"संगीत दो आत्माओं के बीच अनंत को भरता है।" संगीत की महत्ता को इतनी बारीकी से समझने और पंक्तियों से वर्णित करने का श्रेय भारत के एक महान लेखक, संगीतकार, कवि, तथा एक उत्तम दार्शनिक रबीन्द्रनाथ टैगोर को जाता है। रबीन्द्रनाथ टैगोर की जयंती पर, हम कविता और संगीत के क्षेत्र में उनके योगदान की समीक्षा करेंगे।
रबीन्द्रनाथ टैगोर भारतीय इतिहास के उन महान व्यक्तित्व में शामिल हैं, जिन्होंने भारतीय सभ्यता, संगीत, और संस्कृति को अंतरराष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलाई। वह अपनी उत्कृष्ट साहित्यिक पुस्तक गीतांजलि के लिए 1913 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाले पहले गैर-पश्चिमी व्यक्ति बने। 7 मई 1861 को पैदा हुए रबीन्द्रनाथ टैगोर, सरला देवी और ब्राह्मो समाज के नेता देवेन्द्रनाथ टैगोर के सबसे छोटे पुत्र थे। उनके जन्मदिन के अवसर पर प्रतिवर्ष 7 मई को "गुरुदेव" रबीन्द्रनाथ टैगोर की जयंती के रूप में मनाया जाता है।
चूँकि टैगोर संगीतकारों और विद्वानों की पृष्टभूमि में पैदा हुए थे, जिस कारण बचपन के ही वह एक ररचनात्मक तथा कलात्मक परिवेश में बड़े हुए। रबीन्द्रनाथ का प्रारंभिक संगीत अध्ययन विष्णुपुर घराने से प्रभावित थे। वह ध्रुपद और ख्याल (भारतीय शास्त्रीय संगीत के दोनों रूप) को लिखे और आत्मसात करते हुए बड़े हुए। उनके भाई ज्योति दादा (ज्योतिंद्रनाथ टैगोर) पियानो पर धुनों का निर्माण करते तथा बालक रबीन्द्रनाथ को राग-आधारित धुनों से मेल करने एवं छंदों की रचना करने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे। शुरुआती समय में उनके द्वारा संगीत को जहां सामान्य क्रीड़ाओं की भांति लिया गया वही युवावस्था में रबीन्द्रनाथ स्वयं में एक संगीत शैली बन गए।
टैगोर की रचनाओं का संगीत कथा काव्य क्षेत्र में दोहरा महत्व है, उनकी रचनाओं का प्रभाव भारत सहित अन्य देशों में बड़ी ही तेज़ी से विस्तारित हुआ। 1878 में इंग्लैंड की अपनी पहली यात्रा के दौरान वे पहली बार अंग्रेजी, आयरिश और स्कॉटिश संगीत से परिचित हुए। पश्चिमी संगीत के प्रति अपने अनुभव को उन्होंने अपनी आत्मकथा (जीवन स्मृति) में वर्णित किया है। उन्होंने लिखा है कि “मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मैंने यूरोपीय संगीत की आत्मा का अनुभव किया है। हालाँकि, एक गंभीर श्रोता के रूप में मैंने जो संगीत का अनुभव किया, वह स्नेही था तथा इसने मुझे बेहद आकर्षित किया। यह मेरा अनुमान था कि संगीत प्रेमपूर्ण होगा एवं जीवन में विविधताओं की मधुर अभिव्यक्ति होगी” रबीन्द्रनाथ की कई श्रेष्ट रचनाएँ पश्चिमी धुनों से प्रभावित रहीं हैं। ऊपर हमने रवींद्रनाथ संगीत शैली की चर्चा की, इस शैली को टैगोर संगीत (Tagore’s Song) भी कहा जाता है। संगीत की इस उत्कृष्ट शैली के अंतर्गत भारतीय संगीत विशेष रूप से बंगाल के संगीत में नया आयाम जोड़ा गया है।
सन 1941 में रबीन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु हो जाने के बाद भी उनका विशाल व्यक्तित्व उनके द्वारा प्रदत्त संगीत में छलकता है। उन्होंने अपने गीतों में, कविता को सृष्टिकर्ता, प्रकृति और प्रेम के रास से एकीकृत किया गया है। उनके संगीत की विशेषता यह है की क्षण भीतर मानवीय प्रेम- ईश्वर तथा प्रकृति के प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। उनका 2000 अतुल्य गीतों का संग्रह गीतबितान (गीतों का बगीचा) मानवता को एक बेशकीमती उपहार के रूप में प्रद्दत है।
लखनऊ विश्वविद्यालय में स्थित टैगोर पुस्तकालय देश के सबसे पूरे पुस्तकालयों में एक है। दस्तावेजों के अनुसार, सन 1937 में इस पुस्तकालय की नींव रखी गई थी। लखनऊ में इस पुस्तकालय को विश्वविद्यालय और रबीन्द्रनाथ टैगोर के बीच के बंधन को दर्शाने के लिए बनाया गया था। टैगोर की पहली लखनऊ यात्रा 1914 में एक वकील-गीतकार के आमंत्रण पर हुई थी। वस्तुतः टैगोर का संगीत के प्रति प्रेम जगजाहिर है, इसी परिप्रेक्ष्य में उन्होंने विश्व भारती को समृद्ध बनाने के लिए लखनऊ का रुख किया था। 1923 में टैगोर पुनः लखनऊ विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को संबोधित करने के लिए लखनऊ शहर का दौरा किया। अपनी अनेकों लखनऊ यात्राओं से उन्होंने न केवल व्यक्तिगत तथा सामाजिक कार्य सिद्ध किये वरन उन्होंने लखनऊ शहर के साथ एक अटूट बंधन भी स्थापित किया। उनका संगीत तब से लेकर आज भी देश के नागरिकों में प्रकृति प्रेम तथा देशभक्ति की लहरें उठा देता है आज भी जब टैगोर रचित भारतीय राष्ट्रगान “जन गण मन अधिनायक जय हे” हमारे कानों में गूंजता है, तब हर बार हमारा मस्तक असीमित गर्व से और अधिक ऊपर उठ जाता है। एक संगीत का महारथी अपनी रचनात्मकता द्वारा अपने व्यक्तित्व को सदा के लिए अमर कर गया, और हमारे बीच गीतांजलि, क्षणिक, वीथिका शेष लेखा जैसी महान कृतियां छोड़ गया।
संदर्भ
https://bit.ly/3uEbhZO
https://bit.ly/3h9VwpM
https://bit.ly/3nZxIGr
https://bit.ly/3b6CQ6q
https://bit.ly/3en3xWG
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