एक रिपोर्ट में शिकार और अवैध शिकार को विश्व भर में प्रवासी पक्षियों के लिए बड़ा खतरा बताया गया और यह आह्वान किया गया कि इसे रोकने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे। वर्तमान में विलुप्त होने की कगार पर खड़े प्रवासी प्रजातियों के लिए सबसे बड़ा खतरा शिकार, अवैध शिकार और उत्पीड़न बन गया हैं। भारत में आठ साल पहले, नागालैंड (Nagaland) के वोखा (Wokha) जिले में हर दिन लगभग 1 लाख अमूर फाल्कन (Amur falcons) या छोटा बाज का शिकार होने की खबरें आईं थी, जो उनके मांस के लिए किया जा रहा था, जिसने दुनिया भर में हलचल मचा दी थी। इस घटना ने दुनियाभर के संरक्षणकर्ताओं और प्रकृति प्रेमियों को हिला कर रख दिया और इस संहार को रोकने के लिए भारत की केंद्र और राज्य सरकारों, तथा वन्यजीव विशेषज्ञों को एक हताश संरक्षण परियोजना (Desperate Conservation Project) शुरू करने के लिए प्रेरित किया। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय (Union Environment Ministry) ने इस परियोजना को नागालैंड और मणिपुर से पड़ोसी दक्षिणी असम, मिजोरम और त्रिपुरा तक विस्तारित करने का फैसला किया। आज, ये बाज़ नागालैंड के संरक्षण की एक अनोखी सफलता की कहानी का प्रतीक है, जो मुख्य रूप से स्थानीय समुदायों द्वारा लिखी गई है। विशेषज्ञों ने बताया कि वर्तमान में शिकार पूरी तरह से रुक गया है।
ये पक्षी दक्षिणी-पूर्वी साइबेरिया (Siberia) और उत्तरी चीन (China) में प्रजनन करते हैं, और मंगोलिया (Mongolia) तथा साइबेरिया लौटने से पहले, सबसे लम्बे 22,000 किलोमीटर के प्रवासी मार्ग को पूरा करते हुए लाखों की तादाद में भारत और फिर हिन्द महासागर से दक्षिणी अफ्रीका चले जाते हैंI अमूर फाल्कन मूलत: रूस के साइबेरिया क्षेत्र का बाशिंदा है। अक्टूबर-नवंबर में बर्फबारी से ठीक पहले अनुकूल मौसम और भोजन की तलाश में यह पलायन कर भारत होते हुए अफ्रीका निकल जाते हैं। वहां इस वक्त गर्म मौसम रहता है। संरक्षण से पहले हर साल इन पक्षियों के भारत के नगालैंड पहुंचते ही इनका शिकार शुरू हो जाता था। लगभग 15,000 पक्षी हर दिन शिकार बन रहे थे। शिकार के बाद, पक्षी को बाजारों में 25-30 रुपये में बेचा जाता था, जिसमें एक सीजन में शिकारी को 30,000-50,000 रुपये के बीच कमाई होती थी। परंतु जब यह बात सामने आई की हजारों की तदाद में यह पक्षी मार दिए गए है तो सवाल उठने लगे और जल्द ही यह घटना वैश्विक सुर्खियां बन गई। भारत के पर्यावरण मंत्रालय ने यह खबर मिलते ही मामले की जांच करने के लिए कहा। राज्य सरकार ने तुरंत पक्षी के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया और कहा कि वे इसमें शामिल गाँवों को विकास निधि जारी नहीं करेंगे साथ ही साथ अमूर फाल्कन को पकड़ने और हत्याओं को रोकने लिए एक व्यापक परियोजना भी बनाई गई, यह परियोजना 2013 में नागालैंड में शुरू की गई थी। लेकिन इस परियोजना में सच्ची सफलता स्थानिय समुदाय की भागीदारी से मिली। भारत में किसी संरक्षण परियोजना में इतना तेजी से बदलाव कभी नहीं हुआ था। पंगति (Pangti) गांव के स्थानीय लोगों ने इस बदलाव