भारत में विभिन्न प्रकार के त्यौहार मनाये जाते हैं, तथा प्रत्येक को मनाने के पीछे कोई न कोई किवदंती अवश्य छिपी हुई है। ऐसा ही एक पर्व होली का भी है, जिसे भारत सहित विश्व के उन अन्य स्थानों में भी मनाया जाता है, जहां भारतीय आबादी मौजूद है। होली का त्यौहार वसंत की शुरुआत का प्रतीक है तथा इसे मनाए जाने के पहले उल्लेख 4 वीं शताब्दी की कविता से प्राप्त होते हैं। यहां तक कि 7 वीं शताब्दी के संस्कृत नाटक "रत्नावली", जिसे भारतीय सम्राट हर्ष द्वारा लिखा गया था, में भी इसका विस्तार से वर्णन किया गया था। पूर्वी राज्यों पश्चिम बंगाल और ओडिशा में यह त्यौहार एक दिन पहले से मनाया जाने लगता है, जबकि उत्तरी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में, यह उत्सव एक सप्ताह से भी अधिक समय तक मनाया जाता है। इस त्यौहार की मुख्य किवदंती दानव राजा हिरण्यकश्यप की बहन होलिका (जो कि एक महिला दानव थी) से जुड़ी हुई है। हिरण्यकश्यप का मानना था, कि वह ब्रह्मांड का शासक है और सभी देवताओं से श्रेष्ठ है, लेकिन उसके पुत्र प्रह्लाद को ब्रह्मांड के संरक्षक भगवान विष्णु पर विश्वास था तथा वह भगवान विष्णु को ही सर्वश्रेष्ठ मानता था। इसलिए प्रह्लाद को मारने के लिए हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका की सहायता ली। होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ गयी। उसने यह सोचा था कि, जलती आग में प्रह्लाद मारा जायेगा तथा वह बच जायेगी (क्यों कि उसके पास एक ऐसी दिव्य शॉल (Shawl) थी, जो आग से उसकी रक्षा करती थी), लेकिन परिणाम कुछ और ही प्राप्त हुआ। प्रह्लाद को भगवान विष्णु ने बचा लिया, लेकिन अपने अधर्मी कर्म के कारण वह मारी गयी और इस प्रकार बुराई पर अच्छाई की जीत हुई। एक अन्य किवदंती के अनुसार एक-दूसरे पर रंग लगाने की परंपरा राधा और कृष्ण की पौराणिक प्रेम कहानी से उत्पन्न हुई है। इसलिए होली के दूसरे दिन को रंग वाली होली के नाम से जाना जाता है, जिसमें लोग एक दूसरे के साथ रंगीन रंगों से खेलते हैं।
होली के दिन अधिकांश लोग उज्ज्वल लाल, पीले, हरे, नीले, बैंगनी आदि रंगों से रंगे होते हैं, फिर चाहे वे जीवन के किसी भी पड़ाव या आयु में हों। इस दिन रंगों से आवरित सभी लोग लगभग एक समान प्रतीत होते हैं। एक ऐसे देश जहां अत्यधिक समृद्ध और दुनिया की प्रमुख कंपनियों के साथ-साथ अत्यधिक गरीबी और अपर्याप्त अनौपचारिक क्षेत्र भी मौजूद हैं, में रंगों से आवरित यह समानता और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, क्यों कि, कुछ समय के लिए लगभग सभी प्रकार के भेद समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार देश भर में मनाया जाने वाला यह त्यौहार एक महत्वपूर्ण तुल्यकारक के रूप में कार्य करता है, जिसके अंतर्गत बच्चे बड़ों को पानी से भिगा सकते हैं, महिलाएं पुरुषों को रंग लगा सकती हैं तथा जाति और पंथ से सम्बंधित नियमों को कुछ समय के लिए भुला दिया जाता है। चाहे कोई किसी भी जाति, पेशा, धर्म, आय आदि से सम्बंधित हो, लेकिन इस दिन सभी प्रकार के विभिन्न भेद गायब हो जाते हैं, तथा सब एक साथ मिल-जुलकर होली खेलते हैं। लखनऊ की यदि बात करें तो, यहां भी हर साल होली का एक बेहद सुंदर रूप दिखायी देता है, जिसमें न केवल हिंदू धर्म के लोग बल्कि मुस्लिम धर्म के लोग भी शामिल होते हैं। हिन्दू-मुस्लिम एकता का सुन्दर उदाहरण लखनऊ में मनायी जाने वाली होली से लिया जा सकता है। चाहे चौक बाज़ार हो, अकबरी गेट हो, या फिर राजा बाज़ार हर स्थल पर इस एकता का सुंदर नजारा देखने को मिलता है। होली के अवसर पर दिखने वाली इस एकता का वर्णन कई मुस्लिम कवियों ने अपनी कविताओं में भी किया है। उदाहरण के लिए नवाब आसफ-उद-दौला को होली का त्यौहार बड़े उत्साह से मनाते देख कवि मीर ने लिखा :
"होली खेले आसफुद्दौला वज़ीर
रंग सौबत से अलग हैं खुर्दोपीर
कुमकुमे जो मारते भरकर गुलाल
जिसके लगता आन पर फिर महेंदी लाल"
लखनऊ की होली से प्रभावित कवि मीर की एक अन्य कविता के अनुसार :
“आओ साथी बहार फिर आई
होली में कितनी शदियां लायी
जिस तरफ देखो मार्का सा है
शहर हा या कोई तमाशा है
थाल भर भर अबीर लाते हैं
गुल की पत्ती मिला उड़ाते हैं”
अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह द्वारा लिखित एक कविता कुछ इस प्रकार है:
“मोरे कान्हा जो आये पलट के
अबके होली मई खेलूंगी डट के
उनके पीछे मई चुपके से जाके
ये गुलाल अपने तन से लगाके
रंग दूंगी उन्हें भी लिपट के”।
ये कविताएं इस बात के प्रमाण प्रस्तुत करती हैं, कि होली किस प्रकार से सभी भेदों को मिटाते हुए लोगों को एक साथ जोड़ती है।
संदर्भ:
https://cnn.it/3lOTdc7
https://bit.ly/39dLqzk
https://bit.ly/3tVCfvu
https://bit.ly/3tY3ipI
चित्र संदर्भ:
मुख्य तस्वीर में लोगों को रंगों से होली खेलते दिखाया गया है। (फ़्लिकर)
दूसरी तस्वीर में एक व्यक्ति के चेहरे पर गुलाल लगाते हुए दिखाया गया है। (विकिपीडिया)
तीसरी तस्वीर में एक पुरानी तस्वीर है जिसमें हर कोई होली खेल रहा है। (Cafedissanim.com)