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भारत में अनेक प्रकार की वास्तुकला के उदाहरण देखने को मिलते हैं, जिनमें से आंग्ल-भारतीय या एंग्लो-इंडियन (Anglo-indian) शैली भी एक है, जिसे इंडो-गोथिक शैली (Indo-Gothic) भी कहा जाता है। यह शैली, नियो (Neo) गोथिक शैली से व्युत्पन्न हुई है, जो उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ब्रिटेन में आधुनिक राष्ट्रीय शैली के रूप में अपनाया गयी थी। सर बार्टले फ्रेरे जो 1862 से 1867 तक, बॉम्बे (Bombay) के गवर्नर (Governor) रहे, तथा गिल्बर्ट स्कॉट जो ब्रिटेन के गोथिक पुनरुद्धार के प्रमुख वास्तुकारों में से एक थे, ने भारत में इंडो-गोथिक शैली को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इंडो-गोथिक शैली, का उपयोग बड़े पैमाने पर बॉम्बे प्रेसीडेंसी (Presidency) तक ही सीमित रहा। छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस (Terminus) शहर के सबसे बडे इंडो-गोथिक इमारतों में से एक माना जाता है जो विक्टोरियन गोथिक पुनर्जागरण और पारंपरिक भारतीय वास्तुकला का अनूठा मेल है। 1996 तक टर्मिनस को विक्टोरिया टर्मिनस के नाम से जाना जाता था जिसे बाद में छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और फिर छत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनस के नाम से जाना गया। फ्रेडरिक विलियम स्टीवंस द्वारा डिजाइन (Design) किये गये इस टर्मिनस में पत्थर के गुंबद, सजावटी मीनारें, सीढ़ियां, स्तंभ, नुकीले आर्च (Arch), ऊंची छतें और विशाल सजावटी मूर्तियां तथा नक्काशियां देखने को मिलती हैं। टर्मिनस का मुख्य मार्ग 10 टेराकोटा (Terracotta) चित्र से सजाया गया है। इमारत के एक मुख्य स्तम्भ पर शेर की मूर्ति (ब्रिटेन का प्रतीक) तथा दूसरे मुख्य स्तम्भ पर चीते (भारत का प्रतीक) की मूर्ति है। इसके आगे अनेकों जंतुओं और वनस्पतियों की छवियां उत्कीर्णित की गयी हैं। इस शैली ने विनीशियन (Venetian) गोथिक परंपरा का भी अनुसरण किया। उदाहरण के लिए खुले बरामदे, जो भारी मानसूनी बारिश से सुरक्षा प्रदान करते हैं तथा कार्यालयों को सूरज की तपन से भी बचाते हैं। इस प्रकार शैली ने शहर के निर्माण कार्यक्रम के संयुक्त नेतृत्व को प्रतिबिंबित किया।
अन्य प्रमुख एंग्लो-इंडियन वास्तुकला शैली, जिसे इंडो-सरैसेनिक (Saracenic) के रूप में जाना जाता है, इंडो - इस्लामिक वास्तुकला पर आधारित है, जो फारस (अब ईरान), अफगानिस्तान और मध्य एशिया के साथ-साथ क्षेत्रीय भारतीय परंपराओं से ली गई थी। यह एक पुनर्जागरण स्थापत्य शैली थी जिसका उपयोग भारत में 19 वीं शताब्दी के बाद में ब्रिटिश वास्तुकारों द्वारा किया गया, विशेष रूप से ब्रिटिश राज में सार्वजनिक और सरकारी इमारतों और रियासत के शासकों के महल में, जो समकालीन और पहले उच्च भारतीय वास्तुकला को प्रतिबिंबित करते थे। इसमें राजस्थानी, मुगल और मराठा युग सहित शाही भारतीय वास्तुकला को भी शामिल किया गया जिसे अंग्रेजों ने शास्त्रीय भारतीय शैली माना था। इमारतों की मूल रूप-रेखा और संरचना ने समकालीन इमारतों की उन सामान्यताओं को साझा किया जो अन्य शैलियों जैसे गोथिक पुनर्जागरण और नियो-क्लासिकल (Neo-Classical) में इस्तेमाल की गयी थी। सरसेन का इस्तेमाल मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के मुस्लिम या अरबी भाषी लोगों और क्षेत्रों का वर्णन करने के लिए यूरोप में 19 वीं शताब्दी तक किया जाता था। कहा जाता है कि पहला इंडो-सरसेनिक भवन वर्तमान में चेन्नई (मद्रास) का चेपॉक पैलेस (Chepauk Palace) है, जिसे 1768 में पूरा किया गया था। चूंकि बॉम्बे और कलकत्ता उस समय राज प्रशासन के मुख्य केंद्र थे इसलिए यहां इस शैली में कई इमारतें निर्मित की गयी थीं। हालाँकि कलकत्ता स्वदेशी यूरोपीय नव-शास्त्रीय वास्तुकला का एक गढ़ भी था जो इंडिक वास्तु तत्वों के साथ जुडा था। अधिकांश प्रमुख इमारतों को अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा निर्धारित धरोहर भवनों की श्रेणी में रखा गया है, और संरक्षित किया गया है।
