हमारे आस-पास विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु पाए जाते हैं, कुछ इतने विशाल होते हैं कि हम उन्हें अपनी आँखों से देख सकते हैं, तो कुछ इतने सूक्ष्म होते हैं कि वो हमें दिखाई भी नहीं देते हैं। टार्डिग्रेड (Tardigrades) भी इन्हीं सूक्ष्म जीवों में से एक हैं जो पृथ्वी पर और यहां तक कि लखनऊ में किसी भी स्थान पर पाए जा सकते हैं। ये छोटे जलीय जीव जिन्हें आमतौर पर वाटर बियर (Water bear) भी कहा जाता है, अत्यधिक गर्मी, विकिरण और यहां तक कि बाहरी अंतरिक्ष स्थितियों के शून्यक में भी जीवित रह सकते हैं, वैसे देखा जाएं तो ऐसी परिस्थिति में अधिकांश जानवरों का जीवित रहना काफी मुश्किल होता है। हाल ही में वैज्ञानिकों ने टार्डिग्रेड की एक ऐसी नई प्रजाति की खोज की है जो घातक पराबैंगनी प्रकाश तक को सहन करने में सक्षम है, हालांकि पराबैंगनी प्रकाश को नियमित रूप से मुश्किल से मरने वाले विषाणु और जीवाणु को मारने के लिए उपयोग किया जाता है।
टार्डिग्रेड संघ में लगभग 1,300 ज्ञात प्रजातियां हैं, जो उच्च संघ एकडोजोआ (Ecdysozoa) का एक हिस्सा है, जिसमें केंचुल-मोचन प्रक्रिया से उत्पन्न किये गए जानवर जैसे कि आर्थ्रोपोड (Arthropod) और नेमाटोड (Nematode) होते हैं। संघ के सबसे पहले ज्ञात यथार्थ प्रजाति उत्तरी अमेरिका (North America) में क्रेटेशियस एम्बर (Cretaceous amber) के नाम से जानी जाती है। पूरी तरह से विकसित होने पर टार्डिग्रेड आमतौर पर लगभग 0.02 इंच लंबे होते हैं। चार पैरों के साथ वे छोटे और मोटे होते हैं। टार्डिग्रेड काई और शैवाक पर पाए जाते हैं तथा पौधों की कोशिकाओं, शैवाल और छोटे अकशेरुकीय का सेवन करते हैं। इनकी कुछ प्रजातियां मांसाहारी भी हैं जो अपने भोजन के लिये अन्य टार्डिग्रेड्स का शिकार कर सकती हैं। उन्हें कम-शक्ति वाले सूक्ष्मदर्शी की मदद से देखा जा सकता है, जिससे वे छात्रों और शौकिया वैज्ञानिकों के लिए सुलभ हो सकते हैं। टार्डिग्रेड एक बड़ी मात्रा में प्रतिउपचायक भी बनाते हैं, जो उनके महत्वपूर्ण अंगों की रक्षा करता है। ये एक प्रोटीन (Protein) का उत्पादन भी करते हैं जो उनके डीएनए (DNA) को हानिकारक विकिरण से सुरक्षित रखता है। यह लैंगिक तथा अलैंगिक दोनों माध्यम से प्रजनन करते हैं तथा एक बार में एक से 30 अंडे तक दे सकते हैं।
इनकी खोज 1773 में जर्मन (German) जीव-विज्ञानी जोहान अगस्त एफ्राइम गोएज़ (Johann August Ephraim Goeze) ने की थी और इसको टार्डिग्रेड नाम भी उनके द्वारा ही दिया गया, जिसका अर्थ है “स्लो स्टेपर (Slow stepper)”। 1776 में, इतालवी (Italian) पादरी और जीवविज्ञानी लाज़ारो स्पल्ज़ानानी (Lazzaro Spallanzani) ने पाया कि वाटर बीयर, परिवर्तन करके चरम स्थितियों से बचे रहते हैं। एक शोध में पाया गया कि टार्डिग्रेड -200 डिग्री सेल्सियस (Celsius) से भी अधिक ठंडे तापमान का सामना कर सकते हैं। इनमें क्रिप्टोबायोसिस (Cryptobiosis) नामक एक क्षमता होती है जिसमें जीव लगभग मृत्यु जैसी स्थिति में चला जाता है। यह अवस्था उन्हें जीवित रहने में मदद करती है। क्रिप्टोबायोसिस में, टार्डिग्रेड की चयापचय गतिविधि सामान्य स्तर से 0.01% तक चली जाती है और उनके अंगों को एक शर्करा के एक लगभग ठोस चिपचिपे घोल द्वारा संरक्षित किया जाता है जिसे त्रेहलोस (Trehalose) कहा जाता है।
