सभ्यता के प्रारम्भ से ही दर्शन विद्यावान लोगों के बीच एक विशेष रूचिकर विषय रहा है। प्राचीन काल से ही अपने देश में हिन्दू धर्म में दर्शन अत्यन्त प्राचीन परम्परा रही है, जिनमें कई विचार और शिक्षाएं शामिल हैं। भारतीय परंपरा में दर्शन शब्द की उत्पत्ति दृश्य से हुई है, जिसका तात्पर्य है – “देखना” अर्थात दर्शन साक्षात ज्ञान की प्राप्ति का एक माध्यम है। संक्षेप में कहें तो दर्शन निष्पक्ष, बैद्धिक एवं सर्वांगीण ज्ञान की प्राप्ति का तार्किक प्रयास है। भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों की चर्चा करते समय हम लोगों ने देखा है कि उन्हें साधारणत: आस्तिक और नास्तिक वर्गों में रखा जाता है। वेद को प्रामाणिक मानने वाले दर्शन को आस्तिक (Astika) तथा वेद को अप्रामाणिक मानने वाले दर्शन को नास्तिक (nastika) कहा जाता है। आस्तिक दर्शन छ: हैं जिन्हें सांख्य (Sankhya), योग (Yoga), न्याय (Nyaya), वैशेषिक (Vaisheshika), मीमांसा (Mimamsa) और वेदान्त (Vedanta) कहा जाता है। इनके विपरीत चावार्क (Cārvāka), आजीविक (Ājīvika), बौद्ध (Buddhism), जैन (Jainism) और अन्य दर्शनों को नास्तिक दर्शन के वर्ग में रखा जाता है।
भारतीय दर्शन के मुख्य विद्यालयों या प्रणालियों को औपचारिक रूप से 2000 ईसा पूर्व के बीच वर्तमान युग की प्रारंभिक शताब्दियों के मध्य औपचारिक रूप दिया गया था। आज भारत में हिंदू दार्शनिक विद्यालय सबसे अधिक प्रभावशाली हैं, जबकि बौद्ध और जैन परंपरा हिमालयी क्षेत्रों, पूर्वी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में प्रभावशाली है। इन दर्शनों में अत्याधिक आपसी विभिन्नता है। किन्तु मतभेदों के बाद भी इन दर्शनों में सर्व निष्ठता का पुट है। कुछ सिद्धांतों की प्रमाणिकता प्रत्येक दर्शन में उपलब्ध है। इस साम्य का कारण ये कहा जा सकता है कि प्रत्येक दर्शन का विकास एक ही भूमि यानि की भारत में ही हुआ है। एक ही देश में पनपने के कारण इन दर्शनों पर भारतीय प्रतिभा, निष्ठा और संस्कृति की छाप अमिट रूप से पड़ गई है। तो आइये एक संक्षिप्त परिचय इन दर्शनों से भी कराते हैं:
आस्तिक दर्शन
वैदिक दर्शन: वेद (लगभग 1500-1000 ईसा पूर्व) भारतीय परंपरा के सबसे पुराने ग्रंथ हैं। इनमें ऐतिहासिक वैदिक धर्म के मुख्य विचार, अनुष्ठान और भजन शामिल हैं। वेद को प्रमाणित मानने वाले छः दर्शन हैं, इन्हीं को वैदिक दर्शन या षड्दर्शन कहते हैं।
• मीमांसा दर्शन : इसमें धर्म एवं धर्मी पर विचार किया गया है। यह यज्ञों की दार्शनिक विवेचना करता है लेकिन साथ-साथ यह अनेक विषयों का वर्णन करता है। यह हिन्दू दार्शनिक विद्यालयों में सबसे शुरूआती विद्यालयों में से एक था। इसका मुख्य उद्देश्य वेदों का अधिकार स्थापित करना है।
• योग दर्शन : इस दर्शन में ध्येय पदार्थों के साक्षात्कार करने की विधियों का निरुपण किया गया है। इसमें ईश्वर, जीव, प्रकृति का स्पष्टरूप से कथन किया गया है। यह ध्यान, चिंतन और मुक्ति पर केंद्रित है।