में अहम भूमिका निभाई, लोगों ने पक्षी-संरक्षकों, संरक्षकवादियों और पर्यटकों को आकर्षित करना शुरू किया। यहां की ग्राम सभा और छात्र नेताओं ने इस परियोजना के लाभों के बारे में लोगों को बताया। फिर, उन्हें अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलनी शुरू हुई। आज यहां हर स्कूल में इको-क्लब (Eco-Club) हैं जो संरक्षण (Conservation) और जैव विविधता (Biodiversity) के बारे में बात करते हैं।
परंतु यदि भारत में वन्य जीवों के शिकार का इतिहास देखा जाये तो मानव विकास के समय से ही हम शिकार आदि करते आ रहे हैं और पक्षियों की इतनी ज्यादा विविधता के मौजूद होने के कारण ही यहाँ पर शिकार आदि का प्रचलन भी बड़ी संख्या में था। लगभग एक सदी पहले तक, भारत के वन बंदूकों की आवाज़ से गूंज उठते थे। शिकार करना कुलीन वर्ग के लोगों का पसंदीदा खेल हुआ करता था। ये खेल एक लंबे समय तक उपमहाद्वीप के इतिहास का एक हिस्सा रहा है। इतिहासकारों की माने तो द्रविड़ों से पहले मौजूद लोग शिकार और भोजन इकट्ठा करने पर निर्भर थे। मुदुमलाई (Mudumalai) (दक्षिणी भारत में) के साथ-साथ भीमबेटका (Bhimbhetka) (मध्य भारत में) के जंगलों में पाई गई गुफा चित्रों में शिकार के दृश्यों को दर्शाया गया है जहाँ पुरुषों ने भाले, धनुष और तीर जैसे आदिम औजारों को पकड़ा है। सिंधु घाटी जैसी सभ्यता के समय मनुष्य पूर्ण रूप से शिकार पर ही आधारित था और वह पत्थर और हड्डियों के औजार का प्रयोग किया करता था। 1500 ईसा पूर्व आर्यों के आगमन के साथ शिकार एक खेल के रूप में लोकप्रिय हो गया। प्रारंभिक वैदिक काल में, मांस खाने की प्रथा असामान्य नहीं थी और इसलिए, हिरण जैसे जानवरों का नियमित रूप से शिकार किया जाता था। इसी तरह, रामायण और महाभारत जैसे साहित्य से भी शिकार के बारे में पता चलता है। आखेटन यानि शिकार को एक प्रकार का खेल भी माना जाता था। इसके बाद शिकार पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश भी की गई। मौर्य काल के दौरान संरक्षण को कुछ हद तक उच्च स्तर पर ले जाया गया। कलिंग में सम्राट अशोक की लड़ाई के बाद, 265-264 ईसा पूर्व के बीच, उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया और इस प्रकार जंगलों और प्राणियों को सुरक्षित संरक्षण दिया गया। उन्होंने कई पक्षियों और जानवरों को संरक्षण दिया। शिकार और अवैध शिकार के साथ-साथ जानवरों की बलि देने पर भी प्रतिबंध लगा दिया। परंतु मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ भारत ने विदेशी आक्रमणों की एक श्रृंखला का सामना किया। बौद्ध धर्म के प्रभाव के पतन के साथ राजाओं और आम लोगों द्वारा शिकार के पुनरुत्थान को समान रूप से देखा गया। धीरे धीरे पुरुषों और महिलाओं दोनों ने शिकार में भाग लेना शुरू किया और फिर से पक्षियों और जानवरों का शिकार एक लोगप्रिय खेल बन गया। परंतु भारत में जंगल रिज़र्व (Reserve) क़ानून के बनने के बाद शिकार पर अंकुश लगा दिया गया। 