भारतीय सौंदर्यशास्त्र का केंद्र बिंदु हैं भाव और रस

दृष्टि II - अभिनय कला
24-10-2020 01:37 AM
Post Viewership from Post Date to 09- Nov-2020
City Subscribers (FB+App) Website (Direct+Google) Messaging Subscribers Total
2203 258 0 2461
* Please see metrics definition on bottom of this page.
भारतीय सौंदर्यशास्त्र का केंद्र बिंदु हैं भाव और रस

भारत में रंगमंच की उत्पत्ति का रहस्य, नाट्यशास्त्र, या नाटक नियमावली की शुरुआत में बताया गया, जो भारतीय संस्कृति में रंगमंच और नृत्य की केंद्रीय भूमिका को दर्शाता है। नाट्य, रंगमंच की कला (नृत्य सहित), निर्माता भगवान ब्रह्मा का कार्य था, जिन्हें मानव जाति को 5वां वेद देने के लिए कहा गया था। पहले के चार वेदों के विपरीत, यह वेद सभी लोग समझ सकते थे। इस प्रकार ब्रह्मा ने अन्य देवताओं की सहायता से नाट्य वेद की रचना की। नाट्य को तब भगवान ब्रह्मा ने पौराणिक ऋषि भरत मुनि को पढ़ाया, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने इस शिक्षण को नाट्यशास्त्र में दर्ज किया था। नाट्यशास्त्र शायद दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे व्यापक रंगमंच (Theater) और नृत्य मैनुअल (Manual) है, और यह अभी भी भारत में थिएटर और नृत्य के शास्त्रीय रूपों की नींव रखता है। इस ग्रंथ का संकलन संभवत: दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व का है, हालांकि इसमें तैयार की गई परंपरा पुरानी थी।
नाट्यशास्त्र ने भाव और रस के सिद्धांत का परिचय दिया, जो कि भारतीय सौंदर्यशास्त्र का केंद्र बिंदु हैं। भारत के अधिकांश पारंपरिक कला रूपों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा जो कि स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। भाव का अर्थ भावनात्मक स्थिति या मनोदशा है, जिसे नर्तक-अभिनेता द्वारा चित्रित किया जाता है तथा रस, ‘स्वाद’ या ‘सार’, उस भावना को संदर्भित करता है, जो अभिनेता द्वारा प्रकट किया गया होता है तथा यह दर्शकों का आह्वान करने वाली होनी चाहिए। भारतीय काव्य और नाट्यशास्त्र के लिए रस की अवधारणा अद्वितीय है और अनिवार्य रूप से भारतीय प्रतिभाशाली भरत द्वारा निर्मित की गयी है। अपनी संक्षिप्त और संगठित प्रस्तुति के साथ भरत मुनि ने काव्य और नाटकीयता के उद्घोष में एक आला रस-सूत्र उकेरा। रस मूल रूप से संख्या में 8 थे, लेकिन नाट्यशास्त्र के बाद की परंपरा में इसमें नौवां भाग भी जुड़ा। ये आठ रस श्रृंगार (श्रृंगारः), हास्यकारक (हास्यं), दया (कारुण्यं), उग्र (रौद्रं), वीरता (वीरं), भयानक (भयनाकं), घृणा (बिभत्सं), अद्भुत (अभुतं) और शांतचित्त (सांता) हैं। श्रृंगारिक रस प्रेम और आकर्षण को प्रदर्शित करता है, जो भगवान विष्णु और हल्के हरे रंग को संदर्भित करते हैं। हास्यं रस हँसी को प्रदर्शित करता है, जो भगवान शिव और सफेद रंग को संदर्भित करते हैं। कारुण्यं रस, दया और क्षमा को प्रदर्शित करते हैं, जो भगवान यम और ग्रे (Gray) रंग को संदर्भित करता हैं। रौद्रं रस, आक्रोश या क्रोध को प्रदर्शित करता है, जो भगवान शिव और लाल रंग को संदर्भित करते हैं। इसी प्रकार से वीरं रस, वीरता को प्रदर्शित करता है, जो भगवान