• सांख्य दर्शन : इस दर्शन में जगत के उपादान कारण प्रकृति के स्वरूप का वर्णन, सत्त्वादिगुणों का साधर्म्य-वैधर्म्य और उनके कार्यों का लक्षण दिया गया है। इसमें नास्तिक लेखकों के साथ-साथ कुछ आस्तिक विचारकों को भी शामिल किया गया है।
• वैशेषिक दर्शन : इसमें द्रव्य को धर्मी मानकर गुण आदि को धर्म मानकर विचार किया है। यह परंपरा पदार्थ के तत्वमीमांसा पर केंद्रित है, और परमाणुओं के सिद्धांत को समझाता है। भौतिक-विज्ञान सम्बन्धित अनेको विषयों को इसमें सम्मलित किया गया है।
• वेदान्त दर्शन : इस दर्शन में ब्रह्म के स्वरूप का विवेचन किया गया है तथा ब्रह्म का प्रकृति, जीव से सम्बन्ध स्थापित किया गया है। उपनिषदों के अनेको स्थलों का इस ग्रन्थ में स्पष्टीकरण किया गया है।
• न्याय दर्शन : न्याय दर्शन भारत के छः वैदिक दर्शनों में एक दर्शन है। जिनका न्यायसूत्र इस दर्शन का सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जिन साधनों से हमें ज्ञेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हीं साधनों को ‘न्याय’ की संज्ञा दी गई है। दूसरे शब्दों में, जिसकी सहायता से किसी सिद्धान्त पर पहुँचा जा सके, उसे न्याय कहते हैं। प्रमाणों के आधार पर किसी निर्नय पर पहुँचना ही न्याय है। यह मुख्य रूप से तर्कशास्त्र और ज्ञानमीमांसा है। न्यायशास्त्र के कुछ मुख्य सिद्धान्त है जैसे कि प्रमाण। भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं जो सत्य ज्ञान करने में सहायता करे, अर्थात् वह साधन या प्रक्रिया जिससे किसी दूसरी बात का यथार्थ ज्ञान हो। प्रमाण न्याय का मुख्य विषय है। 'प्रमा' नाम है यथार्थ ज्ञान का। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो, उसे प्रमाण कहते हैं।
ज्ञान का सिद्धांत, प्रणाम-शास्त्र, संस्कृत साहित्य की एक समृद्ध शैली है, जो लगभग बीस शताब्दियों से प्रचलन में है जिसका उल्लेख दर्शनशास्त्र के विभिन्न शाखाओं से संबंधित ग्रंथों में किया गया है। इन शाखाओं में वाद-विवाद विशेष रूप से ज्ञानमीमांसा के पहलुओं पर होता है, लेकिन कोई भी लेखक स्वतंत्र रूप से उन आध्यात्मिक प्रतिबद्धता के ज्ञान पर नहीं लिखता है, जो विभिन्न शास्त्रीय प्रणालियों (दर्शन), यथार्थवादी और आदर्शवादी, द्वैतवादी और अद्वैतवादी, आस्तिक और नास्तिक आदि को परिभाषित करते हैं। और इसके इतिहास के शुरुआती प्रमुख शाखाओं में से प्रत्येक अपने ज्ञान और औचित्य पर निर्भर करते हैं। फिर भी कई सामान्य ज्ञानमीमांसा संबंधी धारणाएं या दृष्टिकोण हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण है औचित्य के सवालों में एक विश्वास के स्रोत पर ध्यान केंद्रित करना। मुख्यधारा की शास्त्रीय भारतीय ज्ञान-मीमांसा में उत्पत्ति के विषय में सिद्धांतों का वर्चस्व है, अर्थात्, ज्ञान-सृजन की प्रक्रियाओं के बारे में विचार, जिसे प्रमाण (ज्ञान के स्रोत) कहा जाता है।
नास्तिक दर्शन:
