50 वर्षों में पहली बार, लखनऊ के लोग वार्षिक क्रिसेंथीमम (Chrysanthemum) और कोलियस (Coleus) पुष्प समारोह का आनंद नहीं ले पाए, जिसे हर वर्ष दिसंबर माह में सीएसआईआर-नेशनल बॉटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (CSIR-National Botanical Research Institute - NBRI) द्वारा आयोजित किया जाता है। कुछ साल पहले लखनऊ में राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान में आयोजित होने वाली पुष्प प्रदर्शनी में मांसाहारी या मांसभक्षी (Carnivorous) पौधों का प्रदर्शन किया गया था। इनका प्रदर्शन उत्तर प्रदेश के लिए पहली बार था, क्यों कि इन पौधों को सामान्यता उत्तर पूर्व में पाया जाता है। शहर के लोगों के लिए इस पौधे को देखना बहुत ही दुर्लभ है, इसलिए इसने सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। सामान्यता यही माना जाता है, कि किसी प्रकार का विशिष्ट व्यवहार मनुष्य या जंतु द्वारा ही प्रदर्शित किया जाता है। किन्तु वास्तव में कुछ व्यवहार हमें पौधों में भी दिखाई देते हैं। पौधों का व्यवहार ही वह कारक है, जो उसके अस्तित्व को बचाए रखने में मदद करता है। कुछ विशिष्ट कार्यों को करने के लिए अधिकांश पौधे अपने आकार या रूप में परिवर्तन कर प्रारूपी नमनीयता (Phenotypic plasticity) प्रदर्शित करते हैं, जिसे उनके व्यवहार के रूप में जाना जाता है। कुछ ऐसा ही व्यवहार मांसाहारी पौधों में भी देखने को मिलता है। मांसाहारी पौधे ऐसे पौधे होते हैं, जो अपने पोषक तत्वों को प्राप्त करने के लिए अन्य छोटे जीवों या कीटों का भक्षण या सेवन करते हैं, हालांकि, इनमें प्रकाश संश्लेषण से ऊर्जा उत्पन्न करने की क्षमता भी होती है। ये पौधे ऐसे स्थानों में उगने में सक्षम हैं, जहां मिट्टी में पोषक तत्वों विशेष रूप से नाइट्रोजन (Nitrogen) की मात्रा कम या नहीं होती है। मांसाहारी पौधे अंटार्कटिका (Antarctica) को छोड़कर सभी महाद्वीपों पर पाए जा सकते हैं। माना जाता है, कि वास्तविक मांसाहारी पौधे पुष्पीय पौधों के पांच अलग-अलग वंशों से नौ बार स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं, और इन्हें एक दर्जन से भी अधिक जेनेरा (Genera) द्वारा प्रदर्शित किया गया है। यह वर्गीकरण कम से कम 583 प्रजातियों को शामिल करता है, जो शिकार को आकर्षित कर उसे मारती हैं, तथा उनसे प्राप्त पोषक तत्वों को अवशोषित करती हैं। मांसाहारी पौधों में ड्रोसेरा (Drosera), ब्लैडरवर्ट (Bladderwort), वीनस एस फ्लाइट्रेप (Venus s flytrap), घटपर्णी पौधे (Pitcher plants) आदि शामिल हैं। इन पौधों ने देश में बागवानी के प्रति उत्साही लोगों का ध्यान आकर्षित किया है, जिसके कारण इनका संग्रह और बिक्री काफी बढ़ गयी है।
