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सामान्य रूप से शरणार्थी, वे लोग हैं, जो उत्पीड़न, युद्ध या हिंसा के कारण अपना देश छोड़कर किसी दूसरे देश में रहने लगते हैं। शरणार्थियों के हित और सुरक्षा को ध्यान में रखकर, सन् 1951 में शरणार्थियों के लिए एक सम्मेलन, जिसे ‘शरणार्थी सम्मेलन’ के नाम से जाना जाता है, प्रस्तावित किया गया। यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्र की बहुपक्षीय संधि है, जो बताती है कि, शरणार्थी कौन हैं? शरणार्थियों को क्या अधिकार प्राप्त होने चाहिए? तथा राष्ट्रों की अपने शरणार्थियों को लेकर क्या जिम्मेदारियां होंगी? यह संधि यह भी निर्धारित करती है कि, कौन से लोग शरणार्थी के रूप में योग्य नहीं हैं? सम्मेलन को 28 जुलाई 1951 को एक विशेष संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में मंजूरी दी गई थी, और 22 अप्रैल 1954 को लागू किया गया था। यह शुरू में 1 जनवरी 1951 (द्वितीय विश्व युद्ध के बाद) से यूरोप (Europe) के शरणार्थियों की रक्षा करने के लिए सीमित था, हालांकि बाद में प्रावधान अन्य स्थानों से आये शरणार्थियों के लिए भी लागू हो गया। भारत में शरणार्थियों की बात करें, तो शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त (United Nations High Commissioner for Refugees-UNHCR) की 2017 की एक रिपोर्ट (Report) के अनुसार, भारत 2,00,000 शरणार्थियों की मेजबानी कर रहा है। ये शरणार्थी लाखों की संख्या में म्यांमार (Myanmar), अफगानिस्तान (Afghanistan), सोमालिया (Somalia), तिब्बत (Tibet), श्रीलंका (Sri Lanka), पाकिस्तान (Pakistan), फिलिस्तीन (Palestine) और बर्मा (Burma) जैसे देशों से भारत आये हैं।
भारत में शरणार्थियों का आगमन सबसे अधिक सन् 1947 में भारत के विभाजन के फलस्वरूप हुआ। इस दौरान दिल्ली, पंजाब और बंगाल के शरणार्थी शिविरों में पाकिस्तान से आये हुए लाखों लोगों ने शरण ली। दूसरा सबसे बड़ा आगमन, 1971 के दौरान तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य दमन के कारण हुआ, जिसके अंतर्गत लगभग एक करोड़ लोगों ने भारत में शरण ली थी। 1951 की जनगणना के आधार पर, भारत और पाकिस्तान के विभाजन के तुरंत बाद 72.26 लाख मुसलमान भारत से पाकिस्तान चले गए, जबकि 72.49 लाख हिंदू और सिख लोगों ने पाकिस्तान से आकर भारत की शरण ली। लगभग 112 लाख प्रवासियों ने पश्चिमी सीमा को पार किया, जिससे कुल प्रवासी आबादी का 78% हिस्सा बना। यह प्रवास सबसे अधिक पंजाब क्षेत्रों में हुआ, जिसके अंतर्गत लगभग 34 लाख हिंदू और सिख पाकिस्तान से आकर भारत के पूर्वी पंजाब में बस गये। इस दौरान लगभग 35 लाख हिंदू पूर्वी बंगाल से भारत आ कर बसे और केवल 7 लाख मुस्लिम अन्य क्षेत्रों में जाकर बसे। पाकिस्तान में गैर-मुस्लिम संवैधानिक और कानूनी भेदभाव का सामना करते हैं, नतीजतन, आज भी पाकिस्तान के हिंदू और सिख भारत में शरण मांगते हैं। भारत में कई धार्मिक शरणार्थी तिब्बत से भी आये हैं। तिब्बती प्रवास आंदोलन के नेता,14वें दलाई लामा (Dalai Lama), 1959 के तिब्बती विद्रोह के बाद भारत आ गये। उनके बाद लगभग 80,000 तिब्बती लोगों ने भारत की शरण ली। इसी प्रकार से भारत में, एक लाख से भी अधिक श्रीलंकाई तमिल लोग निवास कर रहे हैं, जिनमें से अधिकांश श्रीलंका में उग्रवाद के उदय के दौरान भारत आये थे, विशेष रूप से श्रीलंकाई गृहयुद्ध के दौरान, जो सन् 1983 से 2009 तक चला। वर्तमान समय में, भारत