• चार्वाक दर्शन : चार्वाक दर्शन एक प्राचीन भारतीय भौतिकवादी नास्तिक दर्शन है। यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा पारलौकिक सत्ताओं को यह सिद्धांत स्वीकार नहीं करता है। ये भारतीय धर्मों और दर्शनशास्त्र के विद्यालयों के आलोचक थे।
• आजीविक : आजीविक या ‘आजीवक’, दुनिया की प्राचीन दर्शन परंपरा में भारतीय जमीन पर विकसित हुआ पहला नास्तिकवादी या भौतिकवादी सम्प्रदाय था। भारतीय दर्शन और इतिहास के अध्येताओं के अनुसार आजीवक संप्रदाय की स्थापना मक्खलि गोसाल (गोशालक) ने की थी।
• बौद्ध दर्शन : बौद्ध दर्शन से अभिप्राय उस दर्शन से है जो भगवान बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों द्वारा विकसित किया गया और बाद में पूरे एशिया में उसका प्रसार हुआ। यह गौतम बुद्ध की शिक्षाओं और ज्ञान पर आधारित है। यह दर्शन आत्मवाद का खंडन करता हैं।
• जैन दर्शन : जैन दर्शन एक प्राचीन भारतीय दर्शन है जो मूल रूप से कर्म, पुनर्जन्म, संसार और मोक्ष पर आधारित है। अंतिम तीर्थंकर, भगवान महावीर के द्वारा जैन दर्शन का पुनराव्रण हुआ । इसमें वेद की प्रामाणिकता को कर्मकाण्ड की अधिकता और जड़ता के कारण मिथ्या बताया गया है।
अन्य हिंदू प्रणालियां
नास्तिक और आस्तिक दर्शन के अलावा लोकायत तथा शैव एवं शाक्त दर्शन भी हिन्दू दर्शन के अभिन्न अंग हैं। इसमें अक्सर संयुक्त विचार को देखा जाता है। माधवाचार्य विद्यारण्य (1238–1317 ई.पू.) ने अपनी पुस्तक 'सर्व-दर्शन-समागम' में बौद्ध धर्म के साथ-साथ जैन धर्म और हिंदू दर्शन को भी शामिल किया हैं। हिंदू दर्शन के उप-विद्यालय निम्न प्रकार है:
• पाशुपत (Pāśupata) दर्शन : पाशुपत दर्शन का उल्लेख सर्वदर्शनसंग्रह में है। इसे 'नकुलीश (Nakulisa) पाशुपत दर्शन' भी कहते हैं। इस दर्शन में जीव मात्र को 'पशु' की संज्ञा दी गई है।
• शैवसिद्धान्त (Śaiva siddhānta): शैवसिद्धान्त, आगम शैव सम्प्रदाय तथा वैदिक शैव सम्प्रदाय का सम्मिलित सिद्धान्त है।
• प्रत्यभिज्ञा दर्शन (Pratyabhijña) : प्रत्यभिज्ञा दर्शन, काश्मीरी शैव दर्शन की एक शाखा है।
• रसेश्व (Raseśvara) : रसेश्वर प्राचीन भारत का एक शैव दार्शनिक सम्प्रदाय था जिसका जन्म प्रथम शताब्दी ईसवीं में हुआ था।
• रामानुज स्कूल (Ramanuja school) : रामानुज ने वेदान्त दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट अद्वैत वेदान्त लिखा था।
• मध्वाचार्य (Madhvācārya) : श्री मध्वाचार्य ने प्रस्थानत्रयी ग्रंथों से अपने द्वैतवाद सिद्धान्त का विकास किया।
• पाणिनि (Pāṇinīya) : पाणिनि संस्कृत भाषा के सबसे बड़े वैयाकरण हुए हैं, उनके सूत्रों की शैली अत्यंत संक्षिप्त है।