इंद्र और केसरी रंग को संदर्भित करते हैं। भयानकं रस, भयानक, डर या आतंक को प्रदर्शित करता है जो भगवान यम और काले रंग को संदर्भित करता है। बीभत्सं रस, घृणा या अरूचि को प्रदर्शित करते हैं, जो भगवान शिव और नीले रंग को संदर्भित करते हैं। अद्भुतं रस आश्चर्य को प्रदर्शित करता है जो भगवान ब्रह्मा और पीले रंग को संदर्भित करते हैं। इसी प्रकार से सांतम रस शांति या संतोष को प्रदर्शित करता है जो भगवान विष्णु और सफेद रंग को संदर्भित करते हैं। नाट्यशास्त्र में भरत मुनि ने रस की व्याख्या करते हुये कहा है कि विभाव, अनुभव, संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। हृदय का स्थायी भाव, जब विभाव, अनुभव और संचारी भाव का संयोग प्राप्त कर लेता है, तो रस रूप में उत्पन्न हो जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार, इन स्थायी भावनाओं में से किसी भी एक को कला के किसी भी अच्छे काम को नियंत्रित करना चाहिए। भरत के अनुसार, अभिनेता-नर्तक को स्थायी भाव के माध्यम से, दर्शकों में रस अनुभव प्राप्त करने में सक्षम होना चाहिए जो निर्धारकों (विभव) और उत्तेजक (अनुभव) द्वारा समर्थित है। मन की विभिन्न क्षणभंगुर अवस्थाओं के माध्यम से इनका विस्तृत वर्णन किया जाता है। यदि सब कुछ ठीक होता है, तो दर्शक इन विभिन्न संकेतों को समझ लेता है, जो उसके मन में प्रश्न के प्रति विशेष भाव जागृत करता है। भरत मुनि के अनुसार रस कविता और नाटक में सौंदर्य के भावनात्मक अनुभव को संदर्भित करता है। किसी नाटक को लिखने, प्रस्तुत करने और देखने का अंतिम लक्ष्य रस बोध का अनुभव करना है। उनके अनुसार रस आनंद की मानसिक स्थिति है, जो पात्रों द्वारा प्रकट भावों या भावनाओं की अपरिहार्य प्रतिक्रिया के रूप में किसी नाटक के दर्शक या श्रोता में या कविता के पाठक में उत्पन्न होती है। रस, भावों और मन की स्थिति द्वारा निर्मित होते हैं। रस सिद्धांत का संस्कृत पाठ नाट्य शास्त्र में एक समर्पित खंड है। हालाँकि, नाटक, गीत और अन्य प्रदर्शन कलाओं में इसका सबसे पूर्ण प्रदर्शन कश्मीरी शैव दार्शनिक अभिनव गुप्त की रचनाओं में मिलता है। नाट्य शास्त्र के रस सिद्धांत के अनुसार, प्रदर्शन कला का प्राथमिक लक्ष्य दर्शकों में व्यक्ति को एक अन्य समानांतर वास्तविकता में संचारित करना है, जो आश्चर्य और आनंद से भरा हुआ है, जहां वह अपनी चेतना का सार अनुभव करता है, और आध्यात्मिक और नैतिक सवालों को प्रतिबिंबित करता है। हालांकि रस की अवधारणा नृत्य, संगीत, रंगमंच, चित्रकला, मूर्तिकला और साहित्य सहित भारतीय कलाओं के कई रूपों के लिए मौलिक है, लेकिन एक विशेष रस की व्याख्या और कार्यान्वयन विभिन्न शैलियों और स्कूलों (Schools) के बीच भिन्न होता है।
नाट्यशास्त्र में वर्णित शास्त्रीय भारतीय नृत्य तकनीक दुनिया में सबसे विस्तृत और जटिल है। इसमें 108 करण या बुनियादी नृत्य इकाइयां, खड़े होने के चार तरीके, पैरों और कमर की 32 गतिविधियां, गर्दन की 9, भौंहों 7 गतिविधियां, 36 प्रकार के अवलोकन (एक टक देखना) और प्रतीकात्मक हाथ के इशारे, एक हाथ के लिए 24 और दोनों हाथों के लिए 13 तरीके शामिल हैं। रस को व्यक्त करने हेतु सक्षम होने के लिए पैरों के तलवों से लेकर