1970 के दशक की शुरुआत में, शिकारी और प्रकृतिवादियों ने तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को तीन साल के लिए बाघों के शिकार पर प्रतिबंध लगाने के लिए, आबादी को पुनर्प्राप्त करने की अनुमति देने के लिए याचिका दायर की। इसका जवाब इंदिरा गांधी 1972 के वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम के साथ अपने साथ लाई, इस अधिनियम में स्तनधारियों से लेकर पक्षियों और सरीसृपों तक के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया। तब से लेकर अब तक इस अधिनियम में संशोधन होता आ रहा है जिससे अधिनियम के तहत अपराधों के लिए सजा, जुर्माना और अधिक कठोर बन गये है। हालांकि आज भी कई ऐसे जानवर और पक्षी हैं, जिनका शिकार लोग बड़ी संख्या में करते हैं। ये शिकार खेल के रूप में भी किया जाता है। ये ऐसे पक्षी होते हैं, जिनका शिकार कानूनी रूप से किया जा सकता है। ऐसे पक्षियों की 150 से अधिक प्रजातियाँ हैं। शिकार करने के लिए लोकप्रिय पक्षियों में शामिल हैं: क्रेन (Cranes), कबूतर (Doves), बत्तख (Ducks), तीतर (Partridges), बटेर (Quail), हंस (Swans), टर्की (Turkeys) आदि। इनका शिकार तब किया जाता है, जब किसी एक स्थान पर किसी एक प्रजाति की जनसंख्या में बड़े पैमाने पर वृद्धि हो जाती है।
आज पक्षियों, मछलियों व स्तनपायी जानवरों सहित वन्यजीवों की कई प्रजातियां भोजन व प्रजनन के लिए हर साल अपने ठिकानों से दूर अन्य स्थानों व देशों का रुख़ करती हैं। जलवायु परिवर्तन और जैवविविधता घटने के इस दौर में ऐसी प्रजातियों का ख़याल यदि नहीं रखा गया तो ये विलुप्त ही हो जायेंगें। गांधीनगर में आयोजित प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण (Conservation of Migratory Species-CMS) के 13वें सम्मेलन, कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (Conference of Parties) यानी कॉप-13 (COP-13) में जारी एक नई रिपोर्ट के अनुसार, लुप्त होने के जोखिम में प्रवासी प्रजातियों के लिए सबसे बड़ा खतरा शिकार, अवैध शिकार हैं। इस सम्मेलन के तहत ऐसी प्रजातियाँ, जो विलुप्ति के कगार पर हैं या जिनका अस्तित्व संकट में है, को अपेंडिक्स-। (Appendix 1) में सूचीबद्ध किया जाता है और प्रारंभिक मूल्यांकन से पता चला है कि अपेंडिक्स-। के तहत 96% प्रजातियों को सूचीबद्ध किया गया है। अपेंडिक्स में शामिल सभी 173 प्रजातियों में से 98% स्तनधारियों, 94% पक्षियों और 100% सरीसृपों और मछलियों को क्रमशः शिकार और अवैध शिकार के कारण विलुप्त होने का सामना करना पड़ रहा है। भारत कई प्रवासी जानवरों और पक्षियों का अस्थायी घर है। वर्तमान में हमें इन सूचीबद्ध जीवों की कड़ाई से रक्षा करने, इनके निवास स्थानों को संरक्षित करने या उन्हें पुनर्स्थापित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिये।
संदर्भ:
https://bit.ly/3m1mIHx
https://bit.ly/3fmKiNV
https://bit.ly/3u7v9UP
https://bit.ly/2PDDvUY
https://bit.ly/3w4Rjsu
https://bit.ly/3syARyD
चित्र संदर्भ:
मुख्य चित्र में अमूर फाल्कन को दिखाया गया है। (विकिमेडिया)
दूसरा चित्र में बहुत से अमूर फाल्कनों को उड़ते हुए दिखाया गया है। (विकिमेडिया)
तीसरा चित्र में अमूर फाल्कन को दिखाया गया है। (फ़्लिकर)