इस शैली ने ब्रिटिश भारत के बाहर अत्यंत लोकप्रियता हासिल की, जहां वास्तुकारों ने विभिन्न क्षेत्रों और अवधि के साथ
निर्भीकता से, अक्सर इस्लामी और यूरोपीय तत्वों को मिश्रित किया। भारत से स्थानांतरित किए गए वास्तुकारों और
इंजीनियरों के माध्यम से, इस शैली को ब्रिटिश सीलोन (Ceylon - वर्तमान श्रीलंका) और फेडरेटेड मलय राज्यों
(Federated Federated malay - वर्तमान मलेशिया) में अपनाया गया था। देश में इंडो-सरसेनिक वास्तुकला के कई
उदाहरणों के साथ, अंग्रेज भी इस शैली को ब्रिटिश सुदूर पूर्व के बाहर यहां तक ब्रिटेन में भी स्थानांतरित करने के
इच्छुक थे। ब्राइटन (Brighton) में रॉयल पैवेलियन (Royal Pavilion), और ग्लूस्टरशायर (Gloucestershire) में एसेंट्रिक
सेज़िंकोट हाउस (eccentric Sezincote House) इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। इंडो-सरसैनिक शैली के प्रमाण
सार्वजनिक, निजी और सरकारी स्वामित्व वाली इमारतों के रूप में देखने को मिल सकते हैं, जिसमें लोहे, स्टील (Steel)
और कंक्रीट (Concrete) से बनी आधारिक संरचना शामिल हैं। भारत में और कुछ आस-पास के देशों में
इंडो-सरसेनिक शैली में निर्मित संरचनाएं मुख्य रूप से भव्य सार्वजनिक भवन जैसे क्लॉक टॉवर (Clock towers) और
आंगन थे। इसी तरह, टाउन हॉल (Town hall) के साथ-साथ नगरपालिका और सरकारी विद्यालय इस शैली की
बेशकीमती संरचनाओं में गिने जाते हैं। इसी प्रकार से कई स्थानीय रेलवे स्टेशन, संग्रहालय और कला दीर्घाओं के
निर्माण की योजना भी इसी शैली के आधार पर तैयार की गई है। चेन्नई में इस वास्तुकला के महत्वपूर्ण उदहारण देखे
जा सकते हैं, जिनमें विक्टोरिया पब्लिक हॉल (Public hall), मद्रास हाई कोर्ट, चेन्नई सेंट्रल स्टेशन (Central Station)
आदि शामिल हैं। गुंबद, छज्जे, इंद्रधनुषी मेहराब, दीवारों का लाल और सफेद रंग, छतों के साथ खुले मंडप, जालीदार
खिडकियां, मीनारें आदि इस शैली की मुख्य विशेषताएं हैं। रामपुर का खुसरू बाग महल इस शैली का महत्वपूर्ण
उदाहरण पेश करता है। यद्यपि इन शैलियों की वास्तुकला उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विकसित और अपनाई गई
थी, लेकिन यह रामपुर में महल सराय और खुसरो बाग महल में आसानी से देखी जा सकती है, जिनका निर्माण 1774
से 1800 के बीच किया गया था। बाद में लगभग 1905 में डब्ल्यू.सी. राइट (W.C. Wright) जिन्हें ‘इंडो-सरसेनिक'
वास्तुकला के लिए मुख्य अभियंता के रूप में जाना जाता है, ने 1896 में रामपुर के नवाब हामिद अली खान के सिंहासन
पर बैठने के अवसर में उनके कहने पर किले और सराय महल परिसर का पुनर्निर्माण किया, इसलिए आज यह
वास्तुकला के इंडो-सरसेनिक और एंग्लो-इंडियन शैलियों के मिश्रण के साथ दिखाई देती है। राइट की वास्तुकला को
'इंडो-सरैसेनिक' कहा जा सकता है, क्योंकि यह इस्लामी, हिंदू और गोथिक पुनर्जागरण के तत्वों को संश्लेषित करता
है, जो कि 19 वीं शताब्दी के अंत और 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में पूरे भारत में कई सार्वजनिक इमारतों के लिए
इस्तेमाल की जाने वाली शैली थी।
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