पलकों और उंगलियों तक, नर्तक-अभिनेता के पूरे शरीर को, वर्षों के कार्य द्वारा अभिव्यक्ति के बहुमुखी साधन के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। रस का भारतीय सिद्धांत बाली और जावा (इंडोनेशिया) में हिंदू कलाओं और रामायण संगीत प्रस्तुतियों में कुछ क्षेत्रीय रचनात्मक विकास के साथ पाया जाता है। नाट्यशास्त्र के अध्याय 6 में, भरत ने विस्तार से नाटक के निर्माण में रस के महत्व और इसकी आवश्यक भूमिका पर चर्चा की है। भरत मुनि के अनुसार, रस के संदर्भ के बिना मंच पर कुछ भी आगे प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार से भरत ने भावों का विवरण भी दिया है। भाव वह भावना है जो आनंद या अनुभव पैदा करता है, जो अपने आप में एक इकाई है और वह आनंद या अनुभव रस है। भाव तीन प्रकार के होते हैं, स्थायी भाव, संचारी भाव, और सात्विक भाव। स्थायी भाव आठ प्रकार के होते हैं, जिनमें रति (प्रेम), खुशी, शोक (दुख), क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा (विमुखता), विस्मय शामिल हैं। संचारी भाव 33 प्रकार के हैं, जिनमें निर्वैद (उदासी), ग्लानि (अवसाद), शंका (शक), असुया (ईर्ष्या), मद, शर्म, आलस्य, दैन्य (लाचारी), चिंता, मोह, स्मृति, साहस, गर्व आदि शामिल हैं। भाव की अभिव्यक्ति के साथ मंच पर बनाई गई कल्पना दर्शकों के मन में रस पैदा करती है और प्रदर्शन को पूरी तरह से सुखद बनाती है। इस प्रकार यह लेखक, अभिनेता और दर्शकों द्वारा समान रूप से साझा किया गया एक अनुभव है। इसी प्रकार से सात्विक भाव आठ प्रकार के हैं, जिनमें स्तम्भ (निस्तब्ध), रोमांच, स्वरभेद (आवाज में विराम), विपथु (कम्पन), वैवर्ण्य (धुंधलापन), अश्रू और प्रलय आदि शामिल हैं। रसों के बनने तक दर्शकों के मन में जो भावनाएँ बनी रहती हैं, उन्हें स्थायी भाव कहा जाता है। रस के निर्माण में योगदान देने वाली भावनाओं को संचारी-भाव के रूप में वर्गीकृत किया गया है और मानसिक सतह में भावना की तीव्रता के परिणामस्वरूप शारीरिक अनैच्छिक अभिव्यक्तियाँ, जो स्वयं प्रकट होती हैं 'सात्विक-भाव' कहलाते हैं। भरत कहते हैं कि इन 47 भावनाओं का विन्यास सहानुभूति रखने वाले दर्शकों के मन में रस के सृजन को बढ़ावा देता है। रसों और भावों का सिद्धांत भरतनाट्यम, कथकली, कथक, कुचिपुड़ी, उडीसी, मणिपुरी, कुडियट्टम और अन्य सभी भारतीय शास्त्रीय नृत्य और रंगमंच के सौंदर्य को रेखांकित करता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में, प्रत्येक राग एक विशिष्ट मनोदशा के लिए एक प्रेरित रचना है, जहाँ संगीतकार या कलाकारों की टुकड़ी श्रोता में रस पैदा करती है। रस का भारत के सिनेमा पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है।

संदर्भ:
https://en.wikipedia.org/wiki/Rasa_(aesthetics)
http://www.iosrjournals.org/iosr-jhss/papers/Vol19-issue5/Version-4/E019542529.pdf
https://disco.teak.fi/asia/bharata-and-his-natyashastra/
चित्र सन्दर्भ:
पहली छवि नाट्यशास्त्र को दिखाती है।(classic claps)
दूसरी छवि कला प्रदर्शन में भाव को दर्शाती है।(kalyani kala mandir)
तीसरी छवि प्रदर्शन कला के माध्यम से खुशी रस दिखाती है।(kalyani kala mandir)