आपको यह भी बता दे कि वैदिक दर्शन ने मुक्त ऊर्जा (Free Energy) और क्वांटम यांत्रिकी (Quantum Mechanics) की अवधारणा को प्रभावित किया है। अंतरिक्ष के गुणों का वर्णन प्राचीन वैदिक दर्शन और विभिन्न प्राचीन सभ्यताओं से लेकर आइंस्टीन (Einstein), न्यूटन (Newton) और बहुत से वैज्ञानिकों ने किया है। आध्यात्मिक विज्ञान की अवधारणा से आधुनिक विज्ञान सीधे जुड़ा हुआ है। यदि हम एक माइक्रोस्कोप (Microscope) की सहायता से परमाणु की संरचना का का अवलोकन करते हैं, तो अदृश्य भंवर जैसी कुछ आकृतियां दिखाई देती हैं और ऊर्जा के इन असीमित भंवरों को क्वार्क्स (Quarks) और फोटॉन (Photon) कहा जाता है। ये परमाणु की संरचना को बनाते हैं। जैसे ही आप परमाणु की संरचना पर ध्यान केंद्रित करते हैं, आपको कुछ भी नहीं दिखाई देगा, आप एक भौतिक शून्य को महसूस करेंगे। हमारे पास परमाणु की कोई भौतिक संरचना नहीं है, परमाणु अदृश्य ऊर्जा से बने होते हैं, न कि ठोस पदार्थ से और इस अदृश्य ऊर्जा का वर्णन वैदिक दर्शन में भी मिलता है। हमारी प्राचीन दुनिया की आध्यात्मिक अवधारणाएँ आधुनिक समय के विज्ञान से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुई हैं और इस बात से निकोला टेस्ला (Nikola Tesla) अच्छी तरह से परिचित हो गये थे हैं। टेस्ला ने जीरो पॉइंट फील्ड (Zero Point Field), आकाश (Akasha) या ईथर (Ether) की महान शक्ति (इलेक्ट्रॉनों (electrons) और नाभिक (nucleus) के बीच अंतरिक्ष की शक्ति) को समझा। जिस विज्ञान पर वह काम कर रहे थे उसका सहसंबंध 'आकाश' और 'प्राण' जैसे संस्कृत शब्दों से था और इन्हें बल और हम जिस पदार्थ से घिरे हुए हैं इनके द्वारा बताया है। ये शब्द उपनिषद (वैदिक ग्रंथों का संग्रह) से आते हैं। निकोला टेस्ला के स्वामी विवेकानंद (1863-1902) के साथ काफी मधुर सम्बन्ध थे, जो वेदांत दर्शन के सबसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली आध्यात्मिक नेताओं में से एक थे। टेस्ला ने विवेकान्द से मिलने के बाद संस्कृत में शब्दों का प्रयोग करना शुरू कर दिया था। सत्य की शुद्ध प्रकृति को जानने के लिये टेस्ला ने पूर्वी दृष्टिकोण का अध्ययन करना शुरू कर दिया था। उन्होंने जानने की कोशिश करी कि इस दुनिया को चलाता कौन है। आखिरकार, उसने विद्युत शक्ति के वायरलेस ट्रांसमिशन (wireless transmission) के लिए आधार बना लिया, जिसे टेस्ला कोइल ट्रांसफार्मर (Tesla Coil Transformer) के नाम से जाना जाता है। टेस्ला ने फ्री एनर्जी की अवधारणा के लिये आकाश और प्राण को आधार बनाया था। वह इन दोनों के आधार विज्ञान में अपने प्रश्नों के उत्तर खोज रहा था। टेस्ला के अलावा बोर (Bohr), हाइजनबर्ग (Heisenberg) और श्रोडिन्गर (Schrödinger) ने भी वैदिक ग्रंथों को पढ़ा।
संदर्भ:
https://plato.stanford.edu/entries/epistemology-india/
https://en.wikipedia.org/wiki/Hindu_philosophy
https://en.wikipedia.org/wiki/Indian_philosophy
http://lukemuehlhauser.com/ancient-indian-philosophy-a-painless-introduction/
https://bit.ly/3aggteP
https://bit.ly/3b0FYA2
चित्र संदर्भ:
मुख्य चित्र दार्शनिकों को दर्शाता है। (प्रारंग)
दूसरी तस्वीर में आदि शंकराचार्य को शिष्यों के साथ दिखाया गया है। (विकिमीडिया)
तीसरी तस्वीर में ब्रह्मा को दिखाया गया है। (विकिमीडिया)