प्रकृति ने हमें कई ऐसे तत्व प्रदान किए हैं जिनका हमारे जीवन में विशेष महत्व है और इन तत्वों के अभाव में मानव अस्तित्व संभव नहीं है। जैसे वायु, जल, मृदा, वन, खनिज पदार्थ, भूमि इत्यादि। हम मनुष्यों का यह कर्तव्य है कि हम इन प्राकृतिक तत्वों का भली-भांति उपयोग करें साथ ही इन तत्वों को अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए संरक्षित करें। जिस प्रकार प्रकृति ने हमारे जीवन का संतुलन बनाए रखा है उसी प्रकार हमें भी प्रकृति का संतुलन बनाए रखना चाहिए। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या हम ऐसा करते हैं तो उत्तर है नहीं। वायु और जल जो हमारे जीवन के अति आवश्यक तत्व हैं हमने इसे इतना प्रदूषित कर दिया है कि यह हमारे लिए ही विषाक्त बन गए हैं। पेड़-पौधे जिनके बिना कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता हमने अपने लाभों की पूर्ति के लिए वनों का ऐसे अंधाधुन्ध कटाव किया है कि आने वाले समय में पृथ्वी का वातावरण रहने योग्य नहीं रहेगा। यही स्थिति भू-संपदा की है। भूमि का प्रयोग कृषि करने, मनुष्यों और अन्य जीव-जंतुओं के आवास के लिए, जल-स्रोतों की प्राप्ति जैसे अन्य क्रिया-कलापों के लिए किया जाता है। परंतु वास्तविकता यह है कि हम मनुष्यों ने अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए भूमि के उपयोग में कई परिवर्तन कर दिए हैं। जिसका परिणाम आज पर्यावरण में स्पष्ट दिखाई देता है। मनुष्यों द्वारा किया गया भूमि क्षरण दुनिया भर में लगभग 3.2 बिलियन लोगों को प्रभावित करता है। जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर अंतर-सरकारी प्लेटफॉर्म (The Intergovernmental Platform on Biodiversity and Ecosystem Services (IPBES)) की रिपोर्ट के अनुसार पृथ्वी की बर्फ-मुक्त भूमि के 70% भाग का उपयोग मानव अपने लाभ के लिए कर रहा है। भविष्य में यह 90% तक बढ़ने की संभावना है। भारत 1.3 बिलियन की आबादी के साथ क्षेत्रफल की दॄष्टि से दुनिया का सातवाँ सबसे बड़ा देश है। न केवल हमारे देश में बल्कि पूरे विश्व में जनसंख्या घनत्व दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्यावरण को इस प्रकार क्षति पहुँचा रहा है जिससे जलवायु परिवर्तन, जल-स्त्रोतों का सूखना, मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में गिरावट, अम्लीय वर्षा इत्यादि परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं।
भूमि के उपयोग में वैश्विक परिवर्तन के परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर मानव जीवन खतरे के कगार पर है वहीं दूसरी ओर वन्य जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ भी शनै-शनै लुप्त होती जा रही हैं। हर साल जंगल कटने से भोजन और पानी के अभाव में न जाने कितने जानवर मारे जाते हैं। जल-स्त्रोत सूखने और उपलब्ध जल के प्रदूषित होने से जलीय जीव-जंतु भी धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। पृथ्वी का 70% भाग जल से घिरा हुआ है और इतने बड़े भाग का मात्र 2% जल ही पीने योग्य है। इस बात से भविष्य में होने वाली जल की कमी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। कई क्षेत्र वर्तमान में भी जल संकट का सामना कर रहे हैं।
मिट्टी की गुणवत्ता और भूमि की उर्वरता किसी देश के कृषि उत्पादन और आर्थिक विकास के प्रमुख निर्धारक तत्व माने जाते हैं। भारत के उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हर साल कई फसलों की खेती की जाती है। यहाँ उगाई जाने वाली खरीफ की फसलों में चावल, मक्का, बाजरा, काला चना, हरा चना, मूँगफली इत्यादि शामिल हैं और रबी की फसलों में गेंहूँ, जौ, मटर, सरसों, दालें, अलसी इत्यादि। इसके अलावा फलों व सब्जियों में आम, अमरूद, केला, पपीता, कद्दू, करेला, प्याज, फूलगोभी, मिर्च आदि प्रमुख हैं। यहाँ पाई जाने वाली मिट्टी इन फसलों की खेती के लिए उपजाऊ है। लखनऊ में पाई जाने वाली मृदा, उनकी विशेषताएँ और हेक्टेयर में भूमि का क्षेत्रफल निम्नवत है:
केंद्रीय मृदा जल संरक्षण अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान, देहरादून के अनुसार, भारत में मिट्टी के कटाव, उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग के कारण हर साल 5,334 मिलियन टन मिट्टी की हानि हो रही है। जिससे औसतन 16.4 टन उपजाऊ मिट्टी प्रति हेक्टेयर अपनी उपजाऊ क्षमता खोती जा रही है। परिणामस्वरूप खेती पर आश्रित लोगों को गरीबी का सामना करना पड़ता है। इस समस्या के समाधान के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने मृदा स्वास्थ्य में सुधार की अवधारणा को लागू करते हुए मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना (Soil Health Card Scheme) (SHC) आरम्भ किया है। कृषि और सहकारिता मंत्रालय, भारत सरकार का देश भर में 14 करोड़ SHC जारी करने का लक्ष्य है। जिसके लिए उन्होंने राज्यों को 568 करोड़ रुपये का अनुमानित बजट सौंपा है। इस योजना के तहत लगभग 14 करोड़ SHC उत्पन्न करने के लिए हर तीन साल में 253 लाख मिट्टी के नमूनों का परीक्षण किया जाएगा।
आने वाले समय में मानव खाद्य आपूर्ति के लिए जितनी भूमी की आवश्यकता होगी हमारे पास उससे कम भूमि उपलब्ध है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization of the United Nations) के अनुसार, 2050 तक वैश्विक खाद्य मांग को पूरा करने के लिए 500 से अधिक नई कृषि भूमि की आवश्यकता पड़ सकती है। एक अध्ययन के अनुसार, जो जानवर मनुष्यों के निकट रहते हैं, वे रोगों के संक्रमण के लिए और लोगों को बीमार करने के लिए अधिक उत्तरदायी होते हैं। इसका स्पष्ट परिमाण कोविड-19 है। विश्वव्यापी कोरोना रोग की उत्पत्ति भी ऐसे जानवरों से हुई है जो मनुष्यों के आस-पास रहते हैं। कोविड-19 को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सबसे खराब आर्थिक संकट माना जाता है क्योंकि वैश्विक अर्थव्यवस्था तेजी से मंदी की ओर बढ़ रही है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आज यदि पूरा विश्व कोरोनासंकट से जूझ रहा है तो इसका कारण मानव गतिविधियाँ ही हैं। इसीलिए मनुष्यों द्वारा किए गए भूमि के उपयोग में वैश्विक परिवर्तन को शीघ्र रोकने की आवश्यकता है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3qGvlbf
https://bit.ly/3rLTxdO
https://bit.ly/3rO4awB
https://bit.ly/3leW1yJ
https://bit.ly/3tdMScH
https://bit.ly/3vpDJjg
चित्र संदर्भ:
मुख्य तस्वीर में आलू की खेती को दिखाया गया है। (प्रारंग)
दूसरी तस्वीर बाजार में सब्जियों को दिखाती है। (प्रारंग)
तीसरी तस्वीर में आलू की खेती को दिखाया गया है। (प्रारंग)