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यद्यपि लोहड़ी की उत्पत्ति के बारे में समाज में अलग-अलग कहानियाँ मौजूद हैं, लेकिन आम तौर पर इसे फसल उत्सव के रूप में मनाया जाता है। सर्दियों के मौसम के अंत में आने वाला यह पर्व, पौष माह के अंतिम दिन और माघ माह की शुरुआत (12/13 जनवरी ग्रेगेरियन (Gregorian) पंचांग के अनुसार) को चिन्हित करता है। यह वो समय है, जब खेत उत्तर भारत की मुख्य फसल गेहूं से लहलहाते हैं। जनसांख्यिकीय रूप से, कृषि पर्व जैसे लोहड़ी और सामान्य त्यौहार में एकत्रित होने वाला जनसमूह एक समान होता है, लेकिन कृषि पर्व ग्रामीण निवासियों की विभिन्न श्रेणियों को प्रभावित करते रहे हैं तथा गैर-निवासियों और कभी-कभी साहसिक कार्यों में भाग लेने वाले लोगों की महत्वपूर्ण संख्या को भी आकर्षित करते रहे हैं। साथ ही यह उन लोगों को भी आकर्षित करते हैं, जो व्यक्ति, घटनाओं और स्थानों की नैतिक उत्कृष्टता से सम्बंधित हैं। इस तरह से कृषि पर्व 21 वीं सदी के परिदृश्य में, सार्वजनिक भूमिका और धार्मिक गतिविधियों के महत्व का उदाहरण पेश करते रहे हैं।
शीतकालीन लोक उत्सव लोहड़ी को मुख्य रूप से पंजाब क्षेत्र में मनाया जाता है, जो सर्दियों के अंत को चिन्हित करने के साथ-साथ उत्तरी गोलार्ध में सूर्य की लंबी यात्रा का पारंपरिक स्वागत भी करता है। यह मकर संक्रांति से पहले की रात को मनाया जाता है, जिसे माघी के रूप में भी जाना जाता है। यूं तो इस पर्व को भारत में रहने वाले अनेक लोग मनाते हैं, लेकिन पंजाब के लोगों के लिए यह खुशी के विशेष अवसरों में से एक है। पंजाब के अलावा यह हरियाणा, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में सिखों और हिंदुओं द्वारा उत्साह से मनाया जाता है। यह उत्सव मूलत: अग्नि और सूर्य देवता को समर्पित है, जो उस समय को भी दर्शाता है, जब सूर्य मकर राशि से होकर गुजरता है। सूरज की स्थिति में परिवर्तन से सर्दी के मौसम का प्रभाव कम हो जाता है, और लोगों को सर्दी से राहत मिलने लगती है। माना जाता है कि, लोहड़ी को मनाने से दो उद्देश्यों की पूर्ति होती है, पहला उद्देश्य वार्षिक फसल का जश्न मनाना तथा दूसरा उद्देश्य सूर्य-देवता का पूजन करना है। इन दोनों ही उद्देश्यों का उत्तर भारतीय लोगों के जीवन में बहुत अधिक महत्व है, विशेष रूप से उन लोगों के जीवन में जो कृषि समाज से संबंधित हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार, लोहड़ी का सम्बंध “दुल्ला भट्टी” नाम के एक बहादुर व्यक्ति से है, जिसने सुंदरी और मुंदरी नाम की दो लड़कियों को मुगलों से बचाया और उनकी देखभाल खुद की बेटियों के रूप में की। लोग इस दिन उनकी बहादुरी को याद करते हुए गीत गाकर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। एक अन्य कथा के अनुसार, लोहड़ी का नाम समाज सुधारक कबीर दास की पत्नी ‘लोई’ के नाम पर रखा गया है।
लोहड़ी का सबसे मुख्य आकर्षण होलिका (Bonfire) है, जिसे आग और सूर्य का प्रतीक माना जाता है। इसके अलावा इसे ऊर्जा और आध्यात्मिक शक्ति के स्रोत के रूप में भी देखा जाता है। लोग होलिका के चारों ओर इकट्ठा होते हैं तथा इसकी परिक्रमा करते हुए गीत गाते हैं तथा नृत्य करते हैं। परंपरागत रूप से, लोग होलिका के आसपास इकट्ठा होते थे और “सुंदरिये मुंदरिये हो” जैसे लोक गीत गाते थे, लेकिन आजकल, अधिकांश लोग प्रचलित गीतों के माध्यम से जश्न का आनंद उठाते हैं। होलिका की पूजा देवता के रूप में की जाती है, जिसमें मूंगफली, पॉपकॉर्न (Popcorn), तिल, गजक, रेवड़ी आदि से बनी मिठाइयां चढ़ायी जाती हैं। कुछ लोग परिक्रमा करने के बाद कच्चा दूध और पानी भी चढ़ाते हैं। पंजाब के लोकगीतों के अनुसार, लोहड़ी के दिन जलायी जाने वाली होलिका की लपटें लोगों के संदेश और प्रार्थनाओं को सूर्य देवता तक ले जाती हैं, ताकि वे फसलों को बढ़ने में मदद करने के लिए धरती पर गरमाहट उत्पन्न कर सकें। बदले में, सूर्य देव, धरती को आशीर्वाद देते हैं तथा निराशा और ठंड के दिनों को समाप्त करते हैं। नवविवाहित जोड़े और एक नवजात शिशु के लिए, पहली लोहड़ी का बहुत अधिक महत्व माना जाता है, क्यों कि, यह प्रजनन और शुभता का प्रतीक है।