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भगवान विष्णु का निवास वैकुण्ठधाम कहलाता है।इसकी रक्षा दो द्वारपालक करते हैं- जय और विजय।भगवतपुराण में यह दिया हुआ है कि चार कुमार जिनके नाम सनानंद, सनाका, सनातन और सनतकुमार हैं , वे ब्रह्मा के मानसपुत्र हैं।मानसपुत्र का मतलब है ब्रह्मा के दिमाग़ की शक्ति से पैदा हुए पुत्र।वे दुनिया का भ्रमण कर रहे थे।एक दिन उन्होंने नारायण से मिलने की योजना बनाई।अपने तप की शक्ति के कारण वे चारों कुमार छोटे बच्चे लग रहे थे।लेकिन वह थे बड़ी उम्र के।जय-विजय द्वारपालों ने उन्हें बच्चा समझकर अंदर जाने से रोका।नाराज़ कुमारों ने उनसे कहा कि अपने भक्तों के लिए भगवान विष्णु हर समय उपलब्ध रहते हैं।साथ ही उन्होंने जय-विजय को श्राप भी दे दिया।
क्या था श्राप
नाराज़ कुमारों ने जय-विजय को श्राप दिया कि उनका देवत्व ख़त्म हो जाएगा।भूलोक पर मनुष्य के रूप में जन्म लेना होगा।साधारण जीवन जीना होगा।
भगवान विष्णु द्वारा दिए गए विकल्प
भगवान विष्णु वहाँ आ गए।जय-विजय ने उनसे कुमारों के श्राप से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की।विष्णु भगवान ने कहा कि श्राप वापस नहीं हो सकता।जय-विजय के बहुत कहने पर विष्णु जी ने उन्हें दो विकल्प दिए।पहला विकल्प था सात जन्मों तक विष्णु भक्त के रूप में पृथ्वी पर निवास या तीन जन्मों तक विष्णु के शत्रु के रूप में पृथ्वी पर वास।इनमें से कोई भी विकल्प पूरा होने पर उनकी वैकुण्ठ में वापसी होगी।इसके बाद वह हमेशा के लिए वहाँ रह सकेंगे।जय-विजय सात जन्मों तक भगवान विष्णु से दूर नहीं रह सकते थे, इसलिए उन्होंने तीन जन्मों तक उनके शत्रु के रूप में जन्म लेने का विकल्प चुना।
कैसे शापमुक्त हुए जय-विजय
सतयुग में जय-विजय हिरण्यकश्यपु और हिरण्याक्षा के रूप में दक्ष प्रजापति की पुत्री दीति और संत कश्यप के यहाँ पैदा हुए।वरहा और नरसिम्हा ने उनकी हत्या की।त्रेता युग में अपने दूसरे जन्म में जय-विजय का जन्म रावण और कुम्भकर्ण के रूप में हुआ और भगवान राम के हाथों उनकी मौत हुई।द्वापर युग में अपने तीसरे जन्म में वे दंतावक्र और शिशुपाल के रूप में पैदा हुए और भगवान कृष्ण के हाथों मारे गए।ध्यान देने की बात यह है कि जय-विजय की ताक़त हर जन्म के साथ घटती जा रही थी।भगवान विष्णु को बार-बार उन्हें मारने के लिए अवतार लेना पड़ रहा था।
जय-विजय की स्वर्ग वापसी
भगवान विष्णु की आज्ञानुसार तीन लगातार जन्मों तक भूलोक में आते-आते जय-विजय धीरे-धीरे ईश्वर के नज़दीक होते गए।असुर से शुरू होकर राक्षस और फिर मनुष्य का जीवन जीकर वे वापस देवत्व के पास पहुँचे।इस प्रकार अंतिम रूप से हमेशा के लिए उनकी वैकुण्ठ वापसी हो गई।
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