City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Total | ||
2306 | 145 | 2451 |
***Scroll down to the bottom of the page for above post viewership metric definitions
लखनऊ का मलाई मक्खन, आगरा का पेठा, मथुरा का पेड़ा, बनारस का बीड़ा ये जायके इन शहरों की पहचान बन गए हैं। ठीक ऐसे ही रामपुर के स्वादिष्ट हब्शी हलवे की बात कि जाएं तो यह नवाबों द्वारा दक्षिण अफ्रीका (Africa) से लाए गए कारीगरों की देन है, यह भारत में अफ्रीकी प्रभावों का एक छोटा सा उदाहरण है। हब्शी हलवे को खासतौर से दूध, देशी घी, सूजी और समनक (समनक गेहूं से बनती है, गेहूं को बोया जाता है। कुछ रोज बाद उसके कल्ले निकलते हैं, जिन्हें पीसा जाता है।) से बनाया जाता है। इसके अलावा हलवे में बादाम और पिस्ता भी डाला जाता है। इन सबको मिलाकर हलवा तैयार किया जाता है। आप हब्शी हलवे को घर में भी बना सकते हैं, इसे बनाने में ज्यादा समय नहीं लगता है। इसको बनाने के लिए आपके पास नैस्ले मिल्क्मेड (Nestle milkmaid) का एक डिब्बा होना चाहिए और आधा कप दूध (100 मिलीलीटर (Milliliter))।
बनाने की विधि :
बड़े आकार का एक कटोरा लें और उसमें मिल्क्मेड डालें। कटोरे के आकार का चयन करने में सावधानी बरतें उसमें मिल्कमेड लगभग एक-चौथाई तक भरा हो ताकि जब इसे पकाये तो यह बाहर न गिर जाएं। इसे ओवन (Oven) में डालें और माइक्रोवेव (Microwave) तापमान 200ºC पर विन्यस्त करें। 1 मिनट के लिए माइक्रोवेव करें और कटोरे को देखते रहें। यदि वह बाहर गिर रहा है तो ओवन को बंद कर दें। (आम तौर पर, यह गिरना तो नहीं चाहिए परंतु कभी ऐसा हो सकता है।)। एक मिनट के बाद कटोरे को बाहर निकालें और आप देखेंगे कि मिल्कमेड के किनारे जल गए हैं। इसे अब अच्छी तरह से हिलाएं और फिर से ओवन रखें और प्रक्रिया को दुबारा दोहराए। पांच बार ऐसा ही करें और उसके बाद, आप अपने कटोरे में एक हल्का भूरा रवेदार पदार्थ पाएंगे। यदि आप रंग या बनावट से संतुष्ट नहीं हैं, तो आप इस प्रक्रिया को कुछ और समय दोहरा सकते हैं। एक बार जब यह पूरी तरह से सूख जाए तो दूध (दूध गर्म या ठंडा हो सकता है) डालें और अच्छी तरह से मिलाएं। पदार्थ को ठंडा होने दें। यदि आप जल्दी में हैं तो आप इसे फ्रिज (Fridge) में रख सकते हैं। ठंडा होने के बाद, इसे एक सपाट थाली पर फैलाएं और चौकोर टुकड़ों में काट लें। आपका हब्शी हलवा या दूध पेड़ा बन गया है।
भारत में अफ्रीकियों का प्रभाव या आगमन कोई मध्यकालीन गति नहीं है अपितु यह प्राचीन काल से होते आ रहे एक लम्बे इतिहास के झरोखे हैं। अफ्रीका के लोगों को सबसे पहले दासों के रूप में विभिन्न देशों में भेजा जा रहा था। अटलांटिक महासागर (Atlantic Ocean) के माध्यम से बड़ी संख्या में दासों का व्यापार प्राचीन काल में होता था। भारत के कई राजा-महाराजाओं ने अफ़्रीकी लोगों को अपने निजी अंगरक्षकों, नौकरों और संगीतकारों के रूप में तैनात किया। देश के कई हिस्सों में तो सिदियों ने काफ़ी प्रगति की और सैनिक जनरल और कई बार तो राजा भी बने। गुलामी के उन्मूलन के साथ, उन्नीसवीं सदी के मध्य के आसपास लोगों के इस भयावह जन बल आंदोलन का अंत हुआ। उन्मूलन के समय दासों को उनके मालिकों द्वारा मुक्त कर दिया गया था, या वे अपनी स्वतंत्रता अर्जित कर चुके थे, लेकिन अपने मूल देश लौटने में असमर्थ थे। इसलिए, उन्होंने दक्षिण एशिया के संस्कृतियों के जटिल वाग्जाल का हिस्सा बनकर अपने समुदायों को बनाकर रखा और भारत में ही बस गए।
आमतौर पर इन्हें पूरे दक्षिण एशिया (Asia) में हब्शी के रूप में जाना जाता है, एक शब्द जो अरबी शब्द हबीश से निकला है, एक अधिक स्थानीय स्तर पर उन्हें पाकिस्तान (Pakistan) में शीद्दी, भारत में सिद्दी और श्रीलंका (Sri Lanka) में काफ़िर (बिना किसी जातिवादी धारणा के) के रूप में जाना जाता है। इनकी जनसंख्या विभिन्न देशों में भिन्न भिन्न हैं। पाकिस्तान में रहने वाले सिद्दियों की आबादी सबसे अधिक 50,000 से ऊपर है, इसके बाद भारत में लगभग 25,000 की अनुमानित आबादी है। श्रीलंका में सबसे कम लगभग 300 लोग शेष हैं।
वर्तमान में सिद्दी समूह ज्यादातर देश के पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम में गुजरात और कर्नाटक के ग्रामीण इलाकों में केंद्रित है, हालांकि कुछ मुंबई और हैदराबाद जैसे शहरों में रहते हैं। उपमहाद्वीप में सदियों के बाद, सिद्दी की भाषाएँ, भोजन और कपड़े पूरी तरह से भारतीय हैं। अधिकांश यह भी नहीं जानते हैं कि वे मूल रूप से किस अफ्रीकी देश से हैं। फिर भी वे संगीत और नृत्य के माध्यम से अपने मूल देश से जुड़े हुए हैं। अधिकांश सिद्दी सूफी मुस्लिम हैं, और कुछ ईसाई या हिंदू हैं। वे देश के सबसे गरीब समूहों में से हैं; "अनुसूचित जनजातियों" में से एक जो अतिरिक्त सरकारी कल्याण योजनाओं के लिए योग्य हैं। सिद्दियों की बिखरी हुई उपस्थिति और एक वास्तविक एकीकृत सामाजिक समूह की कमी के कारण, दक्षिण एशिया के अफ्रीकी प्रवासी को अटलांटिक पार करने वालों के विपरीत शिक्षाविदों और शोधकर्ताओं द्वारा बड़े पैमाने पर शोध किया जा रहा है। फिर भी यह अधिक से अधिक युग और समान महत्व का एक व्यापार मार्ग है जिसे आगे के अध्ययन और प्रलेखन की आवश्यकता है, ताकि भविष्य की पीढ़ियों में इन एफ्रो-एशियाई (Afro-Asian) समुदायों का इतिहास खो न जाए।
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.