साल तक जीवित रहने वाला आम शहतूत है हिमालयन शहतूत (मॉरस लाएविगाटा) ((Morus Laevigata))।यह राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, असम और मणिपुर में उगाया जाता है। मोरस नाइग्रा (Morus Nigra) जिसे काला शहतूत या ब्लैकबैरी (blackberry) भी कहा जाता है। यह रूबस (Rubus) ब्लैकबैरी से भिन्न है।यह दक्षिणपूर्वी एशिया (Southwestern Asia) और इबेरियन प्रायद्वीप (Iberian Peninsula) में पाए जाने वाले मॉरेसी (Moraceae) परिवार के फूलों के पौधे की एक प्रजाति है।