मांसाहारी पौधों में शामिल घटपर्णी पौधे भारत के पूर्वोत्तर राज्य मेघालय की राजसी पहाड़ियों में पाये जाते हैं, जिसे लोकप्रिय रूप से "मंकी कप" (Monkey cups) के रूप में भी जाना जाता है, क्यों कि जानवरों को इन पौधों से बारिश का पानी पीते हुए देखा गया है। यह पौधा सुराही के आकार की पत्तियाँ विकसित करता है, जो एक गुप्त जाल की तरह कार्य करती हैं, जिसमें शिकार या कीट फंस जाता है। पत्तियों की भीतरी चिकनी दीवारों और चिपचिपे तरल पदार्थ में कीट मारे जाते हैं, तथा तल पर मौजूद एंजाइम (Enzymes) पोषक तत्वों के उत्सर्जन के लिए उन्हें अवशोषित करते हैं। ये पौधे शिकार के लिए भ्रम की स्थिति उत्पन्न करते हैं। कीटों को लुभाने के लिए वे विभिन्न रणनीतियाँ बनाते हैं, उदाहरण के लिए इनमें से कुछ पौधे फूलों की गंध का उत्सर्जन करते हैं। इनकी एक किस्म नेपेंथीस खासियाना (Nepenthes khasiana) कीटों को आकर्षित करने के लिए पराबैंगनी प्रकाश में नीली चमक उत्पन्न करती है। नेपेंथीस खासियाना भारत की एकमात्र ज्ञात घटपर्णी पौधों की प्रजाति है, जो मेघालय के लिए स्थानिक प्रजाति मानी जाती है। हालांकि, 2016 में इसे असम के एक डिमा हसाओ (Dima Hasao) जिले में भी पाया गया है। इसे प्राय संकटग्रस्त प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। 2003 में, विशेषज्ञों ने यह निष्कर्ष निकाला, कि पिछले 30 वर्षों में इस प्रजाति की जंगली आबादी में लगभग 40% तक की गिरावट आई है। चूंकि, यह विलुप्त होने की कगार पर है, इसलिए इसे भारत सरकार के निर्यात की नकारात्मक सूची में शामिल किया गया है। पिछले कुछ दशकों में, मानव गतिविधियों विशेष रूप से व्यापक खनन, खेती के स्थानांतरण, और अत्यधिक संग्रह के कारण इस प्रजाति की जंगली किस्मों में काफी कमी आयी है। जबकि, पौधे के संरक्षण के लिए विभिन्न योजनाएं लागू की गई हैं, लेकिन इसकी सफलता स्थानीय समुदायों के प्रयासों पर टिकी हैं।
2020 के एक आकलन में पाया गया है, कि मोटे तौर पर एक चौथाई प्रजातियों को मानवीय कार्यों से विलुप्त होने का खतरा है। बंद घटपर्णी पौधों के तरल पदार्थ का उपयोग स्थानीय जनजातियों द्वारा औषधीय प्रयोजनों जैसे मोतियाबिंद और रतौंधी को ठीक करने के लिए, पेट की बीमारियों, मधुमेह आदि को दूर करने के लिए किया जाता है। अपने सजावटी मूल्य के कारण इन्हें घरेलू रूप से बेचने या अन्य राज्यों में निर्यात करने के लिए एकत्रित किया जाता है। इनके संरक्षण के लिए शिलांग में नॉर्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी (North Eastern Hill University) और अन्य सरकारी संगठनों द्वारा अनेकों निज-स्थानिक और पर-स्थानिक संरक्षण उपायों को लागू किया गया है। इसके अलावा टिशू कल्चर (Tissue culture), माइक्रोप्रोपागेशन (Micropropagation) और जर्मप्लाज्म प्रिजर्वेशन (Germplasm preservation) जैसी तकनीकों का भी सहारा लिया गया है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3dHEeOV
https://bit.ly/3pKvCtm
https://bit.ly/2NrBhYn
https://bit.ly/2P34ngR
चित्र संदर्भ:
मुख्य चित्र लखनऊ में NBRI प्रदर्शनी को दर्शाता है। (यूट्यूब)
दूसरी तस्वीर में पिचर प्लांट को दिखाया गया है। (पिक्साबे)
तीसरी तस्वीर में वीनस फ्लाईट्रैप को दिखाया गया है। (pixi.org)