2016 में, वैज्ञानिकों ने दो ट्यून (Tun) और एक अंडे को पुनर्जीवित किया जो क्रिप्टोबायोसिस में 30 से अधिक वर्षों से थे। यह प्रयोग क्रायोबायोलॉजी पत्रिका में भी बताया गया था। बीबीसी (BBC) के अनुसार, 1948 में एक प्रयोग से मिले विवरण में दावा किया गया है कि 120 साल पुराने एक ट्यून को पुनर्जीवित किया गया था, लेकिन इस शोध को कभी भी दोहराया नहीं गया। 2007 में एक प्रयोग किया गया जिसमें टार्डिग्रेड बिना पानी, ऑक्सीजन (Oxygen) तथा उच्च विकिरण में दस दिनों तक जीवित रहा। ये कई वर्षों तक बिना खाये-पिये रह सकते हैं और ऐसा होने पर ये अपने शरीर की हर गतिविधि को रोक देते हैं। अगर इन्हें थोड़ा पानी मिल जाये तो ये वापस अपनी पूर्व स्थिति में आ जाते हैं। 2019 में भारत द्वारा चंद्रमा पर अपना चंद्रयान II भेजा गया था, लेकिन आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि इससे भी पहले चंद्रमा पर यह जीव पहुंच चुका था। दरसल चंद्रयान II से पूर्व इजराइल (Israel) के आर्च मिशन फाउंडेशन (Arch Mission Foundation) ने चंद्रमा पर अपना एक स्पेस-क्राफ्ट (Space craft) भेजा किंतु कुछ तकनीकी खराबी के कारण यह चंद्रमा पर ठीक से उतर नहीं पाया और ध्वंस हो गया।
यह स्पेस-क्राफ्ट अकेला नहीं था, इसमें एक लूनर लाइब्रेरी (Lunar Library) बनायी गयी थी जिसमें टार्डिग्रेड और मानव डीएनए को संग्रहीत किया गया था। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि वहाँ टार्डिग्रेड अब भी जीवित हैं क्योंकि ये चंद्रमा के तापमान को आसानी से झेल सकते हैं। इसके अतिरिक्त वे निर्जलीकरण की अवस्था में ले जाए गए थे जिससे उन्हें पानी की भी कोई ज़रुरत नहीं है। टार्डिग्रेड चंद्रमा में विकिरण का सामना भी आसानी से कर सकते हैं और इसीलिए ऐसी संभावना है कि वे चंद्रमा पर अब भी जीवित होंगे और पानी में छोड़े बिना भी उन्हें पुनर्जीवित किया जा सकेगा। लेकिन यह सिर्फ सैद्धांतिक रूप से संभव होगा कि टार्डिग्रेड को एकत्र किया जाए, धरती पर वापस लाया जाए, पुनर्जीवित किया जाए और चंद्रमा पर होने वाले प्रभावों को देखने के लिए अध्ययन किया जाए।
संदर्भ :-
https://en.wikipedia.org/wiki/Tardigrade
https://bit.ly/3eCUiCh
https://bbc.in/3bPgfMI
https://bit.ly/2ZGfSLB
चित्र संदर्भ:
मुख्य चित्र टार्डिग्रेड को अंतरिक्ष में दिखाता है। (फ़्लिकर)
दूसरी तस्वीर में टार्डिग्रेड को दिखाया गया है। (विकिपीडिया)
तीसरी तस्वीर में टार्डिग्रेड को दिखाया गया है। (फ़्लिकर)