भोलेनाथ के दर्शन के लिए हम जब भी मंदिर जाते हैं तो हमारा सारा ध्यान शिवलिंग पर ही होता है और उसके बाद मंदिर की अन्य कलाकृतियों पर जाता है। हम सभी जब मंदिर में प्रवेश करते हैं तो शिवलिंग से पहले नंदी बेल की प्रतिमा को देखते हैं। उन्हें अक्सर शिवलिंग की ओर मुख करे हुए देखा जा सकता है और साथ ही पुजारी द्वारा उन्हें घंटियों, लटकन और फूलों की माला पहनाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि जावानीस (Java, Indonesia) के मंदिरों में भगवान शिव ने एक बैल का रूप लिया था, जिसे नंदी-केसवरा के नाम से जाना जाता है, और उन्हें अक्सर एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में कमल का फूल लिए हुए खड़े दिखाया है।
नंदी शब्द, मूल रूप से तमिल शब्द 'नंधु' से आया है, जिसका अर्थ होता है, विकसित होना, फलना-फूलना या प्रकट होना। इस शब्द का उपयोग सफेद बैल, या दिव्य बैल नंदी के बढ़ने या पनपने का संकेत देने के लिए किया जाता था। संस्कृत शब्द में नंदी का अर्थ खुश, आनंद और संतुष्टि है, जो शिव के दिव्य संरक्षक नंदी में विद्यमान हैं। भगवान शिव के वाहन होने के अलावा नंदी को भगवान के गणों या परिचारकों की टीम (team) के प्रमुख के रूप में भी दर्शाया गया है और वे अक्सर कार्यालय के स्वर्णिम अधिकारीगण हुआ करते थे। उनके अन्य कर्तव्यों में सभी चौपाइयों के संरक्षक और संगीत के प्रदाता होने के नाते शिव का तांडव, सृष्टि का लौकिक नृत्य शामिल है।
हिन्दू चित्रों में भगवान शिव को अक्सर नंदी पर सवारी करते हुए दर्शाया गया है। पहली और दूसरी शताब्दी में गांधार में कुषाणों द्वारा ढाले गए सोने के सिक्कों में नंदी को भगवान शिव के साथ देखा गया है। भगवान शिव के साथ नंदी की पूजा कई हजारों वर्षों से की जा रही है और इस बात की पुष्टि तब हुई जब सिंधु घाटी मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता (Mohenjodaro and Harappan Civilization) से इस बात के कुछ साक्ष्य प्राप्त हुए। प्रसिद्ध 'पशुपति सील (Pasupati Seal)' और कई बैल-मुहरें भी प्राप्त हुईं, जिन्होंने यह संकेत दिया कि नंदी की पूजा एक परंपरा है जो हजारों वर्षों से चली आ रही है। नंदी को ऋषि शिलाद के पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है। शिलाद ने गंभीर तपस्या करके भगवान शिव से एक ऐसा पुत्र मांगा जो अमरता और भगवान शिव के आशीर्वादों से युक्त हो। माना जाता है कि शिलाद द्वारा किए गए यज्ञ से नंदी का जन्म हुआ और जन्म के समय उनका पूरा शरीर हीरे से बना हुआ था।
नंदी ने मध्यप्रदेश के जबलपुर में त्रिपुर तीर्थक्षेत्र के पास वर्तमान नंदिकेश्वर मंदिर में, नर्मदा नदी के तट पर तपस्या की ताकि वे भगवान शिव का द्वारपाल तथा वाहन बन सकें। नंदी को देवी पार्वती से भगवान शिव द्वारा सिखाई गई अग्नि और तांत्रिक विद्या का दिव्य-ज्ञान प्राप्त हुआ था। उन्होंने यह दिव्य-ज्ञान अपने आठ शिष्यों (नंदी, नंदिनाथ सम्प्रदाय के आठ शिष्यों अर्थात् सनक, सनातन, सनंदना, सनतकुमारा, तिरुमुलर, व्यग्रपदा, पतंजलि और शिवयोग मुनि, के प्रमुख गुरू माने जाते हैं।) को सिखाया और इन शिष्यों को शैव धर्म का ज्ञान फैलाने के लिए दुनिया भर में भेजा गया था। नंदी के बारे में कई अन्य पौराणिक कथाएँ भी मौजूद हैं, एक में नंदी ने ही रावण को यह श्राप दिया कि उसका राज्य एक वानर द्वारा जलाया जाएगा। बाद में, सीता माता की खोज में हनुमान जी ने लंका को जलाया था। सौर पुराण में उन्हें एक ऐसे प्राणी के रूप में वर्णित किया गया है, जो सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हैं, एक हजार सूर्य की तरह चमक रहे हैं और हाथ में त्रिशूल धारण किए हुए, तीन नेत्रों वाले, चंद्रमा की चांदनी से सुशोभित हैं। ऐसा माना जाता है कि शिव के आदेश पर ही नंदी ने हाथी ऐरावत को मारा जोकि इंद्र देवता के वाहन के रूप में सुशोभित था।
नंदी शाश्वत प्रतीक्षा का प्रतीक हैं, क्योंकि भारतीय संस्कृति में प्रतीक्षा को सबसे बड़ा नैतिक सद्गुण माना जाता है। शिव मंदिरों में नंदी को जिस प्रकार से स्थापित किया गया है, वह ये बताता है कि कैसे बैठना है और प्रतीक्षा करनी है। प्रतीक्षा स्वाभाविक रूप से ध्यान है। इस मुद्रा में नंदी बिना किसी अपेक्षा के भगवान शिव की निरंतर प्रतीक्षा करता है। नंदी शिव के सबसे करीबी साथी हैं क्योंकि वे ग्रहणशीलता का सार हैं। मंदिर में जाने से पहले, किसी भी भक्त के पास नंदी जैसी गुणवत्ता होनी चाहिए, भक्त के अंदर बिना किसी अपेक्षा के प्रतीक्षा का भाव होना चाहिए। इसलिए, यहां बैठकर नंदी यह संदेश या सार देते हैं कि जब आप मंदिर में प्रवेश करें तो अपनी काल्पनिक चीजें न करें और न ही किसी चीज के लिए प्रार्थना करें, बस नंदी की तरह वहां जाकर बैठ जाएं। नंदी किसी प्रत्याशा या अपेक्षा का इंतजार नहीं करते, वे बस प्रतीक्षा या ध्यान करते हैं। दरसल ध्यान हमारे जीवन में किसी प्रकार की गतिविधि नहीं है, बल्कि ध्यान गुणवत्ता है। ध्यान का अर्थ है कि आप अस्तित्व की अंतिम प्रकृति तक, अस्तित्व को सुनने के लिए तैयार हैं। आपके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता, आपको बस सुनना है। नंदी भी इसी गुण को अपनाते हुए शिवलिंग के समीप सिर्फ बैठे रहते हैं और नींद में या निष्क्रिय तरीके से नहीं बल्कि सतर्क रहते हैं।
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