में लगभग 8,000 से 11,684 अफगान शरणार्थी हैं, जिनमें से अधिकांश हिंदू और सिख धर्म से सम्बंधित हैं। पूर्वी बंगाल के कई लोग, जो मुख्य रूप से हिंदू थे, 1947 में भारत के विभाजन के दौरान पश्चिम बंगाल चले गए थे। इन आंकड़ों को देखकर यह कहा जा सकता है कि, भारत अनेकों क्षेत्रों के लोगों के लिए एक सुरक्षित आश्रय स्थल रहा है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि, भारत के पास शरणार्थियों की सुरक्षा के लिए कोई भी राष्ट्रीय, क्षेत्रीय या अंतर्राष्ट्रीय नीति नहीं है, और न ही इसके पीछे छिपे कारण का आधिकारिक तौर पर खुलासा किया गया है। भारत सहित, अधिकांश दक्षिण एशियाई देशों के पास अपने शरणार्थियों की सुरक्षा के लिए कोई नीति नहीं हैं। इसके पीछे अनेकों कारण बताए जाते रहे हैं, जिनमें से भारत के लिए एक मुख्य कारण 1951 के ‘शरणार्थी सम्मेलन’ में हस्ताक्षर नहीं करना था। 1947 में भारत विभाजन के दौरान, अत्यधिक जनसंख्या विनिमय हुआ। उस समय, शरणार्थी सम्मेलन, एकमात्र शरणार्थी साधन था, जिसे द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विस्थापित हुए लोगों को संरक्षण देने के लिए बनाया गया था। किंतु इस सम्मेलन की प्रकृति यूरोप-केंद्रित थी, तथा यह केवल 1 जनवरी 1951 से पहले के उन लोगों को शरणार्थियों का दर्जा देती थी, जिन्होंने अपने मूल राज्य या राष्ट्रीयता की सुरक्षा खो दी है। इस प्रकार 1951 का यह सम्मेलन, केवल उन लोगों पर लागू होता था, जो राज्य-प्रायोजित (या राज्य-समर्थित) उत्पीड़न के कारण अपना क्षेत्र छोड़कर भाग गए थे। भारत का विभाजन और 1947 का प्रवास, राज्य-समर्थित या प्रायोजित उत्पीड़न की श्रेणी में नहीं आया। जिन लोगों ने पलायन किया, वे 'राज्य-प्रायोजित उत्पीड़न' या 'युद्ध' के बजाय 'सामाजिक उत्पीड़न' की श्रेणी में आये। इस प्रकार इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खारिज कर दिया गया, जिससे 1951 के शरणार्थी सम्मेलन के प्रति एक समग्र संदेह पैदा हुआ। शरणार्थियों की स्थिति को ध्यान में रखकर 1967 में संयुक्त राष्ट्र ने शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित अपने प्रोटोकॉल (Protocol) में 1 जनवरी 1951 की तिथि को हटा दिया। लेकिन भारत ने इस संधि पर हस्ताक्षर न करने का फैसला लिया, जिसका मुख्य कारण अंतर्राष्ट्रीय आलोचना और आंतरिक मामलों में बाह्य और अनावश्यक हस्तक्षेप का डर था। सम्मेलन पर हस्ताक्षर करने का मतलब है, कि देश शरणार्थियों के रूप में स्वीकार किये गये लोगों के प्रति आतिथ्य और आवास के एक न्यूनतम मानक को स्वीकार करेगा। ऐसा करने में विफल होने पर उस देश को आज भी अनेक अंतर्राष्ट्रीय आलोचना का सामना करना पड़ता है। दक्षिण एशिया में सीमाओं की अनुपयुक्त प्रकृति, निरंतर जनसांख्यिकीय परिवर्तन, गरीबी, संसाधन संकट और आंतरिक राजनीतिक असंतोष आदि के कारण भारत के लिए इस प्रोटोकॉल को स्वीकार करना असंभव है। 1951 के सम्मेलन या इसके प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर करने का मतलब होगा, कि भारत ने अपनी आंतरिक सुरक्षा, राजनीतिक स्थिरता और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की अंतर्राष्ट्रीय जांच करने की अनुमति प्रदान करेगा। हालांकि भारत के पास शरणार्थियों के लिए कोई नीति नहीं है, लेकिन यह बात महत्वपूर्ण है, कि भारत वर्षों से विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को एक सुरक्षित आश्रय स्थल प्रदान कर रहा है।