यदि किसी भी संस्कृति को आनेवाली कई पीढ़ियों तक सफलता से लेकर जाना है, तो संगीत सबसे सुलभ माध्यम साबित हो सकता है। उदाहरण के लिए आपको महान राजाओं के किस्से-कहानियां आज भी किताबों में पढ़े और पारंपरिक संगीत में सुनाई देंगे। प्राचीन काल के लोग और राजा-महाराजा इस तरीके को बखूबी जान चुके थे। और उन्होंने अपने कथाओं को संगीत के माध्यम से अमर कर दिया।
उत्तर प्रदेश के रोहिलखण्ड में इस बात के प्रमाण मिलते हैं। रोहिलखंड का विस्तार लगभग 25,000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। 18 वीं सताब्दी में अफगान रोहिला जनजाति से जुड़े लोग भारी संख्या में इस स्थान पर आ बसे। जहाँ से इस जगह को रोहिलखण्ड नाम से जाना जाने लगा। साथ ही उन्होंने बरेली, रामपुर और नजीबाबाद में भी अपने निवास स्थान बनाएं। अमरोहा, मुरादाबाद, पीलीभीत और शाहजहांपुर जैसे क्षेत्रों ने यहां की राजनीति में हुए बदलावों के साथ-साथ कई शास्त्रीय संगीतों और महान संगीतकारों के घरानो का उदय बेहद करीब से देखा है। इन जगहों का लोक-संगीत के क्षेत्र में भी अपना एक समृद्ध इतिहास रहा है।
यह एक विख्यात प्रकरण है की 1857 के विद्रोह नवाब वाजिद अली शाह के विद्रोह के परिणामस्वरूप अवध साम्राज्य का दमन हुआ। इसी के साथ ही अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को भी रंगून से निर्वासित किया गया। इसी के साथ ही अधिकतर संगीतकार और नर्तकी इत्यादि बड़ौदा, रामपुर, मैसूर, हैदराबाद, और ग्वालियर के अलावा कई अन्य छोटी रियासतों में प्रतिस्थापित हो गए। और 1857 के बाद रामपुर एक हिंदुस्तानी नृत्य और शास्त्रीय संगीत कला के केंद्र के रूप में उभरा।
इसी तर्ज पर रामपुर में स्थित रजा लाइब्रेरी ने दो पुस्तकें प्रकाशित की हैं। जिनमें यहाँ के संगीत, परंपरा और संस्कृति की विस्तार पूर्वक झलकियां हैं। जिसमें से पहली किताब "उत्तर प्रदेश के रोहिलखंड क्षेत्र में संगीत परम्परा" पी.एचडी संध्या रानी प्रसंग पर आधारित है।और दूसरी किताब “रामपुर दरबार और नवाबी प्रथाओं का संगीत” है। जिस किताब को नफीस सिद्दीकी द्वारा लिखा गया है।
रोहिलखण्ड के संगीत समृद्ध इतिहास की विस्तृत जानकारी संध्या रानी द्वारा लिखी पुस्तक में मिल जाता है। इस पुस्तक में संगीत की तीन धाराओं लोक गीत, चहार बैत (Chaharbait) तथा जन संगीत का वर्णन है। किसी भी त्यौहार, मौसम और अवसरों इत्यादि पर आधारित संगीत को लोक गीत अथवा जन गीत कहा जाता है। तथा चहार बैत संगीत का एक विशेष रूप है। जो की मुख्यतः रामपुर तथा इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में प्रचलित है।
लोक कथाओं को क़िस्सों तथा राग के रूप में भी जाना जाता है। लोक कथाओं में लोकगायक श्रवण कुमार, ढोला, भरथरी, आल्हा, जाहरपीर आदि का चरित्रिक वर्णन करते हैं। पठानि राग अफगानिस्तान के लोकप्रिय संगीत का ही एक हिस्सा है। इसकी उत्पत्ति पश्तो भाषा में हुई थी। आज इसे चहारबैत के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि ने भारत में इसकी उत्पत्ति मुस्तकीम खान की थी। जिसे उनके पुत्र अब्दुल करीम खान ने आगे बढ़ाया।
इन रियासतों में बसने के बाद अफगान रोहिल्लों ने अपनी मूल भाषा पश्तो को भुलाकर उर्दू को अपनाया। उर्दू भाषा हिंदी, फारसी, और अरबी शब्दों के समग्र मिश्रण से बनी है। चहारबैत भी एक मिश्रित गायन भाषा है। जिसे गायकों के अखाड़ों में सामूहिक रूप से ढफ(Dhaf) नामक वाद्य यन्त्र के साथ गाया जाता है। इन अखाड़ों में समय-समय पर समृद्ध परिवारों के द्वारा प्रतिस्पर्द्धा आयोजन आयोजित किये जाते हैं।
अपने लोक संगीत से अथाह प्रेम के कारण रामपुर नवाब कल्बे अली खान मशहूर थे। रज़ा लाइब्रेरी द्वारा प्रकाशित नवाब कल्बे की इस पुस्तक में वाद्य यंत्र जैसे ढोल, खंजरी, खरताल, चमेली, नौबत, एकतारा, नागर,चंग, नाल आदि का बहुत बारीकी से विस्तार पूर्वक वर्णन है। जिन वाद्य यंत्रों को यहाँ के लोक गायकों द्वारा बजाया जाता था।
नफीस की पुस्तक में तत्कालीन समय से जुड़ी कुछ महिला संगीतकारों का भी विस्तृत वर्णन है। जिसमे उस समय के एक नवाब द्वारा कई शिष्ट महिला संगीत कारों को नियुक्त किये जाने का भी वर्णन है। जहाँ उनको न्यूनतम पचास रुपये का मासिक वेतन दिया जाता था। जो की उस समय अपने आप में बड़ी रकम थी। इस तरह की दुर्लभ जानकारियाँ प्रकाशित करने वाली रज़ा लाइब्रेरी तथा अन्य भी सराहनीय हैं।
संदर्भ:
https://bit.ly/3cklt31
चित्र संदर्भ:
मुख्य चित्र में रज़ा पुस्तकालय और नवाब वाजिद अली शाह को दिखाया गया है। (प्रारंग)
दूसरी तस्वीर में रोहिलखंड का संगीत दिखाया गया है। (प्रारंग)
तीसरी तस्वीर में रोहिलखंड का संगीत दिखाया गया है